Rekhta Books Blog

Book Review: Ishq

Book Review: Ishq
पिछले कुछ दिनों में कई किताबें पढ़ीं। शाइरी से कुछ ज़ियादा ही लगाव है इसलिए शाइरी को अक्सर पढ़ता हूं। अलबत्ता फिक्शन भी ख़ूब भाता है। पिछले कुछ सालों में जिन नए शो'अरा ने अपनी फिक्र-ओ-अहसास को लफ़्ज़ों में बरतने की कामयाब कोशिशें की हैं उनमें मोई'द रशीदी साहब को मैं बहुत अहम समझता हूं। उनकी कई किताबें उर्दू में इस किताब से पहले शाए हो चुकी हैं जिनमें एक किताब " तखलीक, तख्ईल और इस्तिआरा " (تخلیق،تخئیل اور استعارہ) पर उन्हें "युवा साहित्य अकादमी पुरस्कार" से भी नवाज़ा जा चुका है। मगर हमें तो उनकी शाइरी से सरोकार है और उसी पर गुफ्तगू से गरज़...

 

इश्क़ एक ऐसी किताब है जिसमें आप को आग़ाज़ में ही एक नए तर्ज़ का पेशलफ़्ज़ मिलेगा जिसे पढ़ने के बाद आपको शाइरी, अदब और शाइर का अंदरून क्या कहता है, क्या कहना चाहता है, शाइर शेर क्यों कहता है, वो कौन सी वुजूहात होती हैं जो उसे शेर कहने की तरफ़ माइल करती हैं या आमादा करती हैं, उसका शेर कहने का मक़सद क्या है, शेर का उसकी ज़ात और वसी'अ कायनात से क्या ताल्लुक़ होता है, शाइर दाख़िली और ख़ारिजी हादसात से कब और कैसे मुतासिर हो जाता है और इस असर का शेर की तख्लीक़ में कितना हिस्सा होता है, अहद शाइर से क्या चाहता है और शाइर अहद से क्या चाहता है, शेर में अहद कैसे दर आता है, क्या शाइरी में तन्हाई, हिज्र, विसाल, दुःख का बयान ज़रूरी है और इसी तरह के कई सवालात को समझने के लिए इशारे मिलेंगे। और सबसे अहम बात ये है कि इस पेश लफ़्ज़ की ज़बान शेरी रंग-ओ-आहँग में डूबी हुई, कहीं कहीं अलामती और अक्सर आज़ाद नज़्म और नसरी नज़्म की शक्ल में आपके ज़ेहन-ओ-दिल के तारों से टकरा कर एक कर्बनाक मूसीकी पैदा कर देती है।

 

"ख़ुद को पाने की तमन्ना में गरक़ाब होने का तजरबा साया-ए-दीवार में जल कर ख़ाक हो जाना है। डूब जाना शिकस्त नहीं, साँस लेती हुई निगाहों की सरगुज़श्त है। टूटे हुए ख़्वाबों को जोड़ने और शेर कहने में फर्क नहीं।"

"हम सब अपने दुखों की दीवार हैं। अपने हिस्से का कमाया हुआ दुख लौ देता है तो सारे चराग़ मांद पड़ जाते हैं। मिट्टी इन्सान की हो या धरती की; तक्सीम नहीं की जा सकती। बांटने वाली हर लकीर फर्जी है।"

 

"धड़कन की ताल पर ज़िन्दगी रक्स करती है तो लगता है अमीर ख़ुसरो ने शाम के सुरमई रंग में राग यमन छेड़ दिया है और फ़न के देवता ने अपनी भैरवी अलाप कर सुर्ख़-रूई की दुआ दी है। मतानत इन्सान को वकार अता करती है। फ़नकार जब फ़न की अज़मत को पहुंचता है तो उसे तानसेन की आवाज़ सुनाई देती है।"

 

"साँस जब अपने ही जिस्म में बनवास काटने लगे तो ये दाग़ सरयू के मुक़द्दस पानी से भी नहीं धुल सकता।"

 

"पाज़ेब की झंकार सब सुनते हैं, उसके छालों से फूटने वाला इज्तिराब कोई नहीं सुनता। ज़िन्दगी वो उमराव जान है जिसकी गली में हर हादी रुस्वा हो जाता है।"

( पेशलफ़्ज़ ब-उन्वान 'सरीर-ए-ख़ामा' )

 

अब बात करते हैं शेरों की। मोईद रशीदी साहब के यहां चौंकाने वाला कोई शेर आपको नहीं मिलेगा। जिन्हें चौंकाने वाले शेर पसन्द होते हैं उनके लिए इस मज्मूआ-ए-ग़ज़ल में एक लफ़्ज़ भी नहीं। अलबत्ता इस किताब में आपको अन्दर की तरफ़ यानी ज़ात का सफ़र करने वाले शेर बहुत मिलेंगे। ऐसे अश'आर दरअस्ल गहरी ख़ामोशी और संजीदगी के इम्तिज़ाज से पैदा होते हैं।

 

अपने अन्दर की तरफ़ लौटते हैं
आओ अब घर की तरफ़ लौटते हैं

जाने कितना वक्त लगेगा ख़ुद से बाहर आने में
तन्हाई का शोर बहुत है शहरों के वीराने में

ख़ुद को पुकारता रहा कोई ख़बर नहीं मिली
किसकी ख़बर नहीं मिली किसको पुकारता रहा

अक्सर शेरों को पढ़ते हुए क़ारी को एक कर्बनाक हादसे से भी दो चार होना पड़ता है और उसे
अपने अन्दर ही कहीं कुछ टूटता हुआ सा महसूस होता है। कुछ शेरों में सियासी मंज़रनामा बड़े इन्हिमाक से सामने आता है और इशारों में ही हक़ीक़त बयान कर देता है।

ख़त्म होगी कब ये वहशत ऐ ख़ुदा कब फ़ैसला होगा
ख़ाक में खल्क-ए-ख़ुदा मिल जाएगी तब फ़ैसला होगा

इक इमारत मिरे बाहर अभी तोड़ी गई थी
एक मलबा मिरे अन्दर अभी बिखरा हुआ है
 

बहुत से शेरों में इश्क़, वस्ल, हिज्र, तन्हाई और दुःख का बयान है लेकिन इस बयान में ऐसी जामे'अ'ईय्यत पाई जाती है कि बयान की रंगारंगी और सादगी के तज़ाद और इज़हार के तर्ज़ पर रश्क भी आता है और हैरत भी होती है कि शाइर का दिल-ओ-दिमाग़ इल्मियत और हिस्सियत का ख़ाना-ए-नूर है। बेहतरीन शेरों की तादाद काफ़ी ज़ियादा है और कमदर्जा अश'आर से हद-दर्जा इज्तिनाब बरता गया है। जिन शेरों में इश्क़ का बयान है ऐसा लगता जैसे कि उस बयान में हक़ीक़त-पसन्द रवय्या तो है ही बल्कि इस्तिआरा मौजूद है। ज़बान में इतनी वुस्अत होती है की मज़्मून ज़ू-मअ'नी हो जाता है। इश्क़ की दाख़िली और ख़ारिजी दोनों कैफ़ियात पाई जाती हैं और बयान और ज़बान के ऐतबार से भी आ'ला किस्म की शाइरी का तसव्वुर पेश करती हैं। हिज्र के इज़हार में शाइर को महारत हासिल है। वो जब भी इस मज़्मून को शेर में बाँधता है उसे पैकर अता कर देता है और इस तरह से शेर में एक सूरत नमूदार होती है जो अपने मुमताज़ होने की दास्तान पेश करती है गोया शेर बोलता हुआ सा महसूस होता है।

 

तमाम अर्श की रौनक ज़मीं पे उतरेगी

मैं धूमधाम से तुझको कभी पुकारूंगा

 

किसी के लम्स की शिद्दत में जिस्म भीग गया

मगर क़रार नहीं बारिशों को आज की शाम

 

रात महके मिरी तन्हाईयां झूमें गाएं

दिल की धड़कन में तिरे ध्यान की ख़ुश्बू जागे

 

मुश्किल है लेकिन आसानी एक-सी लगती है

सबके हिस्से की तन्हाई एक-सी लगती है

 

जिस घड़ी पूछ रहा था वो मिरे दिल का इलाज

ऐ मिरी आँख तुझे ख़ून से भर जाना था

 

दिल को वहशत में सुकूँ है यूँ है

अब तो रग रग में जुनूँ है यूँ है

 

इक नए ख़्वाब की सरहद पे चली आई थकन

इक नया शहर नई रात है तन्हाई है

 

वस्ल की ख्वाहिश किसे नहीं होती है लेकिन इस शाइर को उससे खौफ़ आता है

 

तिरे विसाल की रानाइयों से डरता हूं

मुझे तो हिज्र के आदाब भी नहीं मालूम

 

दुःख तो ज़िन्दगी का ख़िराज है। ये हर नस्ल को साँसों के क़र्ज़ के साथ ही अता किया गया है। मोईद रशीदी की ग़ज़ल में भी ये क़र्ज़ जगह जगह चुकाया जा रहा है। कहीं हिज्रत का दुख तो कहीं फुरकत का दुख, पामाल होते हुए रिश्तों का दुःख, कहीं नातमाम आरज़ूओं की यादों के ना मिटने का दुःख...

 

रातों का ख़्वाबों से रिश्ता और ख़्वाबों का सूनापन

ख़ामोशी चलती रहती है दूर तलक वीराने में

 

ये हिजरतों के तकाज़े ये क़र्ज़ रिश्तों के

मैं ख़ुद को जोड़ते रहने में टूट जाता हूं

 

जब तिरी ख़ाक में हिजरत है तो इस शहर से जा

अब तिरा नान-ओ-नमक नाम-ओ-निशां उठता है

 

वो ज़ाफरान से लम्हे ये सांवले से चराग़

नशीली रात में ढलता हुआ सा कुछ तो है

 

मोईद रशीदी के यहाँ रात, ख़ाक, तन्हाई इस्तिआरों की शक्ल में सामने आते हैं।

 

दिल के तारीक जज़ीरों में जली तन्हाई

 

खौफ़ है धुंध भरी रात है तन्हाई है

 

आंधियाँ शोर मचाती हैं कि तारी हुई रात

 

सहराओं में ख़ाक उड़ी है आँखों में वीरानी रात

 

है तार-तार जुनून-ए-वफ़ा में रिश्ता-ए-ख़ाक

 

सर-रिश्ता-ए-मजाज़ में गूंधी गई है ख़ाक

 

इनके कलाम में हिम्मत और हौसले की बात अक्सर नज़र आती है। और जहां जहां ऐसे अश'आर होते हैं वहां एक नए मज़्मून और तरकीब के साथ उनका बयान होता है।

 

अपनी ज़ात से आगे जाना है जिसको

उसको बर्फ़ से पानी होना पड़ता है

 

जहाँ में कुछ नहीं मुश्किल अगर किया जाए

जो मसअला हो उसे दरगुज़र किया जाए

 

जो देखता हूं तो रक्स-ए-शरर है ये दुनिया

जो सोचता हूं तो कुछ रौशनी सी लगती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *