अनुक्रम
1. भूमिका - 5
2. मैत्री की माँग- 11
3. अँधेरे में - 24
4. ब्रह्मराक्षस का शिष्य - 36
5.समझौता - 43
6. पक्षी और दीमक - 56
7. क्लॉड ईथरी - 70
8. जलना - 81
9.*काठ का सपना - 90
10. सतह से उठता आदमी - 95
11. विपात्र - 113
मैत्री की माँग
सुशीला ने मोरी पर पड़ा हुआ गीला नीला लुगड़ा * उठाया और कुएँ पर चल दी । ग्यारह
बजे की गरम धूप फैली हुई थी। कोठे की छत बुरी तरह से तप रही थी। उसके अन्दर
सास रोटियाँ सेंक रही थी, जिनकी गरम गन्ध इधर फैल रही थी ।
बाहर, ज़रा दूर चलकर, कुआँ लगता है। झंखड़ बिरवे, कँटीली झाड़ियाँ, जो ज़मीन
से एक फुट भी ऊपर उठ नहीं पाती हैं, तपती पीली ज़मीन के नंगे विस्तार को ढाँकने
के बजाय उग्र रूप से उघाड़ रही हैं। यह कुआँ और यह ज़मीन एक अहाते के अन्दर घिरे
हैं जिसके कँटीले तारों के उस पार, दूर सरकारी कचहरी की गेरुई इकमंज़िल इमारतें
लम्बी कतार में खड़ी हुई हैं।
सुशीला कुएँ के ओटले पर चढ़ी तो मालूम हुआ कि चबूतरे के पत्थर बेहद गरम
हो चुके हैं। उसने प्रतिदिन की भाँति रस्सी कुएँ में डाली, और दूसरे ही क्षण चौड़ी लकड़ी
की गिर्री की कठिन आवाज़ कुएँ की ठंडी साँवली दीवार से बालटी की टकराहट की
आवाज़ के साथ मिल गई। गहरे पानी में बालटी की ज़ोरदार ' धप्' और फिर छलकते-
गिरते पानी की गूँज।
आज कई सालों से सुशीला यह आवाज़ सुनती आ रही है। कान के अन्तराल में
वह ऐसी समा चुकी है कि छूटे नहीं छूटती। दुनिया में, जीवन में, इर्द-गिर्द, कई छोटे-
बड़े परिवर्तन होते गए। उसके पुराने पड़ोसियों में बहुत-सों ने यह क़स्बानुमा शहर छोड़
दिया, रियासत छोड़ दी, प्रान्त छोड़ दिया; और न मालूम कहाँ, इधर-उधर बिखर गए ।
नए-नए चेहरे और नई-नई बातें लेकर कई परिवर्तन आए और चले गए। सुशीला का
पहला बच्चा मरा, दूसरा अपने दो साल के जीवन में अनेक कष्ट देकर स्वयं अनेक
कष्टों के बीच से गुज़रता हुआ, स्वर्गधाम सिधार गया। परन्तु संक्रमणशील जीवन के
नए और सुदूरगत पुराने दृश्यों में अटूट सम्बन्ध और एकता बनाए रखनेवाली इस कुएँ
पर की चौड़ी लकड़ी की गिरीं, यह ऊँचा चबूतरा, और पानी निकालने, कपड़े धोने की
आवाज़ सदा से ऐसी ही चली आ रही है ।
ब्रह्मराक्षस का शिष्य
उस महाभव्य भवन की आठवीं मंज़िल के जीने से सातवीं मंज़िल के जीने की सूनी-
सूनी सीढ़ियों पर नीचे उतरते हुए, उस विद्यार्थी का चेहरा भीतर के किसी प्रकाश से
लाल हो रहा था ।
वह चमत्कार उसे प्रभावित नहीं कर रहा था, जो उसने हाल-हाल में देखा। तीन
कमरे पार करता हुआ वह एक विशाल वज्रबाहु हाथ उसकी आँखों के सामने फिर से
खिंच जाता। उस हाथ की पवित्रता ही उसके ख़याल में आती, किन्तु वह चमत्कार,
चमत्कार के रूप में उसे प्रभावित नहीं करता था। उस चमत्कार के पीछे ऐसा कुछ है,
जिसमें वह घुल रहा है, लगातार घुलता जा रहा है। वह 'कुछ' क्या एक महापंडित की
ज़िन्दगी का सत्य नहीं है? नहीं, वही है ! वही है !!
पाँचवीं मंज़िल से चौथी मंज़िल पर उतरते हुए, ब्रह्मचारी विद्यार्थी, उस प्राचीन
भव्य भवन की सूनी-सूनी सीढ़ियों पर यह श्लोक गाने लगता है :
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमैः
नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे गृहं प्रापय ।
इत्थं नन्दनिदेशतश्चलितयोः प्रत्यध्वकुंजद्रुमं,
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहःकेलयः ।
इस भवन से ठीक बारह वर्ष के बाद वह विद्यार्थी बाहर निकला है। उसके गुरु ने
जाते समय, राधामाधव की यमुना-कूल-क्रीड़ा में घर भूली हुई राधा को बुला रहे नन्द
के भाव प्रकट किए हैं। गुरु ने एक साथ शृंगार और वात्सल्य का बोध विद्यार्थी को
करवाया। विद्याध्ययन के बाद, अब उसे पिता के चरण छूना है। पिताजी ! पिताजी !!
माँ! माँ!! यह ध्वनि उसके हृदय से फूट निकली।
किन्तु ज्यों-ज्यों वह छन्द सूने भवन में गूँजता, घूमता गया त्यों-त्यों विद्यार्थी के
हृदय में अपने गुरु की तसवीर और भी तीव्रता से चमकने लगी।
भाग्यवान् है वह जिसे ऐसा गुरु मिले।
जब वह चिड़ियों के घोंसलों और बरों के छत्तों-भरे सूने ऊँचे सिंह द्वार के बाहर
निकला तो यकायक राह से गुज़रते हुए लोग 'भूत'-'भूत' कहकर भाग खड़े हुए।