क्रम
1. निवाला - 7
2. तन्हा-तन्हा - 17
3. तेरा हाथ - 30
4. लिहाफ़ - 44
5. बदन की ख़ुशबू - 53
6. कुँआरी - 78
7. चट्टान - 91
8. कारसाज़ - 103
9. अमरबेल - 113
10. नन्ही-सी जान - 124
11. सॉरी मम्मी - 134
12. ज़हर - 147
13. मुट्ठी मालिश - 154
14. नफ़रत - 163
15. जाल - 181
16. हीरो -189
17. हीरोइन - 200
निवाला
पूर्री चाल में एक द्वन्द्व मचा हुआ था। ऐसा मालूम हो रहा था, जैसे किसी खोली
में साँप निकल आया है या किसी के बाल-बच्चा हो रहा है। औरतें एक
खोली से दूसरी खोली में घुस रही थीं । शीशियाँ, बोतलें, डिब्बे लिये सब की सब
सरला बेन की खोली की तरफ़ तक रही थीं, जैसे सरला बेन का आख़िरी वक़्त हो.
और सारी पड़ोसिनें अपनी-सी करने पर तुली हों ।
एक तरह से तो सरला बेन का वाक़ई आख़िरी वक़्त था ।
उनकी ट्रेन बस छूटने ही वाली थी। पूरे तैंतीस बरस की होतीं, अगर उनके
दूरंदेश वालिदैन ने प्रभाकर के सर्टीफ़िकेट में उनकी उम्र के पूरे पाँच साल न हड़प
कर लिये होते ।
मगर काग़ज़ की उम्र ऐसा ज़बरदस्त सहारा नहीं होती ।
वह यू.पी. के किसी गुमनाम से गाँव की पैदावार थीं, मगर बम्बई में इतने साल
रहीं कि वतन को भूल-भाल के बम्बई की ही हो गई थीं । उन पर किसी सूबे का
ठप्पा नहीं था। कोई उन्हें गुजराती समझता, कोई मारवाड़ी और सिंधी । बस, जगत
सरला बेन हो गई थीं।
सरला बेन के. ई. एम. हॉस्पिटल में नर्स थीं । महँगाई अलाउंस मिला के दो सौ
चालीस रुपए मिलते थे । बारह रुपए कमरे का किराया देकर इतना बच जाता था
कि बड़े ठाठ से रहती थीं। हॉस्पिटल से मरहम-पट्टी का सामान, ए.पी.सी. की
गोलियाँ, मरक्यूरीक्रोम, अस्ली ग्लीसरीन और पेटेंट दवाओं के सैम्पल लाकर मुफ़्त
तक्सीम किया करती थीं। उनका कमरा आस-पास के इलाक़े के लिए अच्छा-भला
हॉस्पिटल था ।
सरला बेन बड़े काम की चीज़ थीं। ऊपर से शक्ल-सूरत के साथ-साथ चाल-
चलन ऐसा था कि कभी किसी की गृहस्थी पर शह' पड़ने का खदशा' नहीं हुआ।
यही वजह थी कि वह बेइन्तिहा हरदिल-अज़ीज़' थीं। जिधर निकल जातीं, उनके
जनाए हुए बच्चे कुलबुलाते, रोते- बिसूरते नज़र आते। लोग उनके क़दमों में आँखें
लिहाफ़
जब मैं जाड़ों में लिहाफ़ ओढ़ती हूँ तो पास की दीवार पर उसकी परछाई हाथी
की तरह झूमती हुई मालूम होती है और एकदम से मेरा दिमाग़ बीती हुई
दुनिया के पर्दों में दौड़ने-भागने लगता है। न जाने क्या कुछ याद आने लगता है।
मुआफ़ कीजिएगा, मैं आपको ख़ुद अपने लिहाफ़ का रूमान-अंगेज़' ज़िक्र
बताने नहीं जा रही हूँ, न लिहाफ़ से किसी क़िस्म का रुमान जोड़ा ही जा सकता है।
मेरे ख़याल में कम्बल कम आरामदेह सही, मगर उसकी परछाईं इतनी भयानक नहीं
होती, जितनी ... जब लिहाफ़ की परछाईं दीवार पर डगमगा रही हो ।
यह तब का ज़िक्र है, जब मैं छोटी-सी थी और दिन भर भाइयों और उनके दोस्तों
के साथ मार-कुटाई में गुज़ार दिया करती थी। कभी-कभी मुझे ख़याल आता है कि
मैं कम्बख़्त इतनी लड़ाका क्यों थी । उस उम्र में, जबकि मेरी और बहनें आशिक़
जमा कर रही थीं, मैं अपने-पराये हर लड़के और लड़की से, जूतम-पैज़ार' में
मशगूल थी।
यही वजह थी कि अम्माँ जब आगरा जाने लगीं, तो हफ़्ता भर के लिए मुझे
अपनी एक मुँहबोली बहन के पास छोड़ गईं। उनके यहाँ अम्माँ ख़ूब जानती थीं कि
चूहे का बच्चा भी नहीं, और मैं किसी से भी लड़-भिड़ न सकूँगी। सज़ा तो ख़ूब
मेरी। हाँ, तो अम्माँ मुझे बेगम जान के पास छोड़ गईं। वही बेगम जान, जिनका
लिहाफ़ अब तक मेरे ज़ेहन' में गर्म लोहे के दाग़ की तरह महफ़ूज़' है। यह वह
बेगम जान थीं, जिनके ग़रीब माँ-बाप ने नवाब साहब को इसलिए दामाद बना
लिया कि वह पक्की उम्र के थे, मगर थे निहायत नेक। कभी कोई रंडी बाज़ारी
औरत उनके यहाँ नज़र न आई। ख़ुद हाजी थे और बहुतों को हज करवा चुके थे।
मगर उन्हें एक निहायत अजीबो-गरीब शौक़ था । लोगों को कबूतर पालने का
जुनून होता है। कोई तोते पालता है। किसी को मुर्ग़बानी का शौक़ होता है। उनसे
साहब को नफ़रत थी। उनके यहाँ तो बस तालिबे-इल्म' रहते थे। नौजवान, गोरे-
गोरे, पतली कमरों के लड़के, जिनका ख़र्च वह ख़ुद बर्दाश्त करते थे ।