Gulshan (Hindi)

Muztar Khairabadi

Rs. 400 Rs. 339

About Book प्रस्तुत किताब में प्रसिद्ध उर्दू शाइर मुज़्तर ख़ैराबादी का चुनिन्दा कलाम संकलित है। यह किताब देवनागरी और उर्दू लिपि में प्रकाशित हुई है और पाठकों के बीच ख़ूब पसंद की गई है|   About Author सय्यद इफ़्तिख़ार हुसैन मुज़्तर ख़ैराबादी 1869 में, ज़िला सीतापूर (उत्तर प्रदेश) के मश्हूर... Read More

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A
Ashok Kumar Simar
Gulshan book

Found this book a good one. I was not aware ghazal - Na kisi ki aankh ka noor hoon, is actually penned by Muzztar Khairabadi grandfather of Javed Akhtar Sahab though had read somewhere that it was not written by Zafar.
Interesting book.

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About Book

प्रस्तुत किताब में प्रसिद्ध उर्दू शाइर मुज़्तर ख़ैराबादी का चुनिन्दा कलाम संकलित है। यह किताब देवनागरी और उर्दू लिपि में प्रकाशित हुई है और पाठकों के बीच ख़ूब पसंद की गई है|

 

About Author

सय्यद इफ़्तिख़ार हुसैन मुज़्तर ख़ैराबादी 1869 में, ज़िला सीतापूर (उत्तर प्रदेश) के मश्हूर क़स्बे ख़ैराबाद के, विद्वानों के घराने में पैदा हुए। शिक्षा-दीक्षा उनकी माँ ने, की जो अरबी, फ़ारसी और उर्दू की विद्वान और शाइ’रा थीं। ‘मुज़्तर’ अपनी शुरू’ की शाइ’री अपनी माँ ही को दिखाते थे, मगर बा’द में ‘अमीर’ मीनाई को उस्ताद बनाया, हालाँकि ये उस्तादी सिर्फ़ एक ग़ज़ल तक सीमित थी। ‘मुज़्तर’ ने टोंक, ग्वालियर, रामपूर, भोपाल और इंदौर के रजवाड़ों और रियासतों में नौकरियाँ कीं। मश्हूर शाइ’र और फ़िल्म-गीतकार जाँ-निसार अख़्तर उनके बेटे थे और फिल्म-कथाकार, गीतकार और शाइ’र जावेद अख़्तर उनके पोते हैं।

 

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फ़ेह्‍‌रिस्त

 

1 असीर-ए-पन्जा-ए-अ’ह्द-ए-शबाब करके मुझे
2 इ’लाज-ए-दर्द-ए-दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता
3 जुनूँ के जोश में इन्सान रुस्वा हो ही जाता है
4 दम-ए-आख़िर है चश्म-ए-मुन्तज़िर पथराई जाती है
5 न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
6 जफ़ा से वफ़ा मुस्तरद हो गई
7 अपने अ’ह्द-ए-वफ़ा को भूल गए
8 फुर्क़त में दर्द-ए-दिल की दवा हाय क्या करूँ
9 शब-ए-फुर्क़त क़ज़ा मेहमान हो जाती तो अच्छा था
10 जो खींची है तो बढ़िए ये झिझक हर बार कैसी है
11 ये तुम बे-वक़्त कैसे आज आ निकले सबब क्या है
12 इस बात का मलाल नहीं है कि दिल गया
13 जफ़ा की बातें सदा बनाना वफ़ा की बातें कभी न करना
14 न किसी के घर का चराग़ हूँ, न किसी के बाग़ का फूल हूँ
15 दिल ले के हसीनों ने ये दस्तूर निकाला
16 कूचा-ए-जानाँ में जाना हो गया
17 तुम्हारे हिज्रि में हम हर ख़ुशी को ग़म समझते हैं
18 उ’म्रत भर यार ने जफ़ा ही की
19 मह्शर के दिन भी वा’दा-ए-फ़र्दा न हो कहीं
20 उठ के अब आता हूँ मैं तुर्बत से घबराया हुआ
21 दिल ता’ना-ए-दुश्मन से टटोला नहीं जाता
22 माना कि सताओगे सताना भी तो आए
23 वो बेबस हो के मुझको छोड़ना मन्ज़ूर कर बैठे
24 ऐ बुतो! फेर दो ईमाँ मेरा
25 अगर तुम दिल हमारा ले के पछताए तो रहने दो
26 इक पर्दा-नशीं की आरज़ू है
27 रुख़ किसी का नज़र नहीं आता
28 क़यामत भी पामाल देखी गई
29 तजस्सुस में तेरे निकलते रहे
30 दिल ले के ये कहते हो कि अच्छा तो नहीं है
31 लख़्त-ए-दिल खा के ग़म-ए-हिज्र में जीना हो
32 तू क्यों ज़बान दे के मिरी जान फिर गया
33 कहते हैं वो किसी से क्या मत्लब
34 किसी बुत की अदा ने मार डाला
35 वफ़ा क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते
36 ये पास उसी का है कि मैं कुछ नहीं कहता
37 मुख़ालिफ़ है सबा-ए-नामा-बर कुछ और कहती है
38 फ़स्ल-ए-गुल भी तरस के काटी है
39 उठने से हुई है न उठाने से हुई है
40 ये मुझसे पूछते क्या हो कि हाल कैसा है
41 न बुलवाया न आए रोज़ वा’दा करके दिन काटे
42 जुदाई मुझको मारे डालती है
43 मोहब्बत को कहते हो बरती भी थी
44 शाम-ए-ग़म दम लबों प मेरा है
45 ऐ’श के रंग मलालों से दबे जाते हैं
46 मिरे महबूब तुम हो यार तुम हो दिल-रुबा तुम हो
47 ख़त नहीं हैं ये पयाम-ए-मौत हैं आए हुए
48 हाथ पाँवों दोनों निकले काम के
49 न छोड़ा संग-ए-कू-ए-दिल-रुबा सर हो तो ऐसा हो
50 चराग़ क्यों न जले ऐसे हुस्न वालों का

 

 

1

असीर-ए-पन्जा-ए-अ’ह्​द-ए-शबाब1 करके मुझे

कहाँ गया मिरा बचपन ख़राब करके मुझे

1 युवावस्था का क़ैदी

 

किसी के दर्द-ए-मोहब्बत ने उ’म्‍र-भर के लिए

ख़ुदा से मांग लिया इन्तिख़ाब1 करके मुझे

1 चयन

 

ये उनके हुस्न को है सूरत-आफ़रीं1 से गिला

ग़ज़ब में डाल दिया लाजवाब करके मुझे

1 शक्ल देने वाला / ख़ुदा

 

वो पास आने न पाए कि आई मौत की नींद

नसीब1 सो गए मस्‍रूफ़-ए-ख़्वाब2 करके मुझे

1 भाग्य 2 स्वप्न देखने में व्यस्त

 

मिरे गुनाह ज़ियादा हैं या तिरी रहमत

करीम!1 तू ही बता दे हिसाब करके मुझे

1 ख़ुदा / कृपालु

 

मैं उनके पर्दा-ए-बेजा1 से मर गया ‘मुज़्तर’

उन्होंने मार ही डाला हिजाब2 करके मुझे

1 अनुचित पर्दा 2 पर्दा, शर्म


 

2

इ’लाज-ए-दर्द-ए-दिल तुमसे मसीहा1 हो नहीं सकता

तुम अच्छा कर नहीं सकते मैं अच्छा हो नहीं सकता

1 दुख-दर्द मिटाने वाला

 

अ’दू1 को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है

तुम ऐसा कर नहीं सकते तो ऐसा हो नहीं सकता

1 दुश्मन

 

अभी मरते हैं हम जीने का ता’ना1 फिर न देना तुम

ये ता’ना उनको देना जिनसे ऐसा हो नहीं सकता

1 कटाक्ष

 

तुम्हें चाहूँ तुम्हारे चाहने वालों को भी चाहूँ

मिरा दिल फेर दो मुझसे ये झगड़ा हो नहीं सकता

 

दम-ए-आख़िर1 मिरी बालीं प मज्मा’ है हसीनों का

फ़रिश्ता मौत का फिर आए पर्दा हो नहीं सकता

1 अंतिम क्षण

 

न बरतो उनसे अपनायत के तुम बरताव ऐ ‘मुज़्तर’

पराया माल इन बातों से अपना हो नहीं सकता

 


 

3

जुनूँ के जोश में इन्सान रुस्वा हो ही जाता है

गरेबाँ फाड़ने से फ़ाश1 पर्दा हो ही जाता है

1 खुलना

 

मोहब्बत ख़ौफ़-ए-रुस्वाई1 का बाइ’स2 बन ही जाती है

तरीक़-ए-इ’श्क़3 में अपनों से पर्दा हो ही जाता है

1 बदनामी का डर 2 कारण 3 प्यार का दस्तूर

 

जवानी वस्ल की लज़्ज़त प राग़िब1 कर ही देती है

तुम्हें इस बात का ग़म क्यों है ऐसा हो ही जाता है

1 प्ररेति

 

बिगड़ते क्यों हो आपस में शिकायत कर ही लेते हैं

अ’दू1 का तज़्किरा2 दुश्मन का चर्चा हो ही जाता है

1 दुश्मन 2 चर्चा

 

तुम्हारी नर्गिस-ए-बीमार1 अच्छा कर ही देती है

जिसे तुम देख लेते हो वो अच्छा हो ही जाता है

1 मा’शूक़ की आँख

 

अकेला पा के उनको अ’र्ज़-ए-मत्लब1 कर ही लेता हूँ

न चाहूँ तो भी इज़्हार-ए-तमन्ना2 हो ही जाता है

1,2 मन की बात बताना

 

मिरा दा’वा-ए-इ’श्क़1 अग़्यार बातिल2 कर ही देते हैं

जिसे झूटा बना लें यार झूटा हो ही जाता है

1 मोहब्बत का दा’वा 2 झूठा

 

बुतान-ए-बेवफ़ा1 ‘मुज़्तर’ दिल-ओ-दीं2 ले ही लेते हैं

तुम्हीं पर कुछ नहीं मौक़ूफ़3 ऐसा हो ही जाता है

1 बेवफ़ा मा’शूक़ 2 आस्था 3 निर्भर


 

4

दम-ए-आख़िर है चश्म-ए-मुन्तज़िर1 पथराई जाती है

वो आ चुकते नहीं और मौत की नींद आई जाती है

1 राह तकती आँखें

 

मिरी फ़र्याद-ओ-ज़ारी1 से फ़लक2 का दिल लरज़ता है

मिरी आवारागर्दी से ज़मीं चकराई जाती है

1 विलाप 2 आस्मान

 

न रो इतना पराए वास्ते ऐ दीदा-ए-गिर्यां1

किसी का कुछ नहीं जाता तिरी बीनाई2 जाती है

1 रोती आँख 2 आँखों की रौशनी

 

हमारी तीरा-रोज़ी1 का ज़माना ख़त्म होता है

रुख़-ए-रौशन2 से वो ज़ुल्फ़-ए-सियह सरकाई जाती है

1 दुर्भाग्य 2 चमकता चेहरा

 

तिरे जाने का भी ऐ जान-ए-पुर-ग़म1 वक़्त आता है

तिरी उम्मीद भी निकलेगी क्यों घबराई जाती है

1 दुख भरी जान

 

वो शायद हमसे अब तर्क-ए-तअ’ल्लुक़1 करने वाले हैं

हमारे दिल प कुछ अफ़्सुर्दगी2 सी छाई जाती है

1 संबंध तोड़ना 2 निराशा

 

जवानी कर चुकी है उनको राज़ी वस्ल पर ‘मुज़्तर’

ख़ुदा वो दिन करे निय्यत तो कुछ-कुछ पाई जाती है


 

5

न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ

जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार1 हूँ*

1 मुट्ठी भर  धूल

 

मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा1 मुझे आप सुनके करेंगे क्या

मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखी की पुकार हूँ

1 शक्ति देने वाला गीत

 

मिरा रंग-रूप बिगड़ गया मिरा बख़्त1 मुझसे बिछड़ गया

जो चमन ख़िज़ाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार2 हूँ

1 भाग्य 2 बसंत ऋतु

 

पय-ए-फ़ातिहा1 कोई आए क्यों कोई चार फूल चढ़ाए क्यों

कोई शम्अ’ ला के जलाए क्यों कि मैं बेकसी का मज़ार हूँ

1 मंत्रोच्चार के लिए

 

न मैं ‘मुज़्तर’ उनका हबीब1 हूँ, न मैं ‘मुज़्तर’ उनका रक़ीब2 हूँ

जो पलट गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ

1 दोस्त 2 प्रतिद्वन्द्वी

 

 

* किसी काम में जो न आ सकी मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ (ये मिस्‍रा’ यूँ भी पढ़ा जाता है)


 

6

जफ़ा1 से वफ़ा मुस्तरद2 हो गई

यहाँ हम भी क़ाइल3 हैं हद हो गई

1 अत्याचार 2 लौटा देना, रद्द कर देना 3 मान लेना

 

निगाहों में फिरती है आठों पहर

क़यामत भी ज़ालिम का क़द हो गई

 

अज़ल1 में जो इक लाग तुझसे हुई

वो आख़िर को दाग़-ए-अबद2 हो गई

1 सृष्टि का आरंभ 2 हमेशा रहने वाला दाग़

 

मिरी इन्तिहा-ए-वफ़ा कुछ न पूछ

जफ़ा देख जो ला-तअ’द1 हो गई

1 असंख्य

 

मुकरते हो अल्लाह के सामने

अब ऐसा भी क्या झूठ हद हो गई

 

तअ’ल्लुक़ जो पल्टा तो झगड़ा बना

मोहब्बत जो बदली तो कद1 हो गई

1 दुश्मनी

 

वो आँखों की हद्द-ए-नज़र2 कब बने

नज़र ख़ुद वहाँ जा के हद हो गई

1 देख सकने की हद

 

जफ़ा से उन्होंने दिया दिल प दाग़

मुकम्मल वफ़ा की सनद1 हो गई

1 प्रमाण

 

क़यामत में ‘मुज़्तर’ किसी से मिले

कहाँ जा के घेरा है हद हो गई

 

Description

About Book

प्रस्तुत किताब में प्रसिद्ध उर्दू शाइर मुज़्तर ख़ैराबादी का चुनिन्दा कलाम संकलित है। यह किताब देवनागरी और उर्दू लिपि में प्रकाशित हुई है और पाठकों के बीच ख़ूब पसंद की गई है|

 

About Author

सय्यद इफ़्तिख़ार हुसैन मुज़्तर ख़ैराबादी 1869 में, ज़िला सीतापूर (उत्तर प्रदेश) के मश्हूर क़स्बे ख़ैराबाद के, विद्वानों के घराने में पैदा हुए। शिक्षा-दीक्षा उनकी माँ ने, की जो अरबी, फ़ारसी और उर्दू की विद्वान और शाइ’रा थीं। ‘मुज़्तर’ अपनी शुरू’ की शाइ’री अपनी माँ ही को दिखाते थे, मगर बा’द में ‘अमीर’ मीनाई को उस्ताद बनाया, हालाँकि ये उस्तादी सिर्फ़ एक ग़ज़ल तक सीमित थी। ‘मुज़्तर’ ने टोंक, ग्वालियर, रामपूर, भोपाल और इंदौर के रजवाड़ों और रियासतों में नौकरियाँ कीं। मश्हूर शाइ’र और फ़िल्म-गीतकार जाँ-निसार अख़्तर उनके बेटे थे और फिल्म-कथाकार, गीतकार और शाइ’र जावेद अख़्तर उनके पोते हैं।

 

Read Sample Data

 

फ़ेह्‍‌रिस्त

 

1 असीर-ए-पन्जा-ए-अ’ह्द-ए-शबाब करके मुझे
2 इ’लाज-ए-दर्द-ए-दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता
3 जुनूँ के जोश में इन्सान रुस्वा हो ही जाता है
4 दम-ए-आख़िर है चश्म-ए-मुन्तज़िर पथराई जाती है
5 न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
6 जफ़ा से वफ़ा मुस्तरद हो गई
7 अपने अ’ह्द-ए-वफ़ा को भूल गए
8 फुर्क़त में दर्द-ए-दिल की दवा हाय क्या करूँ
9 शब-ए-फुर्क़त क़ज़ा मेहमान हो जाती तो अच्छा था
10 जो खींची है तो बढ़िए ये झिझक हर बार कैसी है
11 ये तुम बे-वक़्त कैसे आज आ निकले सबब क्या है
12 इस बात का मलाल नहीं है कि दिल गया
13 जफ़ा की बातें सदा बनाना वफ़ा की बातें कभी न करना
14 न किसी के घर का चराग़ हूँ, न किसी के बाग़ का फूल हूँ
15 दिल ले के हसीनों ने ये दस्तूर निकाला
16 कूचा-ए-जानाँ में जाना हो गया
17 तुम्हारे हिज्रि में हम हर ख़ुशी को ग़म समझते हैं
18 उ’म्रत भर यार ने जफ़ा ही की
19 मह्शर के दिन भी वा’दा-ए-फ़र्दा न हो कहीं
20 उठ के अब आता हूँ मैं तुर्बत से घबराया हुआ
21 दिल ता’ना-ए-दुश्मन से टटोला नहीं जाता
22 माना कि सताओगे सताना भी तो आए
23 वो बेबस हो के मुझको छोड़ना मन्ज़ूर कर बैठे
24 ऐ बुतो! फेर दो ईमाँ मेरा
25 अगर तुम दिल हमारा ले के पछताए तो रहने दो
26 इक पर्दा-नशीं की आरज़ू है
27 रुख़ किसी का नज़र नहीं आता
28 क़यामत भी पामाल देखी गई
29 तजस्सुस में तेरे निकलते रहे
30 दिल ले के ये कहते हो कि अच्छा तो नहीं है
31 लख़्त-ए-दिल खा के ग़म-ए-हिज्र में जीना हो
32 तू क्यों ज़बान दे के मिरी जान फिर गया
33 कहते हैं वो किसी से क्या मत्लब
34 किसी बुत की अदा ने मार डाला
35 वफ़ा क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते
36 ये पास उसी का है कि मैं कुछ नहीं कहता
37 मुख़ालिफ़ है सबा-ए-नामा-बर कुछ और कहती है
38 फ़स्ल-ए-गुल भी तरस के काटी है
39 उठने से हुई है न उठाने से हुई है
40 ये मुझसे पूछते क्या हो कि हाल कैसा है
41 न बुलवाया न आए रोज़ वा’दा करके दिन काटे
42 जुदाई मुझको मारे डालती है
43 मोहब्बत को कहते हो बरती भी थी
44 शाम-ए-ग़म दम लबों प मेरा है
45 ऐ’श के रंग मलालों से दबे जाते हैं
46 मिरे महबूब तुम हो यार तुम हो दिल-रुबा तुम हो
47 ख़त नहीं हैं ये पयाम-ए-मौत हैं आए हुए
48 हाथ पाँवों दोनों निकले काम के
49 न छोड़ा संग-ए-कू-ए-दिल-रुबा सर हो तो ऐसा हो
50 चराग़ क्यों न जले ऐसे हुस्न वालों का

 

 

1

असीर-ए-पन्जा-ए-अ’ह्​द-ए-शबाब1 करके मुझे

कहाँ गया मिरा बचपन ख़राब करके मुझे

1 युवावस्था का क़ैदी

 

किसी के दर्द-ए-मोहब्बत ने उ’म्‍र-भर के लिए

ख़ुदा से मांग लिया इन्तिख़ाब1 करके मुझे

1 चयन

 

ये उनके हुस्न को है सूरत-आफ़रीं1 से गिला

ग़ज़ब में डाल दिया लाजवाब करके मुझे

1 शक्ल देने वाला / ख़ुदा

 

वो पास आने न पाए कि आई मौत की नींद

नसीब1 सो गए मस्‍रूफ़-ए-ख़्वाब2 करके मुझे

1 भाग्य 2 स्वप्न देखने में व्यस्त

 

मिरे गुनाह ज़ियादा हैं या तिरी रहमत

करीम!1 तू ही बता दे हिसाब करके मुझे

1 ख़ुदा / कृपालु

 

मैं उनके पर्दा-ए-बेजा1 से मर गया ‘मुज़्तर’

उन्होंने मार ही डाला हिजाब2 करके मुझे

1 अनुचित पर्दा 2 पर्दा, शर्म


 

2

इ’लाज-ए-दर्द-ए-दिल तुमसे मसीहा1 हो नहीं सकता

तुम अच्छा कर नहीं सकते मैं अच्छा हो नहीं सकता

1 दुख-दर्द मिटाने वाला

 

अ’दू1 को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है

तुम ऐसा कर नहीं सकते तो ऐसा हो नहीं सकता

1 दुश्मन

 

अभी मरते हैं हम जीने का ता’ना1 फिर न देना तुम

ये ता’ना उनको देना जिनसे ऐसा हो नहीं सकता

1 कटाक्ष

 

तुम्हें चाहूँ तुम्हारे चाहने वालों को भी चाहूँ

मिरा दिल फेर दो मुझसे ये झगड़ा हो नहीं सकता

 

दम-ए-आख़िर1 मिरी बालीं प मज्मा’ है हसीनों का

फ़रिश्ता मौत का फिर आए पर्दा हो नहीं सकता

1 अंतिम क्षण

 

न बरतो उनसे अपनायत के तुम बरताव ऐ ‘मुज़्तर’

पराया माल इन बातों से अपना हो नहीं सकता

 


 

3

जुनूँ के जोश में इन्सान रुस्वा हो ही जाता है

गरेबाँ फाड़ने से फ़ाश1 पर्दा हो ही जाता है

1 खुलना

 

मोहब्बत ख़ौफ़-ए-रुस्वाई1 का बाइ’स2 बन ही जाती है

तरीक़-ए-इ’श्क़3 में अपनों से पर्दा हो ही जाता है

1 बदनामी का डर 2 कारण 3 प्यार का दस्तूर

 

जवानी वस्ल की लज़्ज़त प राग़िब1 कर ही देती है

तुम्हें इस बात का ग़म क्यों है ऐसा हो ही जाता है

1 प्ररेति

 

बिगड़ते क्यों हो आपस में शिकायत कर ही लेते हैं

अ’दू1 का तज़्किरा2 दुश्मन का चर्चा हो ही जाता है

1 दुश्मन 2 चर्चा

 

तुम्हारी नर्गिस-ए-बीमार1 अच्छा कर ही देती है

जिसे तुम देख लेते हो वो अच्छा हो ही जाता है

1 मा’शूक़ की आँख

 

अकेला पा के उनको अ’र्ज़-ए-मत्लब1 कर ही लेता हूँ

न चाहूँ तो भी इज़्हार-ए-तमन्ना2 हो ही जाता है

1,2 मन की बात बताना

 

मिरा दा’वा-ए-इ’श्क़1 अग़्यार बातिल2 कर ही देते हैं

जिसे झूटा बना लें यार झूटा हो ही जाता है

1 मोहब्बत का दा’वा 2 झूठा

 

बुतान-ए-बेवफ़ा1 ‘मुज़्तर’ दिल-ओ-दीं2 ले ही लेते हैं

तुम्हीं पर कुछ नहीं मौक़ूफ़3 ऐसा हो ही जाता है

1 बेवफ़ा मा’शूक़ 2 आस्था 3 निर्भर


 

4

दम-ए-आख़िर है चश्म-ए-मुन्तज़िर1 पथराई जाती है

वो आ चुकते नहीं और मौत की नींद आई जाती है

1 राह तकती आँखें

 

मिरी फ़र्याद-ओ-ज़ारी1 से फ़लक2 का दिल लरज़ता है

मिरी आवारागर्दी से ज़मीं चकराई जाती है

1 विलाप 2 आस्मान

 

न रो इतना पराए वास्ते ऐ दीदा-ए-गिर्यां1

किसी का कुछ नहीं जाता तिरी बीनाई2 जाती है

1 रोती आँख 2 आँखों की रौशनी

 

हमारी तीरा-रोज़ी1 का ज़माना ख़त्म होता है

रुख़-ए-रौशन2 से वो ज़ुल्फ़-ए-सियह सरकाई जाती है

1 दुर्भाग्य 2 चमकता चेहरा

 

तिरे जाने का भी ऐ जान-ए-पुर-ग़म1 वक़्त आता है

तिरी उम्मीद भी निकलेगी क्यों घबराई जाती है

1 दुख भरी जान

 

वो शायद हमसे अब तर्क-ए-तअ’ल्लुक़1 करने वाले हैं

हमारे दिल प कुछ अफ़्सुर्दगी2 सी छाई जाती है

1 संबंध तोड़ना 2 निराशा

 

जवानी कर चुकी है उनको राज़ी वस्ल पर ‘मुज़्तर’

ख़ुदा वो दिन करे निय्यत तो कुछ-कुछ पाई जाती है


 

5

न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ

जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार1 हूँ*

1 मुट्ठी भर  धूल

 

मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा1 मुझे आप सुनके करेंगे क्या

मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखी की पुकार हूँ

1 शक्ति देने वाला गीत

 

मिरा रंग-रूप बिगड़ गया मिरा बख़्त1 मुझसे बिछड़ गया

जो चमन ख़िज़ाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार2 हूँ

1 भाग्य 2 बसंत ऋतु

 

पय-ए-फ़ातिहा1 कोई आए क्यों कोई चार फूल चढ़ाए क्यों

कोई शम्अ’ ला के जलाए क्यों कि मैं बेकसी का मज़ार हूँ

1 मंत्रोच्चार के लिए

 

न मैं ‘मुज़्तर’ उनका हबीब1 हूँ, न मैं ‘मुज़्तर’ उनका रक़ीब2 हूँ

जो पलट गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ

1 दोस्त 2 प्रतिद्वन्द्वी

 

 

* किसी काम में जो न आ सकी मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ (ये मिस्‍रा’ यूँ भी पढ़ा जाता है)


 

6

जफ़ा1 से वफ़ा मुस्तरद2 हो गई

यहाँ हम भी क़ाइल3 हैं हद हो गई

1 अत्याचार 2 लौटा देना, रद्द कर देना 3 मान लेना

 

निगाहों में फिरती है आठों पहर

क़यामत भी ज़ालिम का क़द हो गई

 

अज़ल1 में जो इक लाग तुझसे हुई

वो आख़िर को दाग़-ए-अबद2 हो गई

1 सृष्टि का आरंभ 2 हमेशा रहने वाला दाग़

 

मिरी इन्तिहा-ए-वफ़ा कुछ न पूछ

जफ़ा देख जो ला-तअ’द1 हो गई

1 असंख्य

 

मुकरते हो अल्लाह के सामने

अब ऐसा भी क्या झूठ हद हो गई

 

तअ’ल्लुक़ जो पल्टा तो झगड़ा बना

मोहब्बत जो बदली तो कद1 हो गई

1 दुश्मनी

 

वो आँखों की हद्द-ए-नज़र2 कब बने

नज़र ख़ुद वहाँ जा के हद हो गई

1 देख सकने की हद

 

जफ़ा से उन्होंने दिया दिल प दाग़

मुकम्मल वफ़ा की सनद1 हो गई

1 प्रमाण

 

क़यामत में ‘मुज़्तर’ किसी से मिले

कहाँ जा के घेरा है हद हो गई

 

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Additional Information
Book Type

Paperback

Publisher Rekhta Publications
Language Hindi
ISBN 978-8193960936
Pages 310
Publishing Year 2018

Gulshan (Hindi)

About Book

प्रस्तुत किताब में प्रसिद्ध उर्दू शाइर मुज़्तर ख़ैराबादी का चुनिन्दा कलाम संकलित है। यह किताब देवनागरी और उर्दू लिपि में प्रकाशित हुई है और पाठकों के बीच ख़ूब पसंद की गई है|

 

About Author

सय्यद इफ़्तिख़ार हुसैन मुज़्तर ख़ैराबादी 1869 में, ज़िला सीतापूर (उत्तर प्रदेश) के मश्हूर क़स्बे ख़ैराबाद के, विद्वानों के घराने में पैदा हुए। शिक्षा-दीक्षा उनकी माँ ने, की जो अरबी, फ़ारसी और उर्दू की विद्वान और शाइ’रा थीं। ‘मुज़्तर’ अपनी शुरू’ की शाइ’री अपनी माँ ही को दिखाते थे, मगर बा’द में ‘अमीर’ मीनाई को उस्ताद बनाया, हालाँकि ये उस्तादी सिर्फ़ एक ग़ज़ल तक सीमित थी। ‘मुज़्तर’ ने टोंक, ग्वालियर, रामपूर, भोपाल और इंदौर के रजवाड़ों और रियासतों में नौकरियाँ कीं। मश्हूर शाइ’र और फ़िल्म-गीतकार जाँ-निसार अख़्तर उनके बेटे थे और फिल्म-कथाकार, गीतकार और शाइ’र जावेद अख़्तर उनके पोते हैं।

 

Read Sample Data

 

फ़ेह्‍‌रिस्त

 

1 असीर-ए-पन्जा-ए-अ’ह्द-ए-शबाब करके मुझे
2 इ’लाज-ए-दर्द-ए-दिल तुमसे मसीहा हो नहीं सकता
3 जुनूँ के जोश में इन्सान रुस्वा हो ही जाता है
4 दम-ए-आख़िर है चश्म-ए-मुन्तज़िर पथराई जाती है
5 न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
6 जफ़ा से वफ़ा मुस्तरद हो गई
7 अपने अ’ह्द-ए-वफ़ा को भूल गए
8 फुर्क़त में दर्द-ए-दिल की दवा हाय क्या करूँ
9 शब-ए-फुर्क़त क़ज़ा मेहमान हो जाती तो अच्छा था
10 जो खींची है तो बढ़िए ये झिझक हर बार कैसी है
11 ये तुम बे-वक़्त कैसे आज आ निकले सबब क्या है
12 इस बात का मलाल नहीं है कि दिल गया
13 जफ़ा की बातें सदा बनाना वफ़ा की बातें कभी न करना
14 न किसी के घर का चराग़ हूँ, न किसी के बाग़ का फूल हूँ
15 दिल ले के हसीनों ने ये दस्तूर निकाला
16 कूचा-ए-जानाँ में जाना हो गया
17 तुम्हारे हिज्रि में हम हर ख़ुशी को ग़म समझते हैं
18 उ’म्रत भर यार ने जफ़ा ही की
19 मह्शर के दिन भी वा’दा-ए-फ़र्दा न हो कहीं
20 उठ के अब आता हूँ मैं तुर्बत से घबराया हुआ
21 दिल ता’ना-ए-दुश्मन से टटोला नहीं जाता
22 माना कि सताओगे सताना भी तो आए
23 वो बेबस हो के मुझको छोड़ना मन्ज़ूर कर बैठे
24 ऐ बुतो! फेर दो ईमाँ मेरा
25 अगर तुम दिल हमारा ले के पछताए तो रहने दो
26 इक पर्दा-नशीं की आरज़ू है
27 रुख़ किसी का नज़र नहीं आता
28 क़यामत भी पामाल देखी गई
29 तजस्सुस में तेरे निकलते रहे
30 दिल ले के ये कहते हो कि अच्छा तो नहीं है
31 लख़्त-ए-दिल खा के ग़म-ए-हिज्र में जीना हो
32 तू क्यों ज़बान दे के मिरी जान फिर गया
33 कहते हैं वो किसी से क्या मत्लब
34 किसी बुत की अदा ने मार डाला
35 वफ़ा क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते
36 ये पास उसी का है कि मैं कुछ नहीं कहता
37 मुख़ालिफ़ है सबा-ए-नामा-बर कुछ और कहती है
38 फ़स्ल-ए-गुल भी तरस के काटी है
39 उठने से हुई है न उठाने से हुई है
40 ये मुझसे पूछते क्या हो कि हाल कैसा है
41 न बुलवाया न आए रोज़ वा’दा करके दिन काटे
42 जुदाई मुझको मारे डालती है
43 मोहब्बत को कहते हो बरती भी थी
44 शाम-ए-ग़म दम लबों प मेरा है
45 ऐ’श के रंग मलालों से दबे जाते हैं
46 मिरे महबूब तुम हो यार तुम हो दिल-रुबा तुम हो
47 ख़त नहीं हैं ये पयाम-ए-मौत हैं आए हुए
48 हाथ पाँवों दोनों निकले काम के
49 न छोड़ा संग-ए-कू-ए-दिल-रुबा सर हो तो ऐसा हो
50 चराग़ क्यों न जले ऐसे हुस्न वालों का

 

 

1

असीर-ए-पन्जा-ए-अ’ह्​द-ए-शबाब1 करके मुझे

कहाँ गया मिरा बचपन ख़राब करके मुझे

1 युवावस्था का क़ैदी

 

किसी के दर्द-ए-मोहब्बत ने उ’म्‍र-भर के लिए

ख़ुदा से मांग लिया इन्तिख़ाब1 करके मुझे

1 चयन

 

ये उनके हुस्न को है सूरत-आफ़रीं1 से गिला

ग़ज़ब में डाल दिया लाजवाब करके मुझे

1 शक्ल देने वाला / ख़ुदा

 

वो पास आने न पाए कि आई मौत की नींद

नसीब1 सो गए मस्‍रूफ़-ए-ख़्वाब2 करके मुझे

1 भाग्य 2 स्वप्न देखने में व्यस्त

 

मिरे गुनाह ज़ियादा हैं या तिरी रहमत

करीम!1 तू ही बता दे हिसाब करके मुझे

1 ख़ुदा / कृपालु

 

मैं उनके पर्दा-ए-बेजा1 से मर गया ‘मुज़्तर’

उन्होंने मार ही डाला हिजाब2 करके मुझे

1 अनुचित पर्दा 2 पर्दा, शर्म


 

2

इ’लाज-ए-दर्द-ए-दिल तुमसे मसीहा1 हो नहीं सकता

तुम अच्छा कर नहीं सकते मैं अच्छा हो नहीं सकता

1 दुख-दर्द मिटाने वाला

 

अ’दू1 को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है

तुम ऐसा कर नहीं सकते तो ऐसा हो नहीं सकता

1 दुश्मन

 

अभी मरते हैं हम जीने का ता’ना1 फिर न देना तुम

ये ता’ना उनको देना जिनसे ऐसा हो नहीं सकता

1 कटाक्ष

 

तुम्हें चाहूँ तुम्हारे चाहने वालों को भी चाहूँ

मिरा दिल फेर दो मुझसे ये झगड़ा हो नहीं सकता

 

दम-ए-आख़िर1 मिरी बालीं प मज्मा’ है हसीनों का

फ़रिश्ता मौत का फिर आए पर्दा हो नहीं सकता

1 अंतिम क्षण

 

न बरतो उनसे अपनायत के तुम बरताव ऐ ‘मुज़्तर’

पराया माल इन बातों से अपना हो नहीं सकता

 


 

3

जुनूँ के जोश में इन्सान रुस्वा हो ही जाता है

गरेबाँ फाड़ने से फ़ाश1 पर्दा हो ही जाता है

1 खुलना

 

मोहब्बत ख़ौफ़-ए-रुस्वाई1 का बाइ’स2 बन ही जाती है

तरीक़-ए-इ’श्क़3 में अपनों से पर्दा हो ही जाता है

1 बदनामी का डर 2 कारण 3 प्यार का दस्तूर

 

जवानी वस्ल की लज़्ज़त प राग़िब1 कर ही देती है

तुम्हें इस बात का ग़म क्यों है ऐसा हो ही जाता है

1 प्ररेति

 

बिगड़ते क्यों हो आपस में शिकायत कर ही लेते हैं

अ’दू1 का तज़्किरा2 दुश्मन का चर्चा हो ही जाता है

1 दुश्मन 2 चर्चा

 

तुम्हारी नर्गिस-ए-बीमार1 अच्छा कर ही देती है

जिसे तुम देख लेते हो वो अच्छा हो ही जाता है

1 मा’शूक़ की आँख

 

अकेला पा के उनको अ’र्ज़-ए-मत्लब1 कर ही लेता हूँ

न चाहूँ तो भी इज़्हार-ए-तमन्ना2 हो ही जाता है

1,2 मन की बात बताना

 

मिरा दा’वा-ए-इ’श्क़1 अग़्यार बातिल2 कर ही देते हैं

जिसे झूटा बना लें यार झूटा हो ही जाता है

1 मोहब्बत का दा’वा 2 झूठा

 

बुतान-ए-बेवफ़ा1 ‘मुज़्तर’ दिल-ओ-दीं2 ले ही लेते हैं

तुम्हीं पर कुछ नहीं मौक़ूफ़3 ऐसा हो ही जाता है

1 बेवफ़ा मा’शूक़ 2 आस्था 3 निर्भर


 

4

दम-ए-आख़िर है चश्म-ए-मुन्तज़िर1 पथराई जाती है

वो आ चुकते नहीं और मौत की नींद आई जाती है

1 राह तकती आँखें

 

मिरी फ़र्याद-ओ-ज़ारी1 से फ़लक2 का दिल लरज़ता है

मिरी आवारागर्दी से ज़मीं चकराई जाती है

1 विलाप 2 आस्मान

 

न रो इतना पराए वास्ते ऐ दीदा-ए-गिर्यां1

किसी का कुछ नहीं जाता तिरी बीनाई2 जाती है

1 रोती आँख 2 आँखों की रौशनी

 

हमारी तीरा-रोज़ी1 का ज़माना ख़त्म होता है

रुख़-ए-रौशन2 से वो ज़ुल्फ़-ए-सियह सरकाई जाती है

1 दुर्भाग्य 2 चमकता चेहरा

 

तिरे जाने का भी ऐ जान-ए-पुर-ग़म1 वक़्त आता है

तिरी उम्मीद भी निकलेगी क्यों घबराई जाती है

1 दुख भरी जान

 

वो शायद हमसे अब तर्क-ए-तअ’ल्लुक़1 करने वाले हैं

हमारे दिल प कुछ अफ़्सुर्दगी2 सी छाई जाती है

1 संबंध तोड़ना 2 निराशा

 

जवानी कर चुकी है उनको राज़ी वस्ल पर ‘मुज़्तर’

ख़ुदा वो दिन करे निय्यत तो कुछ-कुछ पाई जाती है


 

5

न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ

जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार1 हूँ*

1 मुट्ठी भर  धूल

 

मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा1 मुझे आप सुनके करेंगे क्या

मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखी की पुकार हूँ

1 शक्ति देने वाला गीत

 

मिरा रंग-रूप बिगड़ गया मिरा बख़्त1 मुझसे बिछड़ गया

जो चमन ख़िज़ाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार2 हूँ

1 भाग्य 2 बसंत ऋतु

 

पय-ए-फ़ातिहा1 कोई आए क्यों कोई चार फूल चढ़ाए क्यों

कोई शम्अ’ ला के जलाए क्यों कि मैं बेकसी का मज़ार हूँ

1 मंत्रोच्चार के लिए

 

न मैं ‘मुज़्तर’ उनका हबीब1 हूँ, न मैं ‘मुज़्तर’ उनका रक़ीब2 हूँ

जो पलट गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ

1 दोस्त 2 प्रतिद्वन्द्वी

 

 

* किसी काम में जो न आ सकी मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ (ये मिस्‍रा’ यूँ भी पढ़ा जाता है)


 

6

जफ़ा1 से वफ़ा मुस्तरद2 हो गई

यहाँ हम भी क़ाइल3 हैं हद हो गई

1 अत्याचार 2 लौटा देना, रद्द कर देना 3 मान लेना

 

निगाहों में फिरती है आठों पहर

क़यामत भी ज़ालिम का क़द हो गई

 

अज़ल1 में जो इक लाग तुझसे हुई

वो आख़िर को दाग़-ए-अबद2 हो गई

1 सृष्टि का आरंभ 2 हमेशा रहने वाला दाग़

 

मिरी इन्तिहा-ए-वफ़ा कुछ न पूछ

जफ़ा देख जो ला-तअ’द1 हो गई

1 असंख्य

 

मुकरते हो अल्लाह के सामने

अब ऐसा भी क्या झूठ हद हो गई

 

तअ’ल्लुक़ जो पल्टा तो झगड़ा बना

मोहब्बत जो बदली तो कद1 हो गई

1 दुश्मनी

 

वो आँखों की हद्द-ए-नज़र2 कब बने

नज़र ख़ुद वहाँ जा के हद हो गई

1 देख सकने की हद

 

जफ़ा से उन्होंने दिया दिल प दाग़

मुकम्मल वफ़ा की सनद1 हो गई

1 प्रमाण

 

क़यामत में ‘मुज़्तर’ किसी से मिले

कहाँ जा के घेरा है हद हो गई