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Anuvad Mimansa
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साधारणत: और इधर ज़्यादातर लोग किसी पाठ को एक भाषा से दूसरी भाषा में उल्था करने को ही अनुवाद मान लेते हैं। हिन्दी में यह प्रवृत्ति और भी ज़्यादा देखने में आती है। बहुत कम ऐसे अनुवादक हैं जो अनुवाद को अगर रचना-कर्म नहीं तो कम से कम एक कौशल का भी दर्जा देते हों।
वरिष्ठ हिन्दी आलोचक निर्मला जैन की यह पुस्तक अनुवाद के रचनात्मक, कलात्मक और प्रविधिगत पहलुओं को विश्लेषित करते हुए उसकी महत्ता और गम्भीरता को बताती है। अनुवाद दरअसल क्या है, गद्य और पद्य के अनुवाद में क्या फ़र्क़ है; मानविकी और साहित्यिक विषयों का अनुवाद अन्य विषयों के सूचनापरक अनुवाद से किस तरह अलग होता है, उसमें अनुवादक को क्या सावधानी बरतनी होती है; एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में पाठ के भावान्तरण में क्या दिक्‍़क़तें आती हैं, लोकभाषा और बोलियों के किसी मानक भाषा में अनुवाद की चुनौतियाँ क्या हैं, और अनुवाद किस तरह सिर्फ़ पाठ के भाषान्तरण का नहीं, बल्कि भाषा की समृद्धि का भी साधन हो जाता है—इन सब बिन्दुओं पर विचार करते हुए यह पुस्तक अनुवाद के इच्छुक अध्येताओं के लिए एक विस्तृत समझ प्रदान करती है।
निर्मला जी की समर्थ भाषा और व्यापक अध्ययन से यह विवेचन और भी बोधक और ग्राह्य हो जाता है। उदाहरणों और उद्धरणों के माध्यम से उन्होंने अपने मन्तव्य को स्पष्ट किया है, जिससे यह पुस्तक अनुवाद का कौशल विकसित करने में सहायक निर्देशिका के साथ-साथ अनुवाद-कर्म को लेकर एक विमर्श के स्तर पर पहुँच जाती है। Sadharnat: aur idhar jyadatar log kisi path ko ek bhasha se dusri bhasha mein ultha karne ko hi anuvad maan lete hain. Hindi mein ye prvritti aur bhi jyada dekhne mein aati hai. Bahut kam aise anuvadak hain jo anuvad ko agar rachna-karm nahin to kam se kam ek kaushal ka bhi darja dete hon. Varishth hindi aalochak nirmla jain ki ye pustak anuvad ke rachnatmak, kalatmak aur pravidhigat pahaluon ko vishleshit karte hue uski mahatta aur gambhirta ko batati hai. Anuvad darasal kya hai, gadya aur padya ke anuvad mein kya farq hai; manaviki aur sahityik vishyon ka anuvad anya vishyon ke suchnaprak anuvad se kis tarah alag hota hai, usmen anuvadak ko kya savdhani baratni hoti hai; ek sanskriti se dusri sanskriti mein path ke bhavantran mein kya dik‍qaten aati hain, lokbhasha aur boliyon ke kisi manak bhasha mein anuvad ki chunautiyan kya hain, aur anuvad kis tarah sirf path ke bhashantran ka nahin, balki bhasha ki samriddhi ka bhi sadhan ho jata hai—in sab binduon par vichar karte hue ye pustak anuvad ke ichchhuk adhyetaon ke liye ek vistrit samajh prdan karti hai.
Nirmla ji ki samarth bhasha aur vyapak adhyyan se ye vivechan aur bhi bodhak aur grahya ho jata hai. Udaharnon aur uddharnon ke madhyam se unhonne apne mantavya ko spasht kiya hai, jisse ye pustak anuvad ka kaushal viksit karne mein sahayak nirdeshika ke sath-sath anuvad-karm ko lekar ek vimarsh ke star par pahunch jati hai.

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 अनुक्रम


1. प्रस्तावना - 9  
2. अनुवाद : क्या, क्यों और कैसे ? - 13  
3. विज्ञान और तकनीकी - 34  
4. अनुवाद और सांस्कृतिक आदान-प्रदान - 47  
5. अनुवाद और मानविकी (दर्शन, ललित कलाएँ आदि) - 57  
6. सृजनात्मक साहित्य के अनुवाद की समस्याएँ - 68  

 

अनुवाद : क्या, क्यों और कैसे 

अनुवाद एक प्रकार का सहयोगी कर्म होता है- दो रचनाकारों के बीच । पहला रचनाकार वह जो मूल पाठ की रचना करता है और दूसरा वह जो इस मूल पाठ में निहित लेखकीय अर्थ को अनूदित पाठ में स्थानान्तरित करता है। इस प्रक्रिया में रचनाकार, कृति और पाठक का स्वाभाविक त्रिकोण, दोहरा हो जाता है अर्थात् हम एक ऐसे रचनाकार (अनुवादक) की रचना (अनुवाद) के पाठक होते हैं, जो स्वयं किसी दूसरे (मूल लेखक) रचनाकार की रचना (मूल पाठ) का पाठक होता है। अंग्रेज़ी भाषा में 'Translation' का व्युत्पत्यर्थ होता है : 'Crossing the border' (सीमा पार करना), उसी तरह जैसे 'transmission', 'transportation', अर्थात् स्थानान्तरण ।

अनुवाद का सामान्य अर्थ हुआ - एक भाषा के पाठ में निबद्ध 'अर्थ' को, (जो कोई विचार, अनुभूति या तथ्यात्मक सूचना में से कुछ भी हो सकता है) एक भाषा की सीमा पारकर दूसरी भाषा में स्थानान्तरित करना। मुख्य बात है 'अर्थ', 'कथ्य' या 'आशय' । इसलिए किसी अनूदित रचना की इकाई शब्द, वाक्य, पदबन्ध न होकर समूचा पाठ होता है क्योंकि 'अर्थ' किसी एक शब्द, एक वाक्य या विशेष पदबन्ध में सीमित न रहकर 'पाठ' की पूरी बनावट के बीच से समग्रता में उभरता है। शब्द के लिए शब्द, वाक्य के लिए वाक्य और पदबन्ध के लिए पदबन्ध अनुवाद की भाषा में मूल पाठ के अर्थ को स्थानान्तरित करने के लिए अनुवाद के साधन या माध्यम भर होते हैं, लक्ष्य नहीं । वह 'कथ्य' या 'अर्थ' को उसकी समग्रता में सिद्ध करने के लिए ज़रूरत पड़ने

 

विज्ञान और तकनीकी

सामान्य प्रश्न और पारिभाषिक शब्दावली

विज्ञान और तकनीकी से सम्बद्ध विषयों का अनुवाद करते समय पहला प्रश्न उन विषयों की जानकारी के बारे में उठता है। अर्थात् चिकित्सा, वनस्पति विज्ञान, भौतिकी, रासायनिकी, इंजीनियरी जैसे विषयों का अनुवाद करने के लिए क्या अनुवादक का डॉक्टर, इंजीनियर, रासायनिक, वनस्पतिशास्त्री होना ज़रूरी है  अगर ऐसा ज़रूरी हो तो हर विषय का अनुवादक अलग होगा। इसके अलावा वह विषय-विशेषज्ञ आखिर अनुवाद क्यों करना चाहेगा और फिर उसकी भाषिक-क्षमता की स्थिति क्या होगी ? अनुवादक के लिए किसी विज्ञान या तकनीकी का विशेषज्ञ होना ज़रूरी नहीं होता। ज़रूरी यह होता है कि वह उस ‘पाठ’ को समझता हो और वह उस सामग्री में प्रयुक्त शब्दावली का जानकार (भले ही अस्थायी रूप से) हो ।

विज्ञान में भाषा अवधारणा - केन्द्रित होती है और तकनीकी में वस्तु- केन्द्रित, उदाहरण : उत्पादन विषयक इंजीनियरी की सामग्री का अनुवाद करते समय Lathe, clutch, clamp, bolt, mill, shaft, crank आदि मूल शब्दों, उनके अनूदित रूपों, उनके द्वारा वाच्य वस्तुओं की बनावट, उनकी कार्य-प्रणाली और परिणामों के स्पष्ट बोध के साथ उनके कार्य-बोधक शब्दों (क्रियाओं) को जानना ज़रूरी होगा। दूसरे प्रकार के अनुवादों से तकनीकी अनुवाद की पहचान मुख्य रूप से उसकी पारिभाषिक शब्दावली के कारण होती है, गोकि किसी पाठ में इस

 

अनुवाद और सांस्कृतिक आदान-प्रदान
भाषा और संस्कृति

किसी विशेष भाषा-भाषी समुदाय, समाज या वर्ग के अनुभवों, विचारों और संवेदनाओं को अन्य भाषायी समुदायों तक पहुँचाने का शायद सबसे अधिक प्रभावी माध्यम/साधन अनुवाद होता है। अभिव्यक्ति के अन्य रूपों की तरह भाषिक अभिव्यक्ति भी वक्ता या लेखक के मन्तव्य को ही नहीं बल्कि उसकी सांस्कृतिक बनावट को भी व्यक्त करती है । अर्थात् सम्पूर्ण वाङ्मय (मौखिक और लिखित) मानव-संस्कृति की भाषिक अभिव्यक्ति है । सतही रूप से देखने पर भ्रम हो सकता है कि वाङ् मय के दो प्रमुख भेदों शास्त्र और साहित्य में से शास्त्र किसी समाज की वैचारिक बनावट और साहित्य उसकी संवेदनात्मक बनावट को व्यक्त करता है। अतः सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की गुंजाइश शास्त्र की अपेक्षा साहित्य में अधिक होती है। परन्तु किसी समाज के वैचारिक इतिहास के पीछे उसके दीर्घकालीन अनुभव, भौतिक संघर्ष और क्रमशः विकसित जीवन-प्रणाली की प्रेरणा और योगदान होता है। भारतीय और पश्चिमी परम्पराओं की दार्शनिक अवधारणाओं के 'बीज' शब्दों पर ध्यान दें तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि ये शब्द ' अर्थों' के नहीं अवधारणाओं यानी अर्थ-क्षेत्रों के वाचक हो गए हैं। ऐसे अर्थ-क्षेत्र जो दीर्घकालीन चिन्तन- मनन की प्रक्रिया में इनके साथ अभिन्न रूप से जुड़ गए हैं और इन्हें वही

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