क्रम
1. आप भी अच्छे वक्ता बन सकते हैं - 11
2. पहले आत्मविश्वास जगाइए -23
3. अच्छे वक्ता और उनके भाषण -40
4. भाषण में क्या कहना जरूरी है और क्या कहना नहीं - 51
5. स्मरण करने का सरल तरीका - 58
6. देखने की भी विधा है भाषण - 64
7. आन्तरिक शक्तियों का प्रयोग - 69
8. कुछ सामान्य निर्देश - 73
9. मंच पर केन्द्र बनने के लिए आत्मप्रदर्शन - 78
10. भाषा से सम्बद्ध साधन - 84
अध्याय : एक
आप भी अच्छे वक्ता बन सकते हैं
मनोविज्ञान और तर्क की कसौटी पर कसकर परखा गया है कि उत्तम वक्ता बनना
हर किसी के लिए पूरी तरह सम्भव है । जो व्यक्ति अपनी भाषा में अपने विचार
व्यक्त कर सकता है, वह एक व्यक्ति हो या समूह, हर स्थिति में अपने विचार
प्रगट करने की क्षमता से युक्त होता ही है। इसलिए यह कहना गलत नहीं है कि
हर कोई उत्तम वक्ता बनने की क्षमता रखता है।
प्रायः यह देखा जाता है कि भाषण देने की स्थिति में माइक के सामने खड़े
होते ही अच्छों-अच्छों को घबराहट होने लगती है। पसीना छूटने लगता है, पैर
काँपने लगते हैं, दिल की धड़कन बढ़ जाती है, मुँह सूखने लगता है और जबान
हिलने से मना कर देती है ।
आखिर क्या बात है कि जो बातें, कुर्सी पर बैठकर गप्प हाँकते समय, आप
अपने मित्रों से अनौपचारिक रूप में कह सकते हैं, वही खड़े रहकर, माइक के
सामने, एक सभा में कहने में आपको संकोच होता है। फर्क इतना है कि एक
जगह आप बैठकर बोल रहे थे, अब खड़े होकर औपचारिक रूप से कहना है ।
एक जगह आपको सुननेवाले एक या उससे अधिक आत्मीय थे, लेकिन अब एक
बड़े समूह को सम्बोधित करना है। फर्क बहुत बड़ा नहीं है ।
बैठने की बजाय खड़ा होना और एक की बजाय अनेक श्रोताओं से बात
करना, इतना कठिन तो नहीं कि हम उससे इतना घबराएँ, इतना डरें कि
जीवन-भर केवल श्रोता बने रहें । सामान्य व्यक्ति तो वक्ता बनकर जनमान्यता
को प्राप्त हों, ऊँचे स्थान ग्रहण करें और हम श्रोता बने ऐसे सामान्य व्यक्तियों
से आम श्रोता बनकर निर्देश ग्रहण करें ।
हमें अपने संकोच और भीरुता के प्रति सोचना होगा। दरअसल इसके
कारणों का विवेचन करने पर ही उनका निवारण सम्भव होगा। आइए सोचें,
अध्याय : तीन
अच्छे वक्ता और उनके भाषण
अच्छा वक्ता श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए जो कुछ कहता है वह चिरस्मरणीय
होता है। ऐसे भाषण बिरले ही होते हैं । हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि अच्छे
भाषणों की तरह ही बुरे भाषण भी स्मरणीय होते हैं ।
बुरे भाषण वे हैं, जो बिना तैयारी के बिना आत्मविश्वास के, भाषण के प्रति
गम्भीर दृष्टिकोण रखे बिना ही दिए जाते हैं ।
भाषण एक कला ही नहीं, विज्ञान है। इसमें सफलता के लिए पूर्वानुमान और
दूरदृष्टि की जरूरत होती है । परन्तु कुछ वक्ता उसे गम्भीरता से नहीं लेते, मंच
पर विदूषक बन जाते हैं। प्रथम दो अध्यायों में हमने वक्ता के लिए आत्मविश्वास
की साधना के रहस्य प्रगट किए हैं।
आत्मविश्वासहीन वक्ता अधैर्य घबराहट और तनाव की वजह से जो कह
बैठते हैं, उससे नए वक्ता को अवश्य बचना चाहिए। एक घटना हमारे छात्र जीवन
की भूले नहीं भूलती।
मेरा एक मित्र था पांडेय । वह मेरा सहाध्यायी था । कर्मठ और अच्छा
संगठनकर्ता। चुनाव जीतकर साहित्य समिति का सचिव बन गया। मैं अध्यक्ष
निर्वाचित हुआ। हमारी साहित्य समिति का प्रतिवर्ष निर्वाचन होता था और
कोई-न-कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति उद्घाटन के लिए आमन्त्रित किया जाता था। उस
वर्ष हमने विख्यात लेखक रामवृक्ष बेनीपुरीजी को आमन्त्रित किया था ।
पांडेय पिछले अनेक कार्यक्रम आयोजित कर चुका था। समारोह के दिन तक
उसे याद नहीं रहा कि सचिव की हैसियत से उसे भी कुछ-न-कुछ कहना ही
पड़ेगा। सम्भवतः कार्यक्रम का संचालन भी करना पड़े। पांडेय ने संचालन एक
अन्य छात्र को सौंप दिया और कार्यक्रम से आधा घंटा पूर्व मुझसे बोला, “यार
दिन-भर की भाग-दौड़ में थक गया हूँ। मुझे भी कुछ कहना पड़ेगा, इसलिए दो
अध्याय : सात
आन्तरिक शक्तियों का प्रयोग
पिछले अध्याय में हम आन्तरिक शक्तियों का प्रयोग आत्मविश्वास वृद्धि के लिए
कैसे हो सकता है, यह बता चुके हैं। इस अध्याय में इस पर विस्तारपूर्वक चर्चा
होगी। अलग-अलग स्थितियों में आन्तरिक शक्ति का उपयोग करने के लिए
वक्ता को किस प्रकार आत्मबल का प्रयोग करना होगा, आगे यह सोदाहरण स्पष्ट
किया जाएगा।
आत्मबल ही आत्मविश्वास या श्रद्धा है। केवल भाषण देने के लिए नहीं,
समस्त जीवन को सफलतापूर्वक जीने के लिए भी आन्तरिक शक्ति का प्रयोग
करना चाहिए। आन्तरिक शक्ति का प्रयोग भाषण के लिए करके यही सीखा जा
सकता है कि इसका चामत्कारिक प्रयोग जीवन में हर समस्या से जूझने के लिए
कैसे करें ? एक बात स्मरण रखें, अच्छे वक्ता बनकर हमारे व्यक्तित्व में भी सुधार
आ जाता है। व्यक्तित्व में सुधार का तात्पर्य है - व्यवहार, विचार और कर्म में
सुधार। यही जीवन की सफलता का कारण भी बनता है ।
रामकृष्ण परमहंस के जीवन का एक प्रसंग उल्लेखनीय है । रामकृष्ण परमहंस
की ख्याति एक सिद्ध के रूप हुई तो एक युवक नरेन्द्र ‘परमहंस’ की पराशक्तियों
की परीक्षा के लिए बेचैन हो उठा। उसे लगा, विज्ञान के युग में यह व्यक्ति लोगों
को भ्रमित कर अन्धविश्वास फैला रहा है। और आडम्बर रचकर अपना उल्लू
सीधा कर रहा है।
नरेन्द्र अत्यन्त प्रतिभाशाली छात्र था। उसके मन में 'श्रद्धा' न थी । मन में
खालीपन था। ईश्वर के प्रति विश्वास न था । वह अपनी इसी अश्रद्धा को लेकर
रामकृष्ण परमहंस के पास गया। उसे विश्वास था कि उसके प्रश्न सुनकर उनका
सारा आडम्बर खुल जाएगा।
नरेन्द्र ऐसे ही विरोधी विचार लेकर उनके पास पहुँचा । रामकृष्ण परमहंस ने