Baatein Ghazal Ki

Farhat Ehsas, Arsh Sultanpuri

Rs. 299

About The Book:-  The world of Urdu Ghazal is an enchanting and magnificent one. Many poetry enthusiasts are attracted to this genre of poetry, but can’t find a source to help them understand Ghazal's fundamental and foundational concepts. This book is specially intended for such readers. The book discusses the... Read More

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D
Dipak Vankar
GHAZAL

BEST BOOKS

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Habib
Baatein Ghazal Ki

I like It .

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mahaboobee .
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Thanks

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Naresh kumar chahar
Batein Gazal ki

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M. R. Chauhan
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This book is really helpful for new generation poets who want to learn about Ghazal.

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About The Book:-  The world of Urdu Ghazal is an enchanting and magnificent one. Many poetry enthusiasts are attracted to this genre of poetry, but can’t find a source to help them understand Ghazal's fundamental and foundational concepts. This book is specially intended for such readers. The book discusses the history of the Urdu Ghazal, The structural nuances of the Ghazal, and its poetics. Also, a selection of 50 Ghazals with commentary is included at the end for readers.

उर्दू ग़ज़ल की दुनिया विस्मयकारी है। कई काव्यप्रेमी काव्य की इस विधा की ओर आकर्षित होते हैं, लेकिन उन्हें ग़ज़ल की मौलिक और मूलभूत अवधारणाओं को समझने में के लिए कोई अच्छा स्रोत नहीं मिलता। यह पुस्तक विशेष रूप से ऐसे पाठकों के लिए है जो ग़ज़ल की मूलभूत अवधारणाओं और काव्य-मूल्यों को समझना चाहते हैं। पुस्तक में उर्दू ग़ज़ल के इतिहास, ग़ज़ल की संरचनात्मक बारीकियों और इस के काव्यशास्त्र पर चर्चा की गई है। साथ ही, पाठकों के लिए अंत में 50 ग़ज़लों का टिप्पनी-सहित चयन भी शामिल किया गया है।

 


About the Authors:-  आकाश ‘अर्श  (आकाश तिवारी) सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में 2 मई 2001 को पैदा हुए।  प्रारम्भिक शिक्षा जगराओं, पंजाब में पूरी की। चार भाषाओं - उर्दू, हिंदी, अंग्रेज़ी और पंजाबी के साहित्य में समान रूप से रुचि। उर्दू और पंजाबी भाषा में काव्य-सृजन। सक्रिय रूप से अनुवाद और संकलन कार्यों में लगे हुए हैं। रेख़्ता फ़ाउंडेशन में एडिटोरियल इग्ज़ेक्युटिव के पद पर कार्यरत।

फ़रहत एहसास (फ़रहतुल्लाह ख़ाँ) बहराइच (उत्तर प्रदेश) में 25 दिसम्बर 1950 को पैदा हुए। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्ति के बाद 1979 में दिल्ली से प्रकाशित उर्दू साप्ताहिक ‘हुजूम’  का सह-संपादन। 1987 में उर्दू दैनिक ‘क़ौमी आवाज़’  दिल्ली से जुड़े और कई वर्षों तक उस के इतवार एडीशन का संपादन किया जिस से उर्दू में रचनात्मक और वैचारिक पत्रकारिता के नए मानदंड स्थापित हुए। 1998 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से जुड़े और वहाँ से प्रकाशित दो शोध-पत्रिकाओं (उर्दू, अंग्रेज़ी) के सह-संपादक के तौर पर कार्यरत रहे। इसी दौरान उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो और बी.बी.सी. उर्दू सर्विस के लिए कार्य किया और समसामयिक विषयों पर वार्ताएँ और टिप्पणियाँ प्रसारित कीं। फ़रहत एहसास अपने वैचारिक फैलाव और अनुभवों की विशिष्टता के लिए जाने जाते हैं। उर्दू के अलावा, हिंदी, ब्रज, अवधी और अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी व अन्य पश्चिमी भाषाओं के साहित्य के साथ गहरी दिलचस्पी। भारतीय और पश्चिमी दर्शन से भी अंतरंग वैचारिक संबंध। सम्प्रति  रेख़्ता फ़ाउंडेशन  में मुख्य संपादक के पद पर कार्यरत।

 

Description

About The Book:-  The world of Urdu Ghazal is an enchanting and magnificent one. Many poetry enthusiasts are attracted to this genre of poetry, but can’t find a source to help them understand Ghazal's fundamental and foundational concepts. This book is specially intended for such readers. The book discusses the history of the Urdu Ghazal, The structural nuances of the Ghazal, and its poetics. Also, a selection of 50 Ghazals with commentary is included at the end for readers.

उर्दू ग़ज़ल की दुनिया विस्मयकारी है। कई काव्यप्रेमी काव्य की इस विधा की ओर आकर्षित होते हैं, लेकिन उन्हें ग़ज़ल की मौलिक और मूलभूत अवधारणाओं को समझने में के लिए कोई अच्छा स्रोत नहीं मिलता। यह पुस्तक विशेष रूप से ऐसे पाठकों के लिए है जो ग़ज़ल की मूलभूत अवधारणाओं और काव्य-मूल्यों को समझना चाहते हैं। पुस्तक में उर्दू ग़ज़ल के इतिहास, ग़ज़ल की संरचनात्मक बारीकियों और इस के काव्यशास्त्र पर चर्चा की गई है। साथ ही, पाठकों के लिए अंत में 50 ग़ज़लों का टिप्पनी-सहित चयन भी शामिल किया गया है।

 


About the Authors:-  आकाश ‘अर्श  (आकाश तिवारी) सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में 2 मई 2001 को पैदा हुए।  प्रारम्भिक शिक्षा जगराओं, पंजाब में पूरी की। चार भाषाओं - उर्दू, हिंदी, अंग्रेज़ी और पंजाबी के साहित्य में समान रूप से रुचि। उर्दू और पंजाबी भाषा में काव्य-सृजन। सक्रिय रूप से अनुवाद और संकलन कार्यों में लगे हुए हैं। रेख़्ता फ़ाउंडेशन में एडिटोरियल इग्ज़ेक्युटिव के पद पर कार्यरत।

फ़रहत एहसास (फ़रहतुल्लाह ख़ाँ) बहराइच (उत्तर प्रदेश) में 25 दिसम्बर 1950 को पैदा हुए। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्ति के बाद 1979 में दिल्ली से प्रकाशित उर्दू साप्ताहिक ‘हुजूम’  का सह-संपादन। 1987 में उर्दू दैनिक ‘क़ौमी आवाज़’  दिल्ली से जुड़े और कई वर्षों तक उस के इतवार एडीशन का संपादन किया जिस से उर्दू में रचनात्मक और वैचारिक पत्रकारिता के नए मानदंड स्थापित हुए। 1998 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से जुड़े और वहाँ से प्रकाशित दो शोध-पत्रिकाओं (उर्दू, अंग्रेज़ी) के सह-संपादक के तौर पर कार्यरत रहे। इसी दौरान उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो और बी.बी.सी. उर्दू सर्विस के लिए कार्य किया और समसामयिक विषयों पर वार्ताएँ और टिप्पणियाँ प्रसारित कीं। फ़रहत एहसास अपने वैचारिक फैलाव और अनुभवों की विशिष्टता के लिए जाने जाते हैं। उर्दू के अलावा, हिंदी, ब्रज, अवधी और अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी व अन्य पश्चिमी भाषाओं के साहित्य के साथ गहरी दिलचस्पी। भारतीय और पश्चिमी दर्शन से भी अंतरंग वैचारिक संबंध। सम्प्रति  रेख़्ता फ़ाउंडेशन  में मुख्य संपादक के पद पर कार्यरत।

 

www BOOKS बातें ग़ज़ल की उर्दू ग़ज़ल के बारे में बुनियादी बातें आकाश 'अर्श' फ़रहत एहसास बातें ग़ज़ल की आकाश 'अर्श' फ़रहत एहसास BOOKS ये किताब क्यों उर्दू ग़ज़ल के बारे में बहुत सी किताबें मौजूद हैं, मगर वो सब क और ज़माने और कुछ और लोगों के लिए लिखी गई हैं। इन में ज़ियादा - तर किताबें कम से कम पचास बरस पहले की हैं और उन का सम्बोधन ऐसे लोगों से है जो उर्दू अच्छी तरह जानते हैं, बल्कि अरबी, फ़ारसी भी जानते हैं, और ग़ज़ल की शाइ 'री के बारे में मा 'लूमात हासिल करने के इच्छुक हैं। यही कारण है कि इनमें अरबी, फ़ारसी की गूढ़ परिभाषिक शब्दावली (Terminology) इस्तेमाल की गई है जिसे समझना बहुत अच्छी उर्दू अ 'रबी, फ़ारसी जानने वालों के लिए आसान नहीं है। ऐसी किताबें आज सिर्फ़ सन्दर्भ-पुस्तकों के तौर पर ही पढ़ी जा सकती हैं, ग़ज़ल से, आ'म लोगों की तरह परिचित होने के लिए नहीं । " ये किताब उर्दू ग़ज़ल के काव्यशास्त्र के अतीत को वर्तमान की भाषा में तर्जुमा (अनुवाद) करने पर आधारित है। इसे उन लोगों, ख़ास तौर पर नौजवानों के लिए तैयार किया गया है जिन पर उर्दू ग़ज़ल का जादू चल चुका है, और वो ग़ज़ल को जानना समझना चाहते हैं या फिर ग़ज़ल कहने की इच्छा / इरादा रखते हैं या शे'र कहने लगे हैं। उर्दू ग़ज़ल कहने की राह पर पहला क़दम रख देने वाले नौजवानों को सब से पहला और सख़्त पाला, बह (छंद) के भारी पत्थर से पड़ता है। फिर टकराव होता है भाषा और शब्दों, और उनके उच्चारण और वज़्न ( मात्रा भार ) की मुसीबत से । फिर क़ाफ़िये, रदीफ़ और दो मित्रों के बीच अंतर्सम्बन्ध पैदा करने का घना जंगल सामने होता है। फिर सवाल आता है शे'र को बा-मा'नी (अर्थपूर्ण) और तहदार बनाने का । इस के बाद, इस से भी बड़ा चैलेंज होता है कि शे'र में मा'नी (अर्थ) के साथ साथ, हुस्न और लुत्फ़ कैसे पैदा किया जाए, क्योकि मा 'नीदार, मगर सुन्दरता और मज़े से महरूम (वंचित) शेर, शे'र कहलाने का हक़दार ही नहीं। ऐसे सारे लोगों और नौजवानों के लिए ये किताब एक गाइड (मार्गदर्शक) का काम करेगी। ग़ज़ल को मा 'शूक़ माना जाए, तो ये गाइड आप को उसी की गली, बल्कि मोहल्ले के भूगोल और इतिहास के बारे में बताएगी, फिर मा 'शूक़ के चेहरे जिस्म की संरचना से परिचित कराएगी और फिर उसके हुस्न का चर्चा करते हुए हुस्न पैदा होने के रहस्यों से बा- ख़बर करेगी । याद रखिए कि ये किताब / गाइड, ग़ज़ल-मा 'शूक से पहली मुलाक़ात की रुदाद (वृतान्त) है। इसी लिए इसे गूढ़ और पेचीदा न बनाते हुए, गैर- ज़रूरी बारीकियों और विस्तार दामन बचाया गया है और सिर्फ़ बुनियादी मगर ज़रूरी जानकारी पेश करने पर जोर दिया गया है। आख़िर में, ग़ज़ल की विकास-यात्रा का प्रतिनिधित्व करने वाली पचास ग़ज़लें प्रस्तुत की गई हैं ताकि तक़रीबन आठ सौ बरसों पर फैले हुए इस सफ़र के दौरान, ग़ज़ल के बदलते चेहरे, रंग और आवाज़ से परिचित हुआ जा सके। ये बात कहने की नहीं है कि इस किताब की ज़बान को ऐसा रखा गया है कि आम पाठक समझने की दुश्वारियों से दो-चार न हों । फ़रहत एहसास 1. 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. ये किताब क्यों पहला अंश ग़ज़ल का परिचय ग़ज़ल का सफ़र ग़ज़ल की संरचना क. क़ाफ़िया ख. दफ़ ग. बहूर तहीं ग़ज़लें दूसरा अंश बलाग़त क्या है? फ़साहत क्या है? फ़ेह्रिस्त इ'ल्म-ए-बयान तीसरा अंश तल्मीहात (संदगर्भित-संकेत) क्लासिकी शाइ'री के कुछ अहम प्रतीक मुहावरे और उन का इस्तेमाल उस्ताद शाइ 'रों की इस्लाहें परिशिष्ट इज़ाफ़त और वाव-ए-अ'त्फ़ ग़ज़ल-शाइ 'री की कुछ बुनियादी बातें... ग़ज़ल की नुमाइन्दा आवाज़ें ( चयन ) उर्दू शाइ 'री की विधाएँ 7 11 14 27 33 38 40 44 45 46 48 55 68 79 93 102 108 113 216 पहला अंश ग़ज़ल का परिचय लिखित साहित्य की सब से पुरानी शक्ल जो हमें मिलती है, वो गिलगमिश का प्राचीन सुमेरी रज़िमया (महाकाव्य ) है जिस के कुछ हिस्से 2100 ईसा पूर्व लिखे जा चुके थे। हम आपस में बात करते हुए गद्य का इस्ते'माल करते हैं। शायद भाषा के आरंभिक युग में भी ऐसा ही रहा हो, लेकिन सवाल ये है कि हमें पूरी दुनिया का प्राचीनतम साहित्य काव्य रूप में क्यों मिलता है। ज़ियादा- तर धर्म ग्रंथ भी काव्य-शैली में लिखे गए हैं। भाषा का विकास कैसे हुआ, ये सवाल हम विद्वानों पर भी छोड़ दें तो भी एक बात साफ़ है कि इंसानी दिमाग़ के अन्दर कहीं न कहीं कोई चीज़ ऐसी है जो उस में कविता के प्रति लगाव पैदा करती है । उर्दू शाइ 'री के आरंभ से ही कई काव्य-विधाओं का प्रयोग होता आया है। इन में से कई विधाएँ ऐसी हैं जो इस्तेमाल में नहीं रहीं और उन की जगह नई विधाओं ने ले ली है। उदाहरण के तौर पर क्लासिकी युग में मस्नवी बेहद लोकप्रिय विधा थी लेकिन आज मस्नवी की जगह 'आधुनिक नज़्म' ने ले ली है। लेकिन ग़ज़ल जितनी लोकप्रिय अपने आरंभिक युग में थी, उतनी ही आज भी है। इस की कई वजहें हैं जिन में सब से अहम ये है कि इंसान के भीतर जिस कविता-तत्व का संचार होता है, ग़ज़ल की शाइ 'री पूरी तरह उस में रची-बसी होती है। समय के साथ-साथ हर काव्य-विधा में परिवर्तन होते रहे हैं। ग़ज़ल में भी नए भाव- अनुभव और विषय शामिल होते रहे हैं लेकिन वो एक विधा के रूप में अब भी अपनी परंपरा से कटी नहीं है। ग़ज़ल की संरचना ऐसी है 11 जो इस में समसामयिकता होते हुए भी शाश्वतता का भाव पैदा कर देती है। ग़ज़ल की संरचना भारतीय काव्य परंपरा के अनुरूप है। जहाँ ग़ज़ल ईरान में धीरे-धीरे लुप्त हो गई, हिन्दुस्तान में तरक़्क़ी करती रही और आज भी फल- फूल रही है। इस का एक प्रमाण ये भी है कि उर्दू के साथ-साथ अब लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में ग़ज़ल को एक प्रमुख काव्य विधा का स्थान मिल चुका है। पंजाबी के प्रसिद्ध शाइ' र 'वारिस शाह' (1722-1799) ने उर्दू ग़ज़लें कही हैं। उदाहरण के लिए ये ग़ज़ल देखिए जिस में पंजाबी और उर्दू एक दूसरे में मिल गई हैं : जिस दिन के साजन बिछड़े हैं तिस दिन का दिल बीमार हो अब कठिन बना क्या फ़िक्र करूँ घर बार सभी बीमार होया दिन रात तमाम आराम नहीं अब शाम पड़ी वो शाम नहीं वो साक़ी साहब जान नहीं अब पीना मय दुश्वार होया ग़ज़ल का एक बड़ा गुण है इस की संक्षिप्तता । ग़ज़ल का शाइ र किसी बात को व्यक्त करते हुए अनावश्यक विस्तार या भूमिका बाँधने में नहीं फँसता। किसी अनुभव / अनुभूति / विचार / विषय / के हर मुम्किन पहलुओं पर गहराई और फैलाव से सोचने के बाद उस के मूल तत्व को कविता की सीमा में रहते हुए उपयुक्त शब्दों में व्यक्त करना ग़ज़ल के शाइ'र का बुनियादी काम है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कवित्व हाथ से नहीं जाता, और यदि ऐसा होता है तो उस शाब्दिक संरचना को चाहे किसी भी श्रेणी में रखा जाए, शे'र नहीं कहा जा सकता । इस के साथ ग़ज़ल के प्रमुखतम गुणों में से है इस की छंदबद्धता । संगीतात्मकता इस लिए आवश्यक नहीं है कि कोई गायक ग़ज़ल को गाए और उसे सुनने वाले तक पहुँचाए। (हालाँकि ये भी छंदबद्धता से ही सम्भव है) लयात्मक होने की वजह से ग़ज़ल के पाठक का रिश्ता शब्द के अर्थ - 12 के लिए वो सिर्फ़ झूठा और पाखण्डी है जो छुप छुप कर भोग-विलास और सत्ता सुख हासिल करने में लगा रहता है । ख़िलाफ़-ए-शरआ' कभी शेख़ थूकता भी नहीं मगर अँधेरे उजाले में चूकता भी नहीं 'अकबर' इलाहाबादी मुहतसिब : इस्लामी शासन की तरफ़ से नियुक्त धर्म- अधिकारी जिसे इस्लामी सिद्धान्तों और नैतिक व्यवहार का पान करने और इसकी अवहेलना करने पर सज़ा देने का अधिकार होता है। लेकिन उर्दू ग़ज़ल वाइ'ज़ और शेख़ की तरह, मुहतसिब का मुक़ाबला भी धार्मिक उदारता और मानवतावादी सहृदयता के साथ करती है और चुनौती भरे लहजे में कहती है कि मुहतसिब जितना धार्मिक कट्टरता को थोपने की कोशिश करेगा, आ 'शिक़ और शाइ'र की गुनाही - प्रवृति उतनी ही मज़बूत होगी । ता'ज़ीर-ए-जुर्म-ए-इ'श्क़ है बे-सर्फ़ मुहतसिब बढ़ता है और ज़ौक़-ए-गुनह याँ सज़ा के बाद मौलाना अल्ताफ़ हुसैन 'हाली' तर्क-ए-शराब भी जो करूँगा तो मुहतसिब तोडूंगा तेरे सर से पियाला शराब का मुनव्वर ख़ाँ 'ग़ाफ़िल' छोड़ भी देते मुहतसिब हम तो ये शाल-ए-मयकशी ज़िद का सवाल है तो फिर जा इसी बात पर नहीं मौलाना 'नातिक' गुलावठी 78 मुहावरे और उन का इस्तेमाल ने फ़साहत के विषय में चर्चा करते हुए हम ने 'मुहावरा' को परिभाषित किया था। जब कोई वाक्यांश या शब्द-समूह अपने सामान्य अर्थ को छोड़कर किसी विशेष अर्थ में इस्तेमाल होने लगता है तो उसे मुहावरा कहते हैं | शे'र को प्रभावी बनाने और भाषा की तमाम संभावनाओं तक पहुँचने के लिए मुहावरों का प्रयोग होता आया है। मुहावरों के इस्तेमाल के विषय में कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए : 1. मुहावरे के सभी लफ़्ज़ मुहावरे की हद तक फ़सीह समझे जाते हैं, चाहे एक शब्द के तौर पर उन का इस्तेमाल फ़सीह न समझा जाता हो । 2. मुहावरे को शब्दश: इस्तेमाल किया जाना चाहिए | मुहवारे में मौजूद किसी शब्द को उस के समानार्थक शब्द से बदला नहीं जा सकता। जैसे कि बे-पर की उड़ाने को बिना पंख की उड़ाना नहीं लिखा जा सकता। 3. मुहावरे में शब्द बढ़ाए भी नहीं जा सकते, नहीं तो वाक्यांश अपने मुहावराती अर्थ को छोड़ कर अपने शब्दकोशीय अर्थ देने लगता है। उदाहरण के लिए माहिरुल-क़ादरी का ये मिस्रा' देखें : घटाएँ चश्म-ए-इनायत इधर न फ़रमाएँ इस पर उर्दू के मशहूर आलोचक नियाज़ फ़तेहपुरी ने ए 'तिराज़ किया है, कि मुहावरा 'इनायत फ़रमाना' है न कि 'चश्म-ए-इनायत फ़रमाना'। अब कुछ आ'म तौर पर इस्तेमाल होने वाले मुहावरे और अश्आ 'र 79 मीर शम्सुद्दीन ‘फ़क़ीर' दिल्ली के शाइ'र थे और उन की भाषा में ख़ास दिल्ली का रंग नज़र आता है। ग़ज़ल का मत्ला' देखें। वाचक कहता है कि ये पूछना बेकार कि किस जगह बैठे, उन्हें बैठने का उचित स्थान मिला या नहीं। उन्हें मा 'शूक़ की सभा में बैठने का स्थान मिल गया, इतना ही काफ़ी है। दूसरा शे'र भी कहीं न कहीं मत्ले' का ही विस्तार मा 'लूम होता है। वाचक कहता है कि उन्हें दीद (दर्शन) से मतलब है, न कि उन्हें किसी तरह के बनावटी शिष्टाचार का ध्यान रखना है। उस सभा में कोई कहीं भी बैठ जाए, वो ख़ुश-क़िस्मत है। चौथा शे'र भी ग़ौर-तलब है । इस में एक छिपा हुआ तंज़ है । वाचक मा 'शूक़ से कहता है कि तुम्हारी गली के बाशिन्दों (रहने वालों यानी आ'शिक़ों) की आवाज़ इतनी कम है कि तुम तक नहीं आती। हालाँकि रोने और फ़रियाद करने से उन के गले बैठ गए हैं। या 'नी वाचक कह रहा है कि आशिक़ों के ज़ोर-ज़ोर से फ़रियाद करने से उन के गले तक बैठ गए। लेकिन मा 'शूक़ इतना निर्दयी है कि उसे आ 'शिक़ों की आवाज़ कम मा 'लूम होती है या सुनाई ही नहीं देती । 132 10. 'हसन', मीर ग़ुलाम हसन (1741/42-1826 ) हम न निकहत हैं न गुल हैं जो महकते जावें आग की तरह जिधर जावें दहकते जावें 1. सुगंध 2. फूल ऐ ख़ुशा-मस्त' कि ताबूत के आगे जिस के आब-पाशी के बदल मय को छिड़कते जावें 1. भाग्यशाली शराबी 2. सिंचाई जो कोई आवे है नज़दीक ही बैठे है तिरे हम कहाँ तक तिरे पहलू से सरकते जावें ग़ैर को राह हो घर में तिरे सुब्हान अल्लाह और हम दूर से दर' को तिरे तकते जावें 1. दरवाज़ा वक़्त अब वो है कि इक एक 'हसन' हो के ब-तंग' सब्र - ओ - ताब-ओ-ख़िरद' - ओ - होश खिसकते जावें 1. व्यथित 2. ताक़त 3 बुद्धि 133 48. 'ज़फ़र', मियाँ ज़फ़र इक़बाल (1933 - थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते कुछ और थक गया हूँ आराम करते करते अन्दर सब आ गया है बाहर का भी अँधेरा ख़ुद रात हो गया हूँ मैं शाम करते करते ये उ'म्र थी ही ऐसी जैसी गुज़ार दी है बदनाम होते होते बदनाम करते करते जिस मोड़ से चले थे पहुँचे हैं फिर वहीं पर इक राएगाँ सफ़र को अंजाम करते करते 1. व्यर्थ 2. समाप्त आख़िर' ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र' से ख़ुद ही ग़ायब उस्लूब-ए-ख़ास' अपना मैं आ 'म करते करते 1. दृश्य 2. ख़ास लहजा 210 ज़फ़र इक़बाल प्रमुखतम और दिशा देने वाले आधुनिक शाइ 'रों में शुमार किए जाते हैं। उन की ग़ज़ल का लहजा बुलन्द है और उन के मौज़ूआ'त और उन का तर्ज़-ए-बयान, दोनों बिल्कुल नए मा 'लूम होते हैं। - - - इस ग़ज़ल का मत्ला' देखें। आराम करते-करते थकना जहाँ विसंगत लगता है, तो वहीं आधुनिक युग में इंसान की स्थिति पर बिल्कुल उपयुक्त भी मा 'लूम होता है। दूसरा शे'र भी आधुनिक युग में श्रमिक वर्ग (या समस्त इंसानों) की बात करता हुआ मालूम होता है। शाम करना या 'नी दिन काटना । दिन भर काम करना, परेशानियाँ उठाना और ऐसा करते हुए दिन ख़त्म होने का इन्तिज़ार ( शाम का इन्तिज़ार ) ख़ुद अँधेरों से भर जाना जहाँ आधुनिक युग की बाह्य दशा को बयान करता है, वहीं इंसान की अस्तित्ववादी बेचैनी को भी दिखाता है। - चौथा शे'र जहाँ श्रमिक वर्ग के एक-दृष्ट (monotonous ) जीवन के दुखान्त को दिखाता है वहीं ये शे'र पूरे जीवन चक्र को भी तंज़ का निशाना बनाता है, जैसे ये राएगाँ सफ़र जीवन ही हो । सफ़र को राएगाँ कहने के बाद भी उसे अंजाम करने का इरादा इस शे'र को इंसान की वास्तविक स्थिति के बहुत क़रीब ले आता है, और बहुत बुलन्द बना देता है।

Additional Information
Book Type

Default title

Publisher Rekhta Publications
Language Hindi
ISBN 978-9394494152
Pages 0
Publishing Year 2022

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उर्दू ग़ज़ल की दुनिया विस्मयकारी है। कई काव्यप्रेमी काव्य की इस विधा की ओर आकर्षित होते हैं, लेकिन उन्हें ग़ज़ल की मौलिक और मूलभूत अवधारणाओं को समझने में के लिए कोई अच्छा स्रोत नहीं मिलता। यह पुस्तक विशेष रूप से ऐसे पाठकों के लिए है जो ग़ज़ल की मूलभूत अवधारणाओं और काव्य-मूल्यों को समझना चाहते हैं। पुस्तक में उर्दू ग़ज़ल के इतिहास, ग़ज़ल की संरचनात्मक बारीकियों और इस के काव्यशास्त्र पर चर्चा की गई है। साथ ही, पाठकों के लिए अंत में 50 ग़ज़लों का टिप्पनी-सहित चयन भी शामिल किया गया है।

 


About the Authors:-  आकाश ‘अर्श  (आकाश तिवारी) सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में 2 मई 2001 को पैदा हुए।  प्रारम्भिक शिक्षा जगराओं, पंजाब में पूरी की। चार भाषाओं - उर्दू, हिंदी, अंग्रेज़ी और पंजाबी के साहित्य में समान रूप से रुचि। उर्दू और पंजाबी भाषा में काव्य-सृजन। सक्रिय रूप से अनुवाद और संकलन कार्यों में लगे हुए हैं। रेख़्ता फ़ाउंडेशन में एडिटोरियल इग्ज़ेक्युटिव के पद पर कार्यरत।

फ़रहत एहसास (फ़रहतुल्लाह ख़ाँ) बहराइच (उत्तर प्रदेश) में 25 दिसम्बर 1950 को पैदा हुए। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्ति के बाद 1979 में दिल्ली से प्रकाशित उर्दू साप्ताहिक ‘हुजूम’  का सह-संपादन। 1987 में उर्दू दैनिक ‘क़ौमी आवाज़’  दिल्ली से जुड़े और कई वर्षों तक उस के इतवार एडीशन का संपादन किया जिस से उर्दू में रचनात्मक और वैचारिक पत्रकारिता के नए मानदंड स्थापित हुए। 1998 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से जुड़े और वहाँ से प्रकाशित दो शोध-पत्रिकाओं (उर्दू, अंग्रेज़ी) के सह-संपादक के तौर पर कार्यरत रहे। इसी दौरान उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो और बी.बी.सी. उर्दू सर्विस के लिए कार्य किया और समसामयिक विषयों पर वार्ताएँ और टिप्पणियाँ प्रसारित कीं। फ़रहत एहसास अपने वैचारिक फैलाव और अनुभवों की विशिष्टता के लिए जाने जाते हैं। उर्दू के अलावा, हिंदी, ब्रज, अवधी और अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी व अन्य पश्चिमी भाषाओं के साहित्य के साथ गहरी दिलचस्पी। भारतीय और पश्चिमी दर्शन से भी अंतरंग वैचारिक संबंध। सम्प्रति  रेख़्ता फ़ाउंडेशन  में मुख्य संपादक के पद पर कार्यरत।