रेख़्ता पब्लिकेशन्स की, रेख़्ता, 'हर्फ़-ए-ताज़ा' सीरीज़ की ताज़ा पेशकश है नौजवान और ज़हीन शायर महेन्द्र कुमार 'सानी' की ग़ज़लों का मजमूआ ब-उनवान 'मौजूद की निस्बत से'।
यह महेन्द्र कुमार सानी का पहला शेरी मजमूआ है और देवनागरी में शाया हुआ है। इसमें कुल छियास्सी ग़ज़लें हैं। इस मजमूए का दीबाचा नौजवान शायर और एहम अदबी रिसाले 'इस्तिफ़्सार' के मुदीर आदिल रज़ा मंसूरी ने लिखा है, जिसमें उन्होंने सानी की शायरी पर तवील गुफ़्तगू की है। जो इस मजमूए की क़िरअत की दावत देती है। इसके अलावा कुछ बातें सानी ने भी अपने मज़मून में की हैं।
महेन्द्र कुमार सानी मौजूद और ना-मौजूद के दरमियान भटकने और इन दोनों के माबैन ताल्लुक़ तलाशने वाला शायर है। इसी तलाश के दौरान अपनी कैफ़ियात-ओ-महसूसात को रक़म कर उसने अपने इन्किशाफ़ात को शेरी - पैरहन अता किया है। सानी का लगभग हर शेर उसके सवाल की उपज है और कहीं-कहीं जवाब की कोशिश भी है। सानी कहीं यह दावा नहीं करता कि उसने अपने सवालों के जवाब तलाश लिए हैं। बल्कि वो तो इस तलाश के सफ़र में बड़े इन्हिमाक और मुस्तक़िल - मिज़ाजी से गामज़न है। उसे मंज़िल की ख़्वाहिश तो है मगर वो उजलत में नहीं है। उसके यहां इश्क़ भी मौजूद और ना-मौजूद की तलाश का एक हासिल है। पहले गुफ़्तगू सानी के जहाने-शेर में इश्क़ के मानी-ओ-तफ़्हीम की।
सानी का इश्क़ बदन की बैसाखियों का मोहताज नहीं है। यही सबब है कि उसके यहां बदन नदारद है। मगर सानी के इश्क़ का इज़हार इतना नफ़ीस है कि दिल खिंचता हुआ महसूस होता है -
तुझको चुभ जाए न ये ख़ारे- निगाह
सो नफ़ासत से तुझे देखते हैं
यहां नफ़ासत सिर्फ़ एक लफ़्ज़ भर नहीं है, ये इश्क़ की मुकम्मल दास्तान है जो हमारी शायरी का भी सरमाया है। इसमें वो पाकीज़गी है जो क़ारी की रूह तक को मुअत्तर कर देती है। सानी अपने महबूब का अहतराम भी करता है और उसके यहां ख़ुद-सुपुर्दगी भी दीदा-ज़ेब है-
इस इन्तिज़ार में हूं शाख़ से उतारे कोई
तुम्हारे क़दमों में ले जा के डाल दे मुझको
शाख़ पर खिलना जहां ज़िन्दगी की अलामत है वहीं इस ज़िन्दगी की तकमील मेहबूब के क़दमों में जा पड़ने की ख़्वाहिश में ज़ाहिर हुई है। यह शेर इश्क़ की आख़िरी मंज़िल यानी मा'रफत की पहली सीढ़ी चढ़ते हुए भी नज़र आता है, जिससे इसकी आफ़ाक़ियत में मज़ीद इज़ाफा हुआ है।
किसी बादल ने बे-मौसम बरस कर
दयारे-दिल में सब्ज़ा कर दिया है
मिरे वुजूद में तेरा वुजूद - ऐसे है
दरख़्ते-ज़र्द में जैसे हरा चमकता है
ये दोनों अशआर ज़िन्दगी और मुहब्बत की चाशनी से भरपूर हैं और हरा या सब्ज़ रंग positivity ज़ाहिर कर रहा है। यही मामला अगले शेर का है जिसमें इश्क़ अपनी भरपूर रंगत और ख़ुशबू में ज़ाहिर हुआ है -
किसके ख़्याल ने मुझे ख़ुशबू किया कि आज
बादे-सबा मुझे भी गुलों में पिरो गई
महेन्द्र कुमार सानी के यहां इश्क़ के साथ-साथ हिज्र भी अपनी रिवायती शक्ल में नहीं है। बल्की जदीद रंग और ताज़ा शक्ल लिए हुए है -
तू नहीं है तो तेरी यादों की
धुंध फैली हुई है कमरे में
यहां यादों की ख़ुशबू या लश्कर को आसानी से दर्ज किया जा सकता था। मगर सानी ने ख़ुशबू या लश्कर पर धुंध को तरजीह है, जिससे हिज्र का दुख ज़्यादा गहरा और मानी-ख़ेज़ हो गया है। अगले शेर में शिकवा है और क्या मासूम और जज़्बाती शिकवा है कि देखते ही बनता है-
जहां भी जाता हूं मैं तुझको साथ रखता हूं
बराबरी का यह हक़ मुझको भी तो हासिल हो
लेकिन महेन्द्र कुमार सानी की शाइरी का मरकज़ 'इश्क़' नहीं है। ना-मौजूद में मौजूद की तलाश और मौजूद की मौजूदगी पर सवालिया निशान और इन्ही सवालात के मुमकिना जवाबात की तलाश सानी की शाइरी का मरकज़ है -
मौजूदगी में भी उसे पाया नहीं गया
यानी! उसे वजूद में लाया नहीं गया?
रस्ता कोई मौजूद से आगे नहीं जाता
मैं शमअ तिरे दूद से आगे नहीं जाता
जान जाओ अस्ल की मौजूदगी का भेद सारा
ध्यान से बहती हुई गंगा का ठहरा आब देखो
सानी अपनी शायरी में और किसी को नहीं बल्कि ख़ुद को तलाश रहा है। अपने वुजूद को, जो मौजूद है, वो क्यों मौजूद है, किस लिए मौजूद है और इसी वक़्त क्यों मौजूद है, क्या सबब है इस मौजूदगी का, यही सब सवालात उसकी शायरी की असास हैं-
एक नुक़्ते से उभरती है ये सारी काएनात
एक नुक़्ते पर सिमटता फैलता रहता हूं मैं
हज़ारों मंज़िलें सर कर चुका हूं मैं लेकिन
ये ख़ुद से ख़ुद का सफ़र तो बहुत अजब सा है
ये रौशनी में कोई और रौशनी कैसी
कि मुझ में कौन ये मेरे सिवा चमकता है
यही मुतालाशी आंखें, बेचैन दिल और जिज्ञासु ज़हन महेन्द्र कुमार सानी को अपने हम-असरों से न सिर्फ़ अलग करता है बल्कि इम्तियाज़ भी बख़्शता है। सानी की ज़बान साफ़ है। ज़बान में किसी तरह का प्रयोग सानी ने नहीं किया है जबकि आजकल ज़बान की बुनियाद पर जदीदियत की पैरोकारी आम हो गई है।
सानी की शायरी में कहीं-कहीं यह कमी देखने को मिलती है कि मिसरों में नसरियत ज़्यादा नज़र आती है और तग़ज़्ज़ुल और रवानी मजरूह होती नज़र आती है। यह कमी ख़ास तौर पर तवील बहरों में नज़र आती है। मुख़्तसर बहरों में यह ख़ामी नहीं है। ऐसा शायद इसलिए है कि सानी मुख़्तसर बहरों में अपने आप को ज़्यादा आसानी से एक्सप्रेस कर पाता हो। इसके अलावा यह भी मुमकिन है कि अल्फ़ाज़ की निशस्तो-बरख़ास्त के मुआमले में वो अपने पसंदीदा लफ़्ज़ को तब्दील कर रवानी को बेहतर करने के ख़्याल के ही ख़िलाफ़ हो या उसे अपने मिसरे या शेर की अव्वलीं शक्ल ही सबसे बेहतर लगती हो। बहरहाल अल्फ़ाज़ की कसावट, मिसरों में रवानी और शेर का क्राफ्ट मुख़्तसर बहरों निखर कर सामने आया है-
बीच सफ़र से लौट आया
मुझ में कितनी हिम्मत है
हमारे वास्ते होने की सूरत
वही है जो कहीं होता नहीं है
रौशनी वाले लोग मिलते थे
मेरे दिल में मगर अंधेरा था
परिंदा फिर सफ़र पर जा रहा है
शजर पर हिज्र का मौसम हुआ है
शाख़े-जां सूखती जाती है तमाम
दर्द का फूल खिला जाता है
इस शायर की एक और ख़ासियत है जो इसके हम-असरों में क़तई नज़र नहीं आती वो है मक़्ते के शेर कहना। सानी की अक्सर ग़ज़लों में मक़्ता है जो इस बात की दलील है कि वो ग़ज़ल की रिवायत का कितना एहतराम करता है, वरना तो नौजवानाने-सुख़न मक़्ता को मतरूक समझने की ग़लत फहमी के क़तई शिकार हैं। सानी के यहां जिस तरह मतले बराए मतले नहीं हैं उसी तरह मक़्ते बराए मक़्ते नहीं हैं-
बदल कर भेस फिर दरिया का सानी
समंदर अपने अंदर लौटता है
अब आसानी से मर सकता हूं सानी
किसी का ख़्वाब पूरा कर दिया है
ठहर के देख घड़ी भर के वास्ते सानी
मक़ाम क्या है जहां ये जहां ठहरता है
देखूं तिरी हिमायत करता है कौन सानी
तुझ बे-अमां पे इक दिन मैं वार कर के देखूं
हर मजमूए या किताब का कुछ हासिल होता है जिसके सबब वो किताब याद रखी जाती है। सानी के इस मजमूए में से मैंनें अपने लिए जो गुहर जमअ किए हैं, मुलाहिज़ा फ़रमाइए -
अभी खिला भी नहीं ठीक से वो ग़ुंचा-ए-ख़्वाब
हमें तू नींद की शाख़ों से क्यों उतारता है
जिस जुनूं को मैं निभाता हूं क़बा में रहकर
उसकी ताबीर कहां चाक-गिरेबानी में
हम कारे-ज़िन्दगी की तरह कारे-आशिक़ी
करना तो चाहते थे मगर कर नहीं सके
लीजिए ख़ुद से मुलाक़ात का अब लुत्फ़ कि आप
शुक्रिया कीजिए इस दश्त की वीरानी का
जो मिलना चाहती है आबजू समुन्दर से
उसे ये लाज़मी है पहले वो नदी में आए
मैं अपने इर्तिक़ा से कुछ मुतमइन नहीं हूं
सो अपनी वुसअतों को दीवार करके देखूं
मुझे सहरा से नद्दी के सफ़र तक
कई क़िस्तों में लाया जा रहा है
न आना हो मिरी रह से किसी का
सो अपने नक़्श उठाए जा रहा हूं
हाले-सुपुर्दगी में भी दिल को मलाल सा रहा
तेरे ख़्याल में भी कुछ अपना ख़्याल सा रहा
एक जंगल सा उगा है मेरे तन के चारों ओर
और अपने मन के अंदर ज़र्द सा रहता हूं मैं
रौशनी के लफ़्ज़ में तहलील हो जाने से क़ब्ल
इक ख़ला पड़ता है जिसमें घूमता रहता हूं मैं
मैं तन्हाई को अपना हमसफ़र क्या मान बैठा
मुझे लगता है मेरे साथ दुनिया चल रही है
ये ऐसे दिन तो नहीं हैं कि रौशनी हो बहुत
ब-फ़ैज़े-शौक़ मिरा रास्ता चमकता है
ये अशआर एक ऐसा जहाने-हैरत मुरत्तब करते हैं जहां तक रसाई क़तई आसान नहीं है और अगर रसाई हो भी जाए, हैरानियों की पर्तें शेर-फ़हमी के दरमियान हाइल हो जाती हैं। अक्सर शायर के बारे में कहा जाता है कि उसने अपनी कैफ़ियत की तरसील अपने क़ारी तक बड़ी फनकारी से कर दी है और वो अपने जज़्बे मुन्तक़िल करने में कामयाब हो गया है। सानी की शायरी ऐसा नहीं करती। यह शायरी मुतक़ाज़ी है कि वही कैफ़ियत क़ारी अपने ऊपर तारी करे जो कैफ़ियत शायर की है, तब यह शायरी उस पर खुलती है और उसकी गिरफ़्त में आती है।
एक बहुत ज़रूरी बात जो एक क़ारी की हैसियत से मैं यहां कहना अपना फ़र्ज़ समझता हूं वो यह कि शे'र के मेयार, शायरी की लफ़्ज़ियात और ख़ुद शायर की उर्दू से मोहब्बत का तक़ाज़ा यह है कि यह शायरी यानी यह किताब उर्दू में भी जल्द अज़ जल्द शाया होनी चाहिए, क्योंकि सानी की शायरी का हक़ है कि यह शायरी हिंदी न जानने वाले और उर्दू जानने वाले तमाम शायरी के शौक़ीन लोगों तक भी पहुंचे।
महेन्द्र कुमार सानी दादो-तहसीन से दूर मुता'ले में मशग़ूल एक फ़क़ीर मिज़ाज शायर है जिसकी शायरी के कमालात का गवाह आने वाला वक़्त होगा। यह शायरी बिला शुब्ह पढ़ने और शेयर करने वाली शायरी है।
मुबारकबाद महेन्द्र कुमार सानी को ऐसी ठहर कर पढ़ने वाली शायरी कहने के लिए और रेख़्ता पब्लिकेशन्स को ऐसी शायरी की इशाअत का कारे-ख़ैर करने के लिए।
- ज़िया ज़मीर