Description
‘आलोचना को लोकतान्त्रिक समाज में साहित्य का सतत किन्तु रचनात्मक प्रतिपक्ष' मानने वाले हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक गोपेश्वर सिंह की यह पुस्तक हिन्दी आलोचना में आए नये बदलाव का प्रमाण है। हिन्दी आलोचना में कला और समाज को अलग-अलग देखने की शिविरबद्ध परिपाटियों से यह पुस्तक मुक्त करती है और आलोचना-दृष्टि में कला एवं समाज का सहमेल खोजती है। गोपेश्वर सिंह रचना और आलोचना के किसी एक परिसर के हिमायती नहीं हैं। उनका कहना है : ‘‘रचना जीवन के वैविध्य, विस्तार और गहराई की अमूर्तता को मूर्त रूप देने की सृजनात्मक मानवीय कोशिश है। दुनिया के साहित्य में इसी कारण वैविध्य एवं विस्तार है। हर बड़ा रचनाकार पिछले रचनाकार के रचना-परिसर का विस्तार करता है। इसी के साथ वह नया परिसर भी उद्घाटित करने की कोशिश करता है। जब न तो जीवन का कोई एक रूप परिभाषित किया जा सका है और न रचना का, तब आलोचना को ही किसी परिभाषा में बाँधने की कोशिश क्यों की जाये, उसे किसी एक परिभाषित परिसर तक सीमित क्यों किया जाये। रचना की तरह उसके भी क्या कई-कई परिसर नहीं होने चाहिए। जब ‘दुनिया रोज बनती है तब रचना भी रोज बनती है। और आलोचना भी। रोज-रोज बनने का यह जो सिलसिला है, वह किसी भी जड़ता और यथास्थिति के विरुद्ध सृजनात्मक पहल से ही सम्भव होता है। गोपेश्वर सिंह की प्रस्तुत आलोचना पुस्तक इस तरह की सृजनात्मक पहल का सुन्दर उदाहरण है। निःसन्देह ‘आलोचना के परिसर' नामक पुस्तक शिविरबद्ध आलोचना की छाया से मुक्त सामाजिकता और साहित्यिकता की नयी दिशाओं का सन्धान करने की कोशिश का परिणाम है।