पुनरुत्थान युग का द्रष्टा
डॉ० रघुवंश, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
भारतीय पुनरुत्थान का आधुनिक युग उन्नीसवीं शती के दूसरे चरण से शुरू हुआ। इस युग का सही चित्र प्रस्तुत करत
समय इस तथ्य को ठीक परिप्रेक्ष्य में सदा रखना होगा कि इस युग के मानस में पश्चिम का गहरा प्रभाव संघात रहा है
और पश्चिमी संस्कृति का सजग प्रयत्न रहा है कि यह मानस उससे अभिभूत रहे । पश्चिमी आधुनिक संस्कृति अन्य समस्त
संस्कृतियों से इस माने में भिन्न है कि वह जागरूक और आत्मालोचन करने में समर्थ है । उसके इतिहास-बोध ने
उसे अपने विस्तार, आरोप, संरक्षण का अधिक सामर्थ्य दिया है । उसकी वैज्ञानिक प्रगति ने अपनी शक्ति विस्तार की उसे
अपूर्व क्षमता प्रदान की है; अनेक मानवीय शास्त्रों के वैज्ञानिक विकास में उसने अपना प्रभाव क्षेत्र अनेक स्तरों और आयामों
में फैला लिया है। इसका परिणाम हुआ कि पश्चिमी संस्कृति ने पिछली पुरानी संस्कृति और परम्परा वाले एशिया के राष्ट्रों और
आदि (मैं आदिम कहना अनुचित मानता हूँ) संस्कृति वाले अफ्रीकी और अमरीकी समाजों और देशों को राजनीतिक, आर्थिक
तथा सांस्कृतिक प्रभावों में अपने उपनिवेश बने रहने के लिए विवश कर दिया है ।
पुनरुत्थान युग से शुरू होकर स्वाधीनता प्राप्त होने के बाद तक के भारतीय मानस पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है
यहाँ इस समस्या का विस्तृत विवेचन-विश्लेषण करने के बजाय केवल ऐसे कुछ तथ्यों की ओर ध्यान आकर्षित
किया जा सकता है। भारतीय बौद्धिक वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा यह मानता है कि भारत, वस्तुतः समस्त एशियाई देशों का
आधुनिकीकरण तभी संभव हो सका है, जब यूरोप के देशों ने वहाँ उपनिवेश बनाये और वहाँ के निवासियों को
पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का अवसर प्रदान किया । भारत की राष्ट्रीय इकाई की परिकल्पना अँग्रेज़ी राज्य की देन है ।
भारतीय संस्कृति, वस्तुत: समस्त एशियाई संस्कृतियाँ पिछड़ी हुई, मध्ययुगीन, प्रगति की सम्भावनाओं शून्य, अन्धविश्वास और
जड़ताओं से ग्रस्त हैं । इनके उद्धार का एकमात्र
सत्य की खोज और गुरु-दक्षिणा
अनवरत खोज और नये संकल्प
स्वामी दयानन्द सरस्वती ओखी मठ से चल कर जोशी मठ पहुँचे । वहाँ उन्हें कुछ महाराष्ट्रीय संन्यासी और उच्च
कोटि के योगी मिलते हैं । उनसे उन्होंने योग की कुछ नवीन क्रियाएँ सीखीं और उनके सत्संग से आध्यात्मिक
ज्ञान की वृद्धि की । फिर बदरी नारायण की ओर चल पड़ते हैं । वहाँ के महन्त रावल जी एक सुपटित व्यक्ति
हैं। उन्हें शास्त्रों का अच्छा ज्ञान है । प्रचलित हिन्दू धर्म में संशोधन की आवश्यकता को किसी सीमा तक वे भी
स्वीकार करते हैं, परन्तु स्वार्थवश इस कार्य में हाथ डालते डरते हैं । विचारों की समानता ने स्वामी जी और
रावल जी में सौहार्द य उत्पन्न कर दिया। स्वामी जी उनके पास कुछ दिन ठहर जाते हैं। बातों ही बातों में एक
दिन स्वामी जी को पता चलता है कि आसपास ही कहीं सिद्धों की गुफाएँ हैं। सिद्ध जन इस मन्दिर के दर्शनों के
लिए आते हैं, परन्तु उन्हें कोई पहचान नहीं पाता है । बस फिर क्या ? स्वामी जी को उनके अन्वेषण की धुन
सवार हो गयी । एक दिन प्रातः उठ कर सिद्धों की खोज में निकल पड़ते हैं। वे अलकनन्दा के किनारे-किनारे
चलते हुए ऊपर की ओर बढ़े और नदी के उद्गम स्थान तक पहुँच गये। सामने हिमाच्छादित पहाड़ की सीधी
दीवार खड़ी है। आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध है। चारों ओर पर्वतों की ऊँची-ऊँची चोटियाँ हिम की श्वेत चादरें
ओढ़े खड़ी हैं। सूर्य की किरणों से वे ऐसी चमक रही हैं, मानो उनमें मणि-माणिक्य और मुक्ता टॅके हों ।
अलकनन्दा एक जलप्रपात के रूप में बड़ी ऊँचाई से गिर कर घोर चीत्कार कर रही है, मानो उसे किसी
ने ऊपर से ढकेल दिया हो और वह चोट खा कर आर्तनाद कर रही हो ।
स्वामी जी थोड़ी देर के लिए कर्तव्यविमूढ़ हो गये। फिर मार्ग की खोज में उन्होंने नदी पार करने का निश्चय
किया । वे कुछ पीछे लौट कर नदी को पार करने के लिए पानी में घुसते हैं। उस स्थान पर नदी का पाट
लगभग आठ-दस हाथ है। जल कहीं बहुत गहरा और कही केवल दो हाथ है। नदी छोटे-छोटे तीक्ष्ण नुकीले
हिम-खण्डों से भरी है। वे स्वामी जी के पैरों में गड़गड़ कर उन्हें