स्त्री-विमर्श के इस दौर में जब हर तरफ कहा जाने लगा है कि स्त्री-पुरुष बराबर है, तब भी लैंगिक असमानताएँ, भेदभाव और अपराध की घटनाएँ कम होती नहीं दिख रही हैं। अकेली स्त्री का घर में रहना या बाहर निकलना अनायास ही बहुत सी आँखों की ज़द में आ जाता है और स्त्रियों के अंग-अंग को छेदने-भेदने वाली नज़रें कब शिकारी बन जाती हैं पता नहीं चलता। सदियों से एक तरह का संकीर्ण सामाजिक और पारिवारिक ढांचा स्त्री पर उसकी मर्जी के बिना थोप दिया गया। ऐसे में आज की पढ़ी-लिखी लड़कियाँ इस ढांचे की नींव को चुनौती देती नज़र आती हैं। फलत: शादी को अनिवार्य समझना बहुत-सी लड़कियों ने छोड़ दिया है लेकिन उनके अभिभावकों की मानसिकता उस हद तक नहीं बदली है। सुशील चौबे अपने इस पहले संग्रह की कहानियों में इसी मानसिकता पर चोट करते नज़र आते हैं। 'सब साले मर्द हैं’ शीर्षक में जो तंज है उसका निर्वाह होता इस संग्रह की सभी ग्यारह में दिखता है। 'चारधाम यात्रा’, 'एफ-32’, 'हाउस हसबैंड’, 'रेंटेड ब्वॉयफ्रेंड’, 'वीर्यदान’ आदि कहानियाँ हिंदी साहित्य में एक विस्फोट की तरह हैं, एक नई धमक की तरह हैं। इन कहानियों की भाषा, खासकर स्त्री-पात्रों के संवाद में जो खुलापन है वह पुरानी पुरुष-मानसिकता के आग्रही पाठकों के ऊपर एटम बम की तरह है। यूँ भी कहा जा सकता है कि परिवार नामक संस्था और विवाह की ज़रूरत पर पुनर्विचार के लिए ये कहानियाँ सोचने को बाध्य करती हैं। इस संग्रह की बड़ी खासियत यह भी है कि सारी कहानियाँ ग्यारह अलग-अलग शीर्षक से भले हैं, इनमें एक महत्त्वपूर्ण अंत:सूत्र स्पष्ट दिखता है। दृश्य-मनोरंजन माध्य्म से जुड़े लेखक सुशील चौबे के इस कहानी-संग्रह का हिंदी पाठकों के बीच व्यापक स्वागत होगा, ऐसा विश्वास है।