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Book Review: Subah Ba-Khair Zindagi

by Rekhtabooks on Apr 27, 2020
Book Review: Subah Ba-Khair Zindagi
अमीर इमाम फितरी शायर है...
अपने इस जुमले की ताईद में कुछ शे'र इस मजमुऐ से दर्ज करता हूं जो जवां साल शायर अमीर इमाम का दूसरा शे'री मजमूआ है जिसे रेख़्ता फाउंडेशन ने उर्दू और हिन्दी में एक साथ शाया किया है। मुलाहिज़ा फरमाएं :
हमने तो क़सम खाई थी बोलेंगे न तुमसे 
तुमने तो कोई ऐसी क़सम खाई नहीं थी

 

रख के फ़ूलों पे रुख़ को फरमाया
ऐसे   होती   है   मात   फ़ूलों  की
 
यूं लगा  जैसे  कि  फिर मैंने सदा दी तुमको 
यूं लगा जैसे कि फिर तुमने पलट कर देखा
 
कहा इक ज़ख़्म ने ये मुस्कुरा कर
मैं  अब  नासूर  होता  जा  रहा हूं
 
आते आते इश्क़ करने का हुनर आ जाएगा 
रफ़्ता रफ़्ता ज़िंदगी  आसान  होती जाएगी
 
तेरी ख़ुशबू है आज तक मुझ में
पर वो  ख़ुशबू  उदास  रहती  है
 
इन अशआर की बरजस्तगी, रवानी, चाशनी और नाॅन क्राफ्टनैस मेरे जुमले की ताईद के लिए काफी हैं। 
अस्ल में शायरी दुखे हुऐ दिल से उठने वाली एक हूक है जो रुह का दर्द समेटने का काम करती है। यह दर्द ज़िंदगी और शायरी दोनों की ही ज़ीनत है। अमीर इमाम अपने दुख और दर्द को अपने सीने से लगाए फिर रहा है।
अमीर इमाम ने क्लासिकी उर्दू शायरी का भरपूर मुता'ला किया है, ख़ास तौर पर मीर अनीस का। इस मुता'ला ने अमीर को शे'र कहने का शऊर सिखाया, वुस'अते ख़्याल अता की, सुख़न के रुमूज़ आशकार किए और साथ ही एक नुक़सान भी किया कि मुश्किल अल्फाज़, जिनमें अक्सर मतरुक हो चुके हैं, के तिलिस्म से बाहर नहीं निकलने दिया। 
ज़िंदगी, ज़बान और शायरी आसानियों की तरफ गामज़न हैं। मुश्किल अल्फाज़ और उनकी तराकीब से शे'र को भारी करने में तो मदद मिलती है। मगर जदीद और ताज़ा शायरी में इसका महल नहीं है। ख़ास तौर पर हिंदुस्तानी शायर को ज़बान की इस मुश्किल पसंदी से इजतिनाब बरतना चाहिए। हां अगर आप शायरी किसी दूसरे ख़ित्ते, मुल्क या वक़्त के लिए कर रहे हैं तो बात दीगर है। मुलाहिज़ा फरमाएं :
 
और फिर कुछ भी बजुज़ दीदा ए हैरां न रहा 
हुस्न काफिर  न रहा  इश्क़  मुसलमां  न रहा
 
जो था यहां वो  ख़्वाब के दरिया के पार था 
और हम सवार कश्ती ए क़ल्ब ए हज़ीं पे थे
 
क़र्या ए तिश्ना दहाई  किसकी तरफ देखेगा
और यह सैल ए रवां किसकी तरफ देखेगा 
 
इस ख़ामुशी ए क़ल्ब की तख़लीक़ ए कुन फकां 
ऐ  कायनात  ए काकुल ओ रुख़सार  अलविदा 
 
कुछ  और हो रही  हैं मुअत्तर ख़मोशियां 
ख़ुशबू ब दोश नर्मी ए गुफ़तार अलविदा 
 
ख़ुशबू     ए     राएगानी      आ'साब    मुज़महिल  से
हम भी ख़ज़िल ख़ज़िल से तुम भी ख़ज़िल ख़ज़िल से 
 
बीमार ए आगही  तिरी  वज्ह ए शिफ़ा  है  दिल 
मुश्किल परस्त अक़्ल तो मुश्किल कुशा है दिल
 
क्या है अजब कि वो भी तुम्हें देखने लगें
शाहान ए मह रुख़ां की तरफ देखते रहो
 
मिरा जहान मेरी चश्म ए ख़ूं फ़िशां होकर 
किसी के दस्त ए हिनाई पे  ख़त्म होता है
 
लेकिन इस मजमुऐ में एक अजीब तज़ाद भी है वो ये कि कई ग़ज़लें क़तई मुश्किल अल्फाज़ और सब टाईटल्स से भरी हुई हैं और कुछ ग़ज़लें इतनी आसान हिंदुस्तानी ज़बान में हैं कि हैरत होती है। 
 
अमीर इमाम की शायरी के इस मजमुऐ का मरकज़ी मौज़ू इश्क़ है। इश्क़ के  सभी रंग, इश्क़ का हासिल, इससे मिलने वाले अच्छे बुरे तजुर्बे अमीर इमाम की शायरी में नुमायां तौर पर दिखाई देते हैं। बिला शुबह इश्क़ के तजुर्बे के बिना ऐसी शायरी नामुमकिन है। इश्क़ में मिलने वाली महरुमियां और नाकामियां ऐसी शायरी का ख़मीर होती हैं। 
 
अमीर इमाम के यहाँ इश्क़ के वलवले मौजूद नहीं हैं जो किसी जवां साल शायर के यहां होने चाहियें। इसकी एक वज्ह शायर की संजीदा तबियत हो सकती है और इश्क़ के आखिरी तजुर्बे तक रसाई भी इसकी एक वज्ह होती है जो शायर की शख़्सियत में एक दीदा ज़ेब तवाज़ुन पैदा करती है, एक बा वक़ार ठहराव लाती है। इसी तवाज़ुन और ठहराव की अक्कासी अमीर इमाम ने अपनी शायरी में की है। यहां इश्क के जज़्बात में उठने वाला तलातुम नहीं है बल्कि उस तलातुम से गुज़रने के बाद की सहर अंगेज़ ख़ामोशी है। इस मरकज़ी मौज़ू पर कुछ अशआर मुलाहिज़ा कीजिए :
 
एक  बार  रोक  ले कि तेरे आस्तां पे हम 
वापस कभी न लौट के आने को आए हैं
 
लगी वो तुझसी तो आलम में मुन्फरिद ठहरी 
वगरना  आम सी  लगती  अगर जुदा लगती
 
कर ही क्या सकती है दुनिया और तुझ को देख कर 
देखती    जाएगी    और    हैरान    होती     जाएगी
 
तेरे  बदन की  ख़लाओं  में  आंख  खुलती है 
हवा के जिस्म से जब-जब लिपट के सोता हूं
 
तो हमसे तुम भी न बोलोगे, ख़ैर मत बोलो 
हमारी  चांद  सितारों  से  बात  हो  गई   है
 
इश्क़ करना ज़िम्मेदारी है नतीजा कुछ भी हो 
सिर्फ  पूरी  अपनी  ज़िम्मेदारियां  करते  रहो
 
मुझ से शिकवा  कि पलट कर नहीं देखा मैंने 
मुझको इक बार पुकारा भी तो जा सकता था 
 
बिखरे  बालों पे  मिरे  तन्ज़ से हंसने वाले 
मेरे बालों को संवारा भी तो जा सकता था
 
अब  सुलगती है  हथेली तो ख़्याल आता है 
वो बदन सिर्फ निहारा भी तो जा सकता था
 
मुसाफिरान ए मोहब्बत को मंज़िलें कब हैं 
सफर  ये  आब्ला  पाई  पे  ख़त्म  होता है
 
इस मजमुऐ में जो शायरी है उससे इस बात का अंदाज़ा भी होता है कि अमीर इमाम ख़ुदा से नाराज़ है और इसका एक बड़ा सबब आदम की ला मकानी है। जिस तरह आदम को ज़मीन पे भेजा गया वो उस पर बार गुज़रा है और इस वज्ह से वो दुखी भी है। अक्सर शायरों का एहतजाज आदमी के आदमी पर ज़ुल्म और इस्तहसाल के खिलाफ होता है, मगर अमीर इमाम ख़ुदा से सवाल करता है और अपने बंदों से की तरफ न देखने का शिकवा भी करता है। इसके अलावा वो ज़मीनी ख़ुदाओं के उरूज का ज़िम्मेदार भी ख़ुदा को ही ठहराता है। यह उसका ज़ाती एहतजाज और ज़ाति कर्ब है जो उसके शे'र में इज्तिमाइयत हासिल करता है। इस सिलसिले के चंद अशआर देखिये :
 
फरिश्ता होने से मुश्किल  है आदमी होना 
कि आदमी को ज़मीनों पे आना पड़ता है
 
जुर्म ए  आदम  तेरी  पादाश थी दुनिया सारी  
आख़िरश हर कोई हक़दार ए मुआफ़ी ठहरा
 
ज़मीं में जाना  है यूं हैं ज़मीन की ख़ातिर 
हम आसमां के लिए आसमां से निकलेंगे
 
अगर  क़याम  ख़ुदा का  है आसमानों पर 
तो फिर ज़मीन पे हम को ख़ुदा बना दीजे
 
हज़ार   शुक्र   ख़ुदा  ए फ़लक   नशीं   तेरा 
यह सर ज़मीं के ख़ुदाओं से ख़म नहीं होता
 
थी  आदमी   को   और  ज़रूरत  ज़मीन  की 
यह क्या कि आसमां को सिवा कर दिया गया
 
हम ज़मीं के हैं किसी अर्श ए मुअल्ला के नहीं 
ऐ  ख़ुदा   फैसला   हम  लोग  यहीं  चाहते  हैं
 
हवा  ए दैरो हरम  से  बचाना  पड़ता  है 
ख़ुदा को सीने के अंदर छुपाना पड़ता है
 
इस मजमुऐ में पिच्चानवें ग़ज़लों के बाद बारह नज़्में भी हैं जिन के बारे में अर्ज़ करना है कि सभी नज़्मों में रवानी है। कंटेंट भी अच्छा है। लहजा ग़ज़लों से ज़्यादा एहतजाजी है। मगर बात यह है कि अमीर इमाम ग़ज़ल का शायर है। 
 
किताब पूरी पढ़ लेने के बाद एक सवाल उठना लाज़िमी है कि इस किताब का हासिल क्या है? एक तो यह है कि यह एक ताज़ा फिक्र नौजवान शायर की शायरी है जिसमें उसने देखी हुई और अनदेखी दुनियाओं को अपने नज़रिए और तजुर्बे से बयान करने की भरपूर कोशिश की है। दूसरा यह कि ये शायरी वो शायरी है जो काग़ज़ पर आने की पूरी तरह हक़दार है। आजकल जब कि चौंका भर देना ही बड़े शेर की तारीफ़ हो गई है, जब शायरी का महवर सिर्फ हैरत हो गया है। तब ऐसे तेज़ी से गुज़रते हुए सफ्फाक वक़्त में ठहर कर, बैठकर और शेर को पढ़कर अगले शेर तक जाने से क़ब्ल पहले तजुर्बे और आने वाले तजुर्बे के दरमियान अपनी तमाम ज़हनी थकावट को दूर करने के लिए ऐसी शायरी की बहुत ज़रूरत है। 
 
अमीर इमाम फिक्र के नए आसमानों में की तलाश में है,  मगर उसके पांव बहुत मज़बूती के साथ रिवायत की सरसब्ज़ ओ शादाब ज़मीनों में पूरी तरह पैवस्त हैं। यही सबब है उसके यहां जहां डिक्शन में ताज़ा कारी है, अशआर में तहदारी है, वहीं क्लासिकल रचाव भी है जो उसे भरपूर शायर बनाने में मदद करता है। मैंने अभी ज़िक्र किया कि इस किताब का हासिल क्या है? तो जवाबन ये अश'आर दर्ज करता हूं :
 
तजुर्बा  मेरा  भी   कुछ  और  बरस  बढ़  जाता 
तुम को कुछ और बरस रुक के जवां होना था
 
एक और किताब ख़त्म की फिर उसको फाड़कर 
काग़ज़   का   इक   जहाज़   बनाया   ख़ुशी  हुई
 
मैं  बुलाता  हूं  उसे  रोज़  पुराना होकर 
मौत कहती है अभी और पुराना कर लूं
 
तुम्हारे साथ भी आई न ज़िंदगी हम तक 
तुम्हारे बाद भी हम तक क़ज़ा नहीं आई
 
हंसते हैं हम को देख के अहले क़फ़स मगर 
पर  फड़फड़ाए  जाएंगे,  क्या  पर समेट लें
 
वो रात ही इस जिस्म पे आती थी बराबर 
वो रात  भी वो ले गया पहनाने किसी को
 
धार  कैसी   है  ये  तलवार  से  कट  कर  देखा 
मरहबा चश्म! कि उस ख़्वाब को डट कर देखा
 
अपनी  वुस'अत  का  उसे इल्म हुआ यूं यारो 
उसमें इक शब मिरी बाहों में सिमट कर देखा
 
घर से बाहर आंख पे पट्टी बांध के निकलूंगा 
मेरी  दुश्मन  आंखों   की   बीनाई   है   मेरी
 
अब नहीं बैठा करेंगे बस में खिड़की की तरफ 
तेरी बस्ती  को  बिना  देखे  गुज़र  जाएंगे हम
 
ये जहां निकला तवक़्क़ो से ज़्यादा मुख़तसर 
अलविदा ऐ दोस्तो अब अपने घर जाएंगे हम
 
मुसाफिरों को सफ़र में अजब ख़्याल आया
ठहरते   हम   तो   हमारे   मकां  चले  जाते
 
एक पत्थर है जिसे  आईना करना है मुझे 
दूसरा पत्थर है इक आईना-ख़ाने के लिए
 
ख़ुशी में वैसे  भी  मख़सूस कुछ नहीं होता 
मलाल यह है मिरे ग़म भी आम से निकले
 
जो तुमको देख के तलवार फेंक दूं अपनी 
तो  मेरे  क़त्ल में  शामिल ज़रूर हो जाना
 
वो काम रह के शहर में करना पड़ा हमें 
मजनूं को जिसके वास्ते वीराना चाहिए
 
ताउम्र हमसे कुछ भी समेटा न जा सका 
हमसे हर  एक चीज़ बिखरती चली गई
 
रक्खी हुई है दोनों की बुनियाद रेत पर
सेहरा ए बेकरां को समंदर लिखेंगे हम
 
अल्लाह करे ज़ोर ए क़लम और ज़्यादा । 
 
- ज़िया ज़मीर
 
 
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