Bees Dinon Kee Jannat
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Author | Mohandas Naimishrai |
Language | Hindi |
Publisher | Vani Prakashan |
Pages | 216 |
ISBN | 978-9355184450 |
Book Type | Hardbound |
Item Weight | 0.4 kg |
Edition | 1st |
Bees Dinon Kee Jannat
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मोहनदास नैमिशराय एक ऐसी शख़्सियत हैं, जो बचपन से ही जीवन के यथार्थ से रू-ब-रू हो गये थे। जिन्होंने बचपन में तथागत बुद्ध को याद करते हुए 'बुद्ध वन्दना' में शामिल होना शुरू कर दिया था। उनके दर्शन से जुड़े। इसलिए कि डॉ. अम्बेडकर का मेरठ में हुआ भाषण उनकी स्मृति में था । जैसा उन्होंने स्वयं अपनी आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे' में लिखा है- 6 दिसम्बर, 1956 को जब बाबा साहेब का परिनिर्वाण हुआ, जब उनकी बस्ती में कोई चूल्हा नहीं जला था । उदास चूल्हे, उदास घर और उसी उदासी के परिवेश की गिरफ्त में दलित । नैमिशराय जी के लेखकीय खाते में दो कविता संग्रह के साथ पाँच कहानी संग्रह, पाँच उपन्यास से इतर दलित आन्दोलन / पत्रकारिता से इतर अन्य विषयों पर 50 पुस्तकें दर्ज हुई हैं। नैमिशराय जी ने फ़िल्म जगत में भी टैली फ़िल्म, डाक्यूमेंट्री, फ़ीचर फ़िल्म आदि लिख कर दस्तक दी थी। वह बात अलग है कि उन्हें सफलता नहीं मिली । रेडियो के लिए भी लिखा और मंडी हाउस में रंगमंच से भी जुड़े। अदालतनामा, हैलो कामरेड आदि नाटक भी लिखे। उन्होंने अंग्रेज़ी तथा मराठी से अनुवाद भी किये। वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (राष्ट्रपति निवास), शिमला में फ़ेलो भी रहे। साथ ही डॉ. अम्बेडकर प्रतिष्ठान, नयी दिल्ली में मुख्य सम्पादक के रूप में उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी निभायी। महात्मा गाँध अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में विजिटिंग प्रोफ़ेसर भी रहे । उनके पत्रकारिता से भी रिश्ते रहे। पहले बहुजन अधिकार पाक्षिक फिर बयान मासिक पत्रिका लगभग 10 बरस तक नियमित रुप से निकालते रहे। भारतीय समाज में आरम्भ से ही बदलाव की प्रक्रिया रही है। यह बात अलग है कि कभी धीमी गति से परिवर्तन हुआ तो कभी आँधी की तरह सामाजिक न्याय पर विमर्श हुआ। मध्यकाल में सन्त विचारधारा के साथ आधुनिक समय आते-आते हाशिए के समाज के द्वारा मुख्य धारा से जुड़ने के प्रयास होते रहे हैं। वरिष्ठ लेखक और पत्रकार मोहनदास नैमिशराय की कहानियों में सामाजिक न्याय के प्रयासों को रेखांकित किया गया है। सामाजिक विषमता के ख़िलाफ़ दलितों के भीतर जहाँ आक्रोश रहा वहाँ उनका दर्द भी बार-बार उभरा है। कथाकार नैमिशराय जी की कहानी 'दर्द' में वह सब उभरता है। शोधार्थियों की जानकारी के लिए बता दें कि उनकी 'दर्द' कहानी पर दशकों पहले इलाहाबाद दूरदर्शन ने डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म भी बनाई थी। यह कहानी पाठकों को झकझोरती है और उन्हें सोचने पर बाध्य करती है कि दलितों के साथ ऐसा व्यवहार क्यों होता रहा? उनकी अन्य कहानियों का अवलोकन करते हुए ऐसे ही सवाल उभरते हैं। जहाँ 'मजूरी' कहानी सर्वहारा वर्ग की एक महिला के द्वारा पूँजीपति से लड़ने की ताकत को दर्शाती है वहीं 'दर्द' एक दलित की ब्राह्मणवाद से संघर्ष करने की कहानी भी है। ताकि सनद रहे बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने पूँजीपति वर्ग और ब्राह्मणवाद दोनों के ख़िलाफ़ संघर्ष करने की बात की थी। 'खटबुनाई' कहानी रहन-सहन के पुराने मूल्यों से उलट नयी दस्तक देने की कशमकश को रेखांकित करती है। महानगर की घेरेबन्दी, ज़मीन के टुकड़ों पर उगती उभरती पॉश कॉलोनी । उनके भीतर से गायब होते संस्कार । कैसी प्यास थी मराठी दलित युवा इंगले के भीतर ? कैसे सपने थे उसके, क्या आदर्श थे, जिन्हें बाप से विरासत में लेकर पाला था उसने। सब कुछ ठीक ही चल रहा था, कोई इंगले से पूछता, भड़क उठता था वह, और उसके भीतर से आक्रोश फट पड़ता था । 'हेरिटेज' कहानी में इतिहास से राजनीति और राजनीति से प्रजातन्त्र की बिसात पर शतरंज की बाज़याँ रेखांकित हुई हैं। बड़ा संस्थान बड़ी बातें, वैभव, शान और शौकत । शिमला देवभूमि, जितनी सीढ़ियाँ चढ़ोगे उतना ही देवताओं के नज़दीक पहुँचोगे । देवताओं ने उतनी ऊँचाई पर अपने-अपने निवास बनाये थे। आज़ादी के बाद उन्हीं के प्रतिनिधियों ने नौकरशाही की मदद से देवभूमि में ऊँचे-से-ऊँचे आसन ग्रहण किये थे। वासुदेव तो दंग रह जाते हैं कि संस्थान में चपरासी के पद पर कार्यरत नत्थू के भीतर इतनी जीवटता कहाँ से है। 'खबरवा बाबू' कहानी में पत्रकारिता के बहाने दलित दस्तक है, जो सवर्णों के भीतर गहरे तक पैठ बनाये सामन्ती प्रवृत्ति को बर्दाश्त नहीं होती। परिणाम वही होता है यानी दुःखद अन्त । एक तरफ़ विचारों का सैलाब उभरता है तो दूसरी ओर ख़ून बहता है। यही लोकतन्त्र का विरोधाभास भी है। 'डिप्टी' कहानी ब्रिटिश साम्राज्य से हिन्दू साम्राज्य तक में एक अदद दलित आईएएस की यातनामयी यात्रा से सम्बन्धित है जबकि 'बीस दिनों की जन्नत' कहानी में एक दलित के द्वारा मुस्लिम धर्म स्वीकार करने के बाद यथार्थ उभरता है। नैमिशराय जी की कहानियों में इतिहास से लेकर राजनीतिक दस्तक भी होती है। हाँ यह सच है, कश्मीर की पृष्ठभूमि पर आतंकवादियों के मनोविज्ञान को समझाने का प्रयास कराती है।इस संग्रह की अन्य कहानियों में 'हँसुली', 'वजन', 'बरसात', 'फ़ेसबुकिया', 'देवता', 'घोषणा-पत्र' आदि हैं। इनमें यथार्थ के अलग-अलग चित्र उभरते हैं। जिनमें धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पक्षों को प्रस्तुत किया गया है। पात्रों के चरित्र-चित्रण में जीवन्तता उभरती है। 'अपना गाँव', 'बस्ती' और 'प्यास' आदि कहानियों में सामाजिक न्याय के दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके भीतर कर्त्तव्यबोध है जिससे वे प्रेरक भी बनते हैं।
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