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Aakhiri Ishq Sabse Pahle Kiya
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Aakhiri Ishq Sabse Pahle Kiya

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About Book

इस किताब में एक ऐसे शाइ’र की शाइ’री है जो शहर के बाज़ारों के बीचों-बीच अपने वजूद के सहरा में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। उनकी शाइ’री से ये नुमायाँ होता है कि उन्होंने वक़्त को अपने जिस्म के चाक पर रख कर उससे अपनी रफ़्तार का हम-रक़्स कर दिया है। वो किसी कि मदहोश बाँहों की ख़्वाहिशों के नशे में इश्क़ के ला-मुतनाही सफ़र में अपने हम-असरों से काफ़ी आगे निकल आए हैं और उनकी शाइरी को इश्क़ का सफ़र-नामा भी कहा जा सकता है। उनके सहराई बदन का अहाता इतना वसीअ है कि इश्क़-ओ-हवस के तमाम ज़ावियों ने इस दश्त में अपना घर कर लिया है। नोमान शौक़ सुब्ह-ओ-शाम अपने दश्त-ए-बदन में अपने महबूब को सोचते और लिखते रहते हैं।.

About Author

नो’मान शौक़ (सैयद मोहम्मद नो’मान) का जन्म 2 जुलाई 1965 को आरा, बिहार में हुआ और शिक्षा दीक्षा भी वहीं हुई। शे’र कहना 1981 में शुरू किया। अंग्रेज़ी और उर्दू में एम.ए. करने के बा’द 1995 में आकाशवाणी से संबद्ध हुए और प्रसारणकर्ता की हैसियत से अधिकांश समय एफ़.एम. एवं उर्दू प्रोग्राम को दिया। फ़िलहाल आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा में कार्यरत हैं। नो’मान शौक़ की कविताएं, ग़ज़लें, समीक्षाएं, लेख, अनुवाद आदि विभिन्न उर्दू-हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में न सिर्फ़ प्रमुखता से प्रकाशित होती रही हैं बल्कि उनकी रचनाओं का देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी किया गया है। अब तक इनकी चार किताबें अजनबी साअ’तों के दर्मियान, जलता शिकारा ढूंढने में, फ़्रीज़र में रखी शाम, अपने कहे किनारे उर्दू में और कविता संग्रह रात और विषकन्या हिंदी में भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित की है। क‌ई उर्दू-हिंदी पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइट्स की परिकल्पना एवं संपादन में भी नो’मान शौक़ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जनीतिक और सामाजिक चिंताओं की व्यंग्यात्मक धारदार परन्तु सरल सहज अभिव्यक्ति और मोहब्बत भरे बेबाक लहजे की बदौलत समकालीन उर्दू शाइ’री में एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर की हैसियत रखते हैं। बुनियादी तौर पर ग़ज़ल का शाइ’र होने के बावजूद नो’मान शौक़ की शाइ’री प्रतिरोध और प्रेम का एक अद्भुत वैचारिक संगम है।

 

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फ़ेह्‍‌रिस्त

फ़ेह्रिस्त
1 आठों पहर का ये तिरा मज़दूर आ गया
2 अपनी ख़ातिर ऐ ख़ुदा ये काम कर
3 जिस्म मलबूस का यकलख़्त नया हो जाना
4 गया बेकार आख़िर ये बरस भी
5 सानी नहीं था उसका कोई बांकपन में रात
6 ग़बी हुजूम में कोई भी आज मेरा नहीं
7 इ’श्क़ था वाक़िआ’ बना डाला
8 जिसके आने से हुआ है दफ़्अ’तन पानी शराब
9 क्यों भला आधा-अधूरा इ’श्क़ कीजे
10 इ’श्क़ दिल में कई जहानों का
12 आस्मानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम
13 क़ाए’दे बाज़ार के इस बार उल्टे हो गए
14 ऐसे मिले नसीब से सारे ख़ुदा कि बस
15 वो मिट्टी का सितारा है हमारा
16 क्यों उधर ही निकल पड़ा जाए
17 टलने का यूँ फ़क़ीर नहीं है ये इ’श्क़ है
18 शाह-ए-ज़माँ ने भेज दिया रेशमी लिबास
19 था इ’श्क़ या मैं वाक़ई’ बीमार पड़ा था
20 मुझ इ’श्क़ को हवस भरी नज़रें अ’ता करे
21 चश्मा-ए-शारीं अलग सागर अलग
22 ख़ुदा मुआ’फ़ करे ज़िन्दगी बनाते हैं
23 दिन-ब-दिन घटती हुई उ’म्र पे नाज़िल हो जाए
24 भरे हुए हैं अभी रौशनी की दौलत से
25 इन्सानियत के ज़ो’म ने बर्बाद कर दिया
26 सारे चक़माक़-बदन आए थे तय्यारी से
27 मेरी नीयत से जानता था मुझे
28 आग और ख़ूँ के खेल से अब तक भरा न जी
29 तेज़ आँधियों के साथ गुज़ारा हुआ मिरा
30 वो भूला सुब्ह का था घर गया ना
31 कुछ को दुकान कुछ को ख़रीदार कर चुके
32 उसे बताऊँ कि सच बोलना ज़रूरी है
33 जाने किस उम्मीद पर छोड़ आए थे घर-बार लोग
34 वो इक दरिया और उसे हैरानी है
35 देखते रहिए दूर जाते हुए
36 इक चराग़ और उजाले में न रक्खा जाए
37 इक जुनूँ अपना लिबादा हो गया
38 जल्सा नहीं जुलूस नहीं शाइ’री नहीं
39 किसने हमारे शह्र पे मारी है रौशनी
40 सभी को मुस्कुरा कर मार डाला
41 जुनूँ वाले बिल-आख़िर शाहकारों से निकल आए
42 मा’बदों की भीड़ में बुझते ये इन्सानी चराग़
43 ज़मीन हस्ब-ए-ज़रूरत उगाई जाती है
44 झलक भी मिल न पाई ज़िन्दगी की
45 दूसरे नाम से जिया जाए
46 आँखों को आँसुओं की ज़रूरत है आज भी
47 ज़रा सा हो मयस्सर वो जो मुझको
48 जुज़ ख़ुदा और कोई हामी-ओ-नासिर मिल जाए
49 तबाह ख़ुद को, उसे लाज़वाल करते हैं

 

1

आठों पहर का ये तिरा मज़दूर आ गया

जन्नत के द्वार खोल मिरी हूर आ गया

 

पैग़म्बरी का दा’वा नहीं आ’शिक़ी का है

पत्थर न मारिए जो सर-ए-तूर1 आ गया

1 एक पहाड़ जहाँ मूसा को ख़ुदा का दीदार हुआ था

 

सबने सुनी जो रात की ललकार डर गए

सीना था जिसका नूर1 से मा’मूर2 आ गया

1 ज्योति 2 भरा हुआ

 

आग़ोश1 उसकी ऐसी पुरानी शराब थी

नश्शे में ख़्वाहिशों के बहुत दूर आ गया

1 आलिंगन

 

बस्ता उठाइए कि ये मक्तब1 नहीं है वो

बस्ती बदल गई नया दस्तूर2 आ गया

1 पाठशाला 2 संविधान

 

क्या चाहिए ग़ुलाम को बस इक नज़र की भीक

शर्तें तमाम आपकी मन्ज़ूर आ गया


 

2

अपनी ख़ातिर ऐ ख़ुदा ये काम कर

एक दिन दुनिया को भूल आराम कर

 

याद है मजनूँ मियाँ मेरा कहा

इ’श्क़ फ़र्मा दश्त में जा नाम कर

 

ख़ुश रहो कहते हैं जो पहचान उन्हें

दुश्मनों की साज़िशें नाकाम कर

 

एक रोज़ उसने क़रीब आकर कहा

रौशनी दे लम्स1 की गुलफ़ाम2 कर

1 स्पर्श 2 फूल जैसा जिस्म

 

क्या लिखा है इन किताबों में न देख

इ’श्क़ सच्चा है तो अपना काम कर

 

सौ जतन करके उसे राज़ी किया

जिस तरह भी हो मुझे बदनाम कर

 

ख़त में ख़ुश्बू-ए-हवस थी क्या कहा

ऐसा है तो ख़त का मज़्मूँ1 आ’म कर

1 विषय, मन्तव्य


 

3

जिस्म मलबूस1 का यकलख़्त2 नया हो जाना

सामने आना तिरा जश्न बपा हो जाना

1 पोशाक 2 अचानक

 

निस्फ़1 ईमान पे नाचीज़2 टिका है कब से

मान लेता नहीं बन्दे का ख़ुदा हो जाना

1 आधा 2 तुच्छ (अपने लिए अति विनम्रता प्रकट करने वाला शब्द)

 

देर तक उसने लगाए रखा सीने से मुझे

जिससे सीखा है दरख़्तों ने हरा हो जाना

 

दुश्मन-ए-जाँ हो अगर ऐसे ख़ुदाओं का हुजूम

हमने सीखा नहीं राज़ी-ब-रज़ा1 हो जाना

1 नत मस्तक हो कर स्वीकार कर लेना

 

आज सर काट के जन्नत नहीं माँगी तुमने

है बुरी बात नमाज़ों का क़ज़ा1 हो जाना

1 छूट जाना

 

ऐसे मन्सूबे1 को नाकाम करेंगे हम लोग

इसमें शामिल है अगर तेरा ख़ुदा हो जाना

1 योजना


 

4

गया बेकार आख़िर ये बरस भी

मोहब्बत भी अधूरी है हवस भी

 

उसे बस सोचना और लिखते रहना

यहीं तक है हमारी दस्तरस1 भी

1 पहुँच

 

बड़ा दा’वा है तुझको दिलबरी का

गरजने वाले आ इक दिन बरस भी

 

दरिन्दों के परिन्दों के मज़े हैं

कभी इन्साँ पे आएगा तरस भी

 

उसे इक बार बस इक बार मिल लो

तो कम पड़ जाएँ दिल दो चार दस भी


 

5

सानी1 नहीं था उसका कोई बांकपन में रात

अंगड़ाई ले के जाग उठी थी बदन में रात

1 तुलना योग्य

 

बेहूदा रौशनी की अज़िय्यत1 थी शह्​र में

सो हमने तय किया कि गुज़ारेंगे बन2 में रात

1 यातना 2 जंगल

 

कल तुमने हाल भी नहीं पूछा ग़रीब का

किस तर्ह काटनी पड़ी अपने बदन में रात

 

जिसने सभी को रंग लिया अपने रंग में

सच पूछिए तो ताक़1 है बस एक फ़न2 में रात

1 दक्ष, निपुण 2 कला

 

औक़ात1 मेह्​र-ओ-माह2 की मा’लूम तब हुई

जब हम गुज़ार आए तिरी अन्जुमन3 में रात

1 हैसियत 2 सूरज और चाँद 2 महफ़िल

 

चुनता रहा तमाम शब उसके बदन से फूल

ऐसा लगा कि थम सी गई हो चमन में रात


 

6

ग़बी1 हुजूम2 में कोई भी आज मेरा नहीं

मिरे ख़िलाफ़ है ये एहतिजाज3 मेरा नहीं

1 मूर्ख 2 भीड़ 3 विरोध प्रदर्शन

 

तमाम नादिर-ओ-चंगेज़ मुझसे दूर रहें

ये तख़्त मेरा नहीं है ये ताज मेरा नहीं

 

मैं ख़ुद-सरों1 की जमाअ’त2 का शाहज़ादा हूँ

किसी की शान में हरगिज़ ख़िराज3 मेरा नहीं

1 स्वेच्छाचारी, उद्दंड 2 समूह 3 ता’रीफ़, दाद

 

क़सीदे1 मुझसे न लिखवाओ मैं ग़ज़ल का हूँ

पता तो होगा तुम्हें ये मिज़ाज मेरा नहीं

1 अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशंसा

 

ग़ुलाम-ए-हुस्न हूँ अपनी पनाह1 में ले लो

ख़ुदा-गवाह कोई काम-काज मेरा नहीं

1 शरण

 

ये साँप रक़्स की तहज़ीब क्या सिखाएँगे

अब इतना ग़ैर-मुहज़्ज़ब समाज मेरा नहीं

 

ख़ुद अपने सच से परेशान हैं क़लम वाले

किसान चीख़ रहे हैं अनाज मेरा नहीं

 

कहेगा कौन ये फ़ेह्​रिस्त1 आ’शिक़ों की है

मज़ाक़ है ये कहीं इन्दिराज2 मेरा नहीं

1 सूची 2 उल्लेख

 

गले में डाल लिया इ’श्क़ नाम का ता’वीज़

तबीब1 हार गए कुछ इ’लाज मेरा नहीं

1 डॉक्टर

 

तमाम ज़ह्​र उसी की ज़बाँ उगलती है

जो कह रहा है कि साँपों पे राज मेरा नहीं

 

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