क्रम
1. गंगो का जाया - 7
2. चीफ की दावत - 14
3. ख़ून का रिश्ता - 23
4. माता- विमाता - 36
5. यादें - 41
6. कुछ और सा - 49
7. अमृतसर आ गया है - 64
8. ओ हरामजादे - 77
9. साग-मीट - 97
10. वाङ्चू - 108
11. त्रास - 129
12. लीला नन्दलाल की - 138
13. चाचा मंगलसैन - 157
गंगो का जाया
गंगो की जब नौकरी छूटी तो बरसात का पहला छींटा पड़ रहा था । पिछले तीन
दिन से गहरे नीले बादलों के पुञ्ज आकाश में करवटें ले रहे थे, जिनकी छाया में
गरमी से अलसायी हुई पृथ्वी अपने पहले ठण्डे उच्छ्वास छोड़ रही थी, और
शहर-भर के बच्चे-बूढ़े बरसात की पहली बारिश का नंगे बदन स्वागत करने
के लिए उतावले हो रहे थे । यह दिन नौकरी से निकाले जाने का न था ।
मजदूरी की नौकरी थी बेशक, पर बनी रहती, तो इसकी स्थिरता में गंगो भी
बरसात के छींटे का शीतल स्पर्श ले लेती । पर हर शगुन के अपने चिन्ह होते
हैं। गंगो ने बादलों की पहली गर्जन में ही जैसे अपने भाग्य की आवाज़ सुन ली
थी ।
नौकरी छूटने में देर नहीं लगी । गंगो जिस इमारत पर काम करती थी
उसकी निचली मंजिल तैयार हो चुकी थी, अब दूसरी मंजिल पर काम चल रहा
था । नीचे मैदान में से गारे की टोकरियाँ उठा-उठाकर छत पर ले जाना गंगो का
काम था । मगर आज सुबह जब गंगो टोकरी उठाने के लिए जमीन की ओर
'झुकी, तो उसके हाथ ज़मीन तक न पहुँच पाये । ज़मीन पर, पाँव के पास पड़ी
हुई टोकरी को छूना एक गहरे कुएँ के पानी को छूने के समान होने लगा।
इतने में किसी ने गंगो को पुकारा, "मेरी मान जाओ गंगो, अब टोकरी तुमसे
उठेगी । तुम छत पर ईंट पकड़ने के लिए आ जाओ।"
छत पर, लाल ओढ़नी पहने और चार ईंटें उठाये, दूलो मजदूरन खड़ी उसे
बुला रही थी ।
गंगो ने न माना और फिर एक बार टोकरी उठाने का साहस किया, मगर
होंठ काटकर रह गयी । टोकरी तक उसका हाथ न पहुँच पाया ।
गंगो के बच्चा होनेवाला था, कुछ ही दिन बाकी रह गये थे । छत पर
बैठकर ईंट पकड़नेवाला काम आसान था । एक मज़दूर, नीचे मैदान में खड़ा
अफ़सर बन सकता हूँ ।'
माँ के चेहरे का रंग बदलने लगा, धीरे-धीरे उसका झुर्रियों भरा मुँह
खिलने लगा, आँखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी ।
"तो तेरी तरक्की होगी, बेटा ?"
"तरक्की यूँ ही हो जायेगी ? साहब को खुश रखूँगा, तो कुछ करेगा, वर्ना
उसकी ख़िदमत करनेवाले और थोड़े हैं ?"
"तो मैं बना दूँगी, बेटा, जैसे बन पड़ेगा, बना दूँगी । "
और माँ दिल ही दिल में फिर बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कामनाएँ करने
लगीं और मिस्टर शामनाथ, "अब सो जाओ, माँ” कहते हुए, तनिक लड़खड़ाते
हुए अपने कमरे की ओर घूम गये ।
खून का रिश्ता
खाट की पाटी पर बैठा चाचा मंगलसेन हाथ में चिलम थामे सपने देख रहा था ।.
उसने देखा कि वह समधियों के घर बैठा है और वीरजी की सगाई हो रही है ।
उसकी पगड़ी पर केसर के छींटे हैं और हाथ में दूध का गिलास है जिसे वह
घूँट-घूँट करके पी रहा है । दूध पीते हुए कभी बादाम की गिरी मुँह में जाती है,
कभी पिस्ते की । बाबूजी पास खड़े समधियों से उसका परिचय करा रहे हैं, यह
मेरा चचाजाद छोटा भाई है, मंगलसेन ! समधी मंगलसेन के चारों ओर घूम रहे
हैं। उनमें से एक झुककर बड़े आग्रह से पूछता है, और दूध लाऊँ, चाचाजी ?
थोड़ा-सा और ? अच्छा, ले आओ, आधा गिलास, मंगलसेन कहता है और
तर्जनी से गिलास के तल में से शक्कर निकाल-निकालकर चाटने लगता है
मंगलसेन ने जीभ का चटखारा लिया और सिर हिलाया । तम्बाकू की
कड़वाहट से भरे मुँह में भी मिठास आ गयी, मगर स्वप्न भंग हो गया ।
हल्की-सी झुरझुरी मंगलसेन के सारे बदन में दौड़ गयी और मन सगाई पर जाने
के लिए ललक उठा । यह स्वप्नों की बात नहीं थी, आज सचमुच भतीजे की
सगाई का दिन था । बस, थोड़ी देर बाद ही सगे-सम्बन्धी घर आने लगेंगे, बाजा
बजेगा, फिर आगे-आगे बाबूजी, पीछे-पीछे मंगलसेन और घर के अन्य
सम्बन्धी, सभी सड़क पर चलते हुए, समधियों के घर जायेंगे ।
मंगलसेन के लिए खाट पर बैठना असम्भव हो गया । बदन में खून तो
वह मुझे मेरे होटल तक छोड़ने आया । खाड़ी के किनारे ढलती शाम के
साथों में देर तक हम दोनों टहलते, बतियाते रहे । वह मुझे अपने नगर के बारे में
बताता रहा, अपने व्यवसाय के बारे में, इस नगर में अपनी उपलब्धियों के बारे
में । वह बड़ा समझदार और प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति निकला । आते-जाते
अनेक लोगों के साथ उसकी दुआ सलाम हुई । मुझे लगा, शहर में उसकी
इज्जत है । और मैं फिर उसी उधेड़बुन में खो गया कि इस आदमी का
वास्तविक रूप कौन-सा है ? जब वह यादों में खोया अपने देश के लिए
छटपटाता है, या एक लब्धप्रतिष्ठ और सफल इन्जीनियर जो कहाँ से आया और
कहाँ आकर बस गया और अपनी मेहनत से अनेक उपलब्धियाँ हासिल कीं ?,
विदा होते समय उसने मुझे फिर बाँहों में भींच लिया और देर तक भींचे
रहा, और मैंने महसूस किया कि भावना का ज्वार उसके अन्दर फिर से उठने
लगा है, और उसका शरीर फिर से पुलकने लगा है ।
"यह मत समझना कि मुझे कोई शिकायत है । जिन्दगी मुझ पर बड़ी
मेहरबान रही है । मुझे कोई शिकायत नहीं है, अगर शिकायत है तो अपने
आपसे फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह हँसकर बोला, "हाँ, एक बात
की चाह मन में अभी तक मरी नहीं है, इस बुढ़ापे में भी नहीं मरी है कि सड़क पर
चलते हुए कभी अचानक कहीं से आवाज़ आये 'ओ हरामजादे !' और मैं
लपककर उस आदमी को छाती से लगा लूँ," कहते हुए उसकी आवाज़ फिर से
लड़खड़ा गयी ।
साग-मीट
साग-मीट बनाना क्या मुश्किल काम है । आज शाम खाना यहीं खाकर जाओ,
मैं तुम्हारे सामने बनवाऊँगी, सीख भी लेना और खा भी लेना । रुकोगी न ?
इन्हें साग-मीट बहुत पसन्द है। जब कभी दोस्तों का खाना करते हैं, तो
साग-मीट जरूर बनवाते हैं । हाय, साग-मीट तो जग्गा बनाता था । वह होता,
तो मैं उससे साग-मीट बनवाकर तुम्हें खिलाती । उसके हाथ में बड़ा रस था ।
वह उसमें दही डालता, लहसुन डालता, जाने क्या-क्या डालता। बड़े शौक से
बनाता था । मेरे तो तीन-तीन डिब्बे घी के महीने में निकल जाते हैं। नौकरों के
लिए डालडा रखा हुआ है, पर कौन जाने, मुए हमें डालडा खिलाते हों और खुद