सिद्दीक़ आलम की कहानियों में एक विलक्षण बात नज़र आती है। इनकी ऊपरी सतह अक्सर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी जैसी ही हुआ करती है। यहाँ आपको वही समुद्र का किनारा, वही पुरानी टूटी-फूटी जर्जर हवेली, वही कुत्ते, वही सड़क किनारे अपनी उम्र बीत जाने के बाद भी खड़े रह गये लैम्प - पोस्ट आदि मिलेंगे। इसका वर्णन भी कुछ ऐसा होगा जिसे पढ़कर आप तुरन्त अचम्भित नहीं होंगे। आप यह महसूस करेंगे कि इस अफ़साने में फैला स्पेस और समय लगभग वही है जिसमें आप रहते आये हैं या आपके पुरखे रहते आये थे। लेकिन जैसे-जैसे आप अफ़साने के भीतर जाते जायेंगे आप पायेंगे कि वह रोज़मर्रा का सा लगता स्पेस और समय आपकी आँखों के सामने ही अजनबी होता जा रहा है। वह कुछ ऐसा रूप ले रहा है। जिसकी आपने उम्मीद नहीं की थी। इस रोज़मर्रा का सा लगता स्पेस और समय रहस्य से भरता जा रहा है और बहुत जल्द ही वह रोज़मर्रा का सा लगना बन्द कर दे रहा है। आप जिसे अपने चारों ओर फैले संसार का अक्स मान बैठे थे, वह तो दरअसल आपके संसार के टुकड़ों को लेकर बनाया गया बिलकुल ही दूसरा संसार है— एक रहस्य से भरा संसार! शायद इसीलिए इन कहानियों से बाहर आकर पाठक को अपने रोज़मर्रा के संसार में ऐसे-ऐसे रहस्य महसूस होना शुरू हो जाते हैं जिनके विषय में उसने कभी सोचा तक नहीं था। यह कहानी लिखने का एक अलग ही ढंग है जिसमें पूरी तरह सामान्य लगते परिवेश के भीतर चुपचाप कुछ ऐसा असामान्य घटता है कि सामान्य लगता परिवेश पाठक की आँखों के सामने ही अपनी 'सामान्यता की केंचुल ' उतार फेंककर विलक्षण नज़र आने लगता है मानो हमारे चारों ओर फैला संसार मायावी आवरणों से ढका हुआ था और कहानीकार ने एक-एक करके उसके तमाम आवरणों को हटा दिया हो। या कहानी के भीतर के रहस्य के कुछ बीज हमारे कपड़ों में चिपककर कहानी से बाहर आ गये हों और हमारे चारों ओर के संसार में इस तरह छिटक गये हों कि हमें अपना जाना-पहचाना संसार अब कुछ अजनबी सा दिखायी देना शुरू हो गया हो।
—उदयन वाजपेयी