सालिम सलीम आ'ला तालीम याफ्ता नौजवान शायर है जो पिछली एक डेढ़ दहाई से शायरी के मैदान में सरगर्म है। सालिम का पहला शे'री मजमूआ उर्दू में 'वाहिमा वजूद का' और हिंदी में 'सभी रंग तुम्हारे निकले' रेख़्ता फाउंडेशन नोएडा से ताज़ा ताज़ा शाया हुआ है। यह मजमूआ सालिम की अब तक की कुल शायरी नहीं बल्कि उनकी शायरी का इंतखाब लग है और सालिम ने बहुत सख़्त पैमाना इस इंतखाब का रखा है। जो मेरे हिसाब से एक मुश्किल फैसला है और एक तरह से सालिम ने अपने क़ारी से शायरी के इंतखाब का हक़ भी छीन लिया है। ख़ासतौर पर पहले मजमूए में शायर को अपनी अच्छी और कम अच्छी दोनों तरह की शायरी को जगह देना चाहिए क्योंकि मुस्तक़बिल में आने वाले उसके शे'री मजमूए ही उसकी ग्रोथ बताते हैं । बहरहाल सालिम इस मजमूए में ग़ालिब और हाली दोनों ख़ुद ही है। मजमूआ में ज्यादातर पूरी और कुछ अधूरी मिलाकर कुल छियानवे ग़ज़लें हैं। मैं अपना ता'सुर देवनागरी ज़ुबान में छपे मजमूए 'सभी रंग तुम्हारे निकले' पर दे रहा हूं इसलिए यह कहना भी बहुत ज़रूरी है कि इस किताब की एक कमी यह है कि इसमें आम उर्दू या यूं कहें हिंदुस्तानी ज़ुबान जानने वाले क़ारी को काफी दुश्वारी पेश आने वाली है। सालिम सलीम ख़ालिस उर्दू ज़ुबान का शायर है जिसकी लगभग हर ग़ज़ल में उर्दू के मुश्किल अल्फाज़ मौजूद हैं जिसके सबब लगभग हर शेर के नीचे अल्फाज़ के मा'नी लिखे गए हैं। यानी उर्दू ना जानने वाले या कम जानने वाले क़ारी के लिए यह एक मुश्किल शायरी की किताब है। लेकिन इसका यह मतलब क़तई नहीं है कि यह शायरी कमज़ोर है। सिर्फ इतना है कि सालिम की शायरी समझने के लिए क़ारी को उर्दू की अच्छी जानकारी हो या फिर वो सब-टाइल्स से काम चलाए।
इस मजमुऐ से पहली मरतबा गुज़रने के बाद पहला ता'सुर यह क़ायम होता है कि सालिम सलीम तलाश ए ज़ात का शायर है, तलाश ए कायनात का नहीं। लेकिन आने वाले वक़्त में यह तलाश ए ज़ात ही तलाश ए कायनात की राह हमवार करेगी, ऐसा मेरा यक़ीन है। सालिम की शायरी एक इन्किशाफ और करती है वो यह कि जिस कैफियत में सालिम शेर को तख़लीक़ करता होगा उस वक़्त वो अपने अन्दरून में इतना गुम हो जाता होगा कि मुश्किल से वापसी होती होगी और यह आसान तजुर्बा नहीं होता होगा।
अपने वजूद और अपनी ज़ात के रहस्यों को जानने-समझने की यह मुसलसल जद्दोजहद ही सालिम की शायरी की लाइफ लाइन है और यही उसका इम्तियाज़ भी है। इस क़ौल की ताईद में चन्द अश'आर मुलाहिज़ा हों :
यह किसकी आग मेरे तन बदन में रक़्सां हैयह किस चिराग की लौ से बंधा हुआ हूं मैंमैं आप अपने अंधेरे में बैठ जाता हूंफिर इसके बाद कोई शै चमकती रहती हैमैं अपने पैकर ए ख़ाकी में हूँ मगर मिरी रूहकहां-कहां मेरी खातिर भटकती रहती हैजाने किसका जिस्म हूँ मैंजाने किस का साया हूंयह कैसी आग है मुझ में कि एक मुद्दत सेतमाशा देख रहा हूं मैं अपने जलने काअक्स दर अक्स कोई क़ैद किए रहता हैअपने आईने से बाहर ही नहीं होता मैंजिंदगी क़ैद हूँ मैं अपने बदन के अंदरऔर बुलाता है कोई जिस्म से बाहर जैसेमैं अपने आप में डूबा हूं न जाने कितनाज़िंदगी नाप रही है अभी गहराई मिरीख़मोशी भाग निकली है मकां सेतेरी आवाज़ आई थी कहां सेक्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरीक्या बात है कि अपने ही ऊपर खड़ा हूं मैंन जाने कब से पड़ा होगा यूं ही गर्द आलूदजो मेरे साथ मेरा आईना वजूद का हैमैं अपनी ख़ाक में ज़िंदा रहूं रहूं न रहूंदरअस्ल मेरे लिए मस'अला वजूद का है
सालिम ने अपनी शायरी में अल्फ़ाज़ की कारीगरी से एक नया जहान ए मानी तरतीब दिया है और जदीद तराकीब और इज़ाफतों से नए अल्फाज़ की एक पूरी खेप नए लिखने वालों की हैरतों में इज़ाफ़ा करने के लिए तैयार की है।
लम्हा ए दीदार, लम्हा ए आसान, बारगाह ए जिस्म, दरिया ए बदन, इस्ति'आरा ए ख़्वाब, ख़्वाहिश ए कार ए मसीहाई, दश्त ए ख़ुतन, आशुफ्तगी ए जां, सेह्हत ए इश्क़, मत्ला ए इज़हार, सीना ए ख़ाली, साया ए चश्म, पहलू ए ख़ुश- मंज़री, सोहबत ए ख़ूबां, असरार ए फना, मलबा ए निगाह, ख़्वान ए जिस्म, रिज़्क़ ए विसाल, हुजरा ए तग़ाफ़ुल, शहर ए अर्ज़ानी वग़ैरह चन्द मिसालें हैं। इनका अशआर में इस्तेमाल देखिये :
इक हाथ में है आईना ए ज़ात ओ कायनात
इक हाथ में लिए हुए पत्थर खड़ा हूं मैं
ख़्वाहिश ए कार ए मसीहाई बहुत है लेकिन
ज़ख़्म ए दिल हम तुझे अच्छा नहीं होने देंगे
बस इसी वज्ह से क़ायम है मिरी सेह्हत ए इश्क़
ये जो मुझको तिरे दीदार की बीमारी है
किसी भी शायर, खास तौर पर नौजवान शायर की शायरी में इश्क़ की कारफरमाई लाज़िमी होती है। सालिम के यहां भी इश्क़ मौजूद है, मगर अपने रिवायती मा'नी ओ मफहूम में नहीं। क्योंकि सालिम रिवायत शिकन है इसलिए सालिम के यहां इश्क़ भी जदीद रंग ओ लफ्ज़ियात के साथ और इक़रार ओ इनकार की कशमकश के रुप में सामने आता है। यहां इश्क़ की वैसी चाशनी भी मौजूद नहीं है जो अमूमन नौजवान शो'रा के यहां देखने को मिलती है। यह इश्क़ भी किसी तलाश का नाम है और इश्क़ हो जाने के बाद इश्क़ के हासिल का राज़ जानने की ख़्वाहिश सालिम की शायरी में ख़ूबी के साथ उभरती दिखाई देती है। मुलाहिज़ा हो:
रगों में फूटने वाला है ताज़ा ताज़ा लहू
कि आज उससे मुलाकात होने वाली है
ज़रा सी देर जो होती है उसकी बारिश ए लम्स
तो मुद्दतों मिरी मिट्टी महकती रहती है
बस एक लम्स कि ज़िंदा हो जाएं
जाने हम कब से मरे बैठे हैं
अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे
मेरे अंदर से सभी रंग तुम्हारे निकले
क्यों न हम याद ही तुझको कर लें
यूं ही बैठे हुए ख़्याल आया
ख़त्म होती ही नहीं है मिरी आशुफ्ता सरी
उस गली में मिरा सरमाया लगा रहता है
सराब ए जां से ही सैराब हो गई मिरी प्यास
क़रीब ही किसी आब ए रवां के होते हुए
मैं तुम्हारे साया ए चश्म में हूं पड़ा हुआ
सुनो अब यहां से कहीं सफर नहीं कर रहा
क्यों न इस क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे
जिस को पाना नहीं क्या याद किया जाए उसे
अजब नहीं है कि आ ही जाऐ वो ख़ुश समा'अत
दयार ए दिल से मैं क्यों न उसको पुकार देखूं
अब मिरा सारा हुनर मिट्टी में मिल जाने को है
हाथ उस ने रख दिये हैं दीदा ए नमनाक पर
नई सदी की शायरी में शेर को क्राफ्ट करने पर ज़्यादा ध्यान दिया जाने लगा है यानि शेर की आमद को ग़ैरजरूरी मान लिया गया है और शेर बरामद करना शायरी में नया चलन बन गया है। सालिम की शायरी पढ़ने के बाद भी यही बात ज़ाहिर होती है कि सालिम को शेर की आमद पर बहुत ज़्यादा यक़ीन नहीं है बल्कि शेर बरामद करना ज़्यादा पसंद है । सालिम के यहां क्राफ्ट और डिक्शन पर ज्यादा ध्यान दिया गया है। इसके अलावा इश्क़ के हासिल होने के बाद उससे बेज़ार होने की जो कैफियत पिछली तीन चार दहाइयों की शायरी में नज़र आई है, इश्क़ का यह जदीद रंग भी सालिम की शायरी में काफी नज़र आता है। यह तज़ाद नई शायरी का ख़ास वस्फ बन गया है। सालिम के यहां एक नया और खुशगवार तज़ाद देखने को मिलता है वो यह कि जहां एक तरफ वो अपने आप को पाने की ख़्वाहिश करता है अपने वजूद का जानने के लिए बेचैन है वहीं दूसरी तरफ यह भी नज़र आता है कि वो अपने वजूद से ही इनकार कर रहा है यानी वो अपना वजूद ही राएगां समझ रहा है। यह कशमकश उसकी शायरी में हुस्न पैदा करती है और उसके ख़्याल को वुस'त अता करती है। जिससे ऐसे याद रह जाने वाले शेर तख़लीक़ होते हैं :
बहुत जीने की ख़्वाहिश हो रही थी
सो मरने का इरादा कर लिया है
वो दूर था तो बहुत हसरतें थीं पाने की
वो मिल गया है तो जी चाहता है खोने को
हयात ओ मौत की इक कशमकश है साथ मिरे
अभी मैं अपने तज़ादात से नहीं निकला
पानें लग जाएं तुझे शहर की आबादी में
फिर तिरे साथ किसी दश्त में जाने लग जाएं
फैला हुआ है सामने सेहरा ए कायनात
आंखों में अपनी ले के समंदर खड़ा हूं मैं
नहीं है यूं भी बहुत कम ये क़ुरबतों के अज़ाब
अगर कहो तो ज़रा फासला भी हो जाए
इस्बात में भी है मिरा इंकार हर तरफ
मैं कर रहा हूं अपनी ही तकरार हर तरफ
लोग इक़रार कराने पर तुले हैं कि मुझे
अपने ही आप से इंकार की बीमारी है
किसी दाद की ख़्वाहिश के बग़ैर शायरी को सिर्फ अपनी ज़ात की तलाश का ज़रिया बनाने वाला सालिम सलीम इस सदी के नौजवान शो'रा में अपनी इसी ख़ूबी के सबब भीड़ में अलग से पहचाना जाता है। उसके शे'र में दीदा ज़ेब तहदारी है जो दुबारा शे'र की हमसफरी को मजबूर करती है। अल्फ़ाज़ का इंतिख़ाब फनकाराना है। मज़ामीन में ताज़गी है और दोहराव नहीं है। इक्कीसवीं सदी की ग़ज़ल के लिए, ख़ास तौर पर किताबों में सहेजने के लिए जिस शायरी की ज़रूरत है वो शायरी सालिम सलीम के यहां है। सालिम का यह पहला मजमूआ उसकी शायरी का पहला पड़ाव है। मुझे और उर्दू दुनिया को सालिम से बहुत ज़्यादा उम्मीदें हैं और मुझे यह यक़ीन है कि हम ना उम्मीद नहीं होंगे। आख़िर में यह दुआ कि सालिम सलीम की यह तलाश ए ज़ात कभी मुकम्मल न हो।
ज़िया ज़मीर