मोहब्बत बोझ बन कर ही भले रहती हो काँधों पर
मगर यह बोझ हटता है तो काँधें टूट जाते हैं
बहुत दिन मस्लिहत की क़ैद में रहते नहीं जज़्बे
मोहब्बत जब सदा देती है पिंजरे टूट जाते हैं
मस्लिहत: लाभ-हानि सोचकर निर्णय लेना
*
घरों का हुस्न हँसते-बोलते रिश्तों से क़ायम है
अगर पत्ते न हो तो टहनियांँ अच्छी नहीं लगतीं
*
तेरी हर बात हंँसकर मान लेना
मोहब्बत है ये समझौता नहीं है
*
अ'जीब लोग थे सूरज की आरजू लेकर
तमाम उम्र भटकते रहे अंधेरे में
*
मोहब्बत को वफ़ा को जानता हूंँ
ये सब कपड़े मेरे पहने हुए हैं
इसी को तो हवस कहती है दुनिया
कि तन भीगे हैं मन सूखे हुए हैं
*
ये ख़्वाहिशों का असर है तमाम दुनिया पर
हर आदमी जो अधूरा दिखाई देता है
*
पथरीले रास्तों पर सफ़र कर रहे हैं हम
रिश्तों की नर्म घास कहीं छोड़ आए हैं
*
ये देखना है किस घड़ी दफ़नाया जाऊंँगा
मुझको मरे हुए तो कई साल हो गए
तुम सारी उम्र कैसे सँभालोगे नफ़रतें
हम तो ज़रा सी देर में बेहाल हो गए
शाम के 7:00 बजे की बात का वक्त है कि जिस शख़्स के मोबाइल पर घंटी बजती है वो लपक कर उसे उठाता है, किसका फोन है ये देखता है और फिर मुस्कुराता है । खिचड़ी दाढ़ी, चौड़े माथे और मोटे प्रेम का चश्मा लगाए इस इंसान के मोबाइल पर अब रात 12:00 और कभी-कभी तो 1 या 2 बजे तक ये मोबाइल पर घंटियाँ बजने का सिलसिला यूंँ ही चलता रहेगा। फोन पर बातचीत कुछ यूँ शुरु होती है 'कैसे हो बरखुरदार? खैरियत!! आज नया क्या कहा ?और फिर ये गुफ़्तगू चलती रहती है। किसी को शायरी की बारीकियां समझाई जा रही हैं किसी को लफ़्जों को बरतने का तरीका सिखाया जा रहा है ।ये गुफ़्तुगू एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी और उसके बाद चौथी कॉल पर इसी तरह चलती रहती है। इन चार पांच घंटों में यह शख़्स मुकम्मल तौर पर शायरी में डूबा रहता है। घर वालों को वर्षों से चल रहे इस सिलसिले का पता है और उन्हें ये भी पता है कि इस गुफ़्तगू से इस शख़्स को रूहानी सुकून मिलता है, खुशी मिलती है आराम मिलता है ।
कौन है यह शख़्स? इस दुनिया का तो नहीं लगता। आज के दौर में जब हर इंसान सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने पर ही फोकस चाहता है अपनी ही बात करता है और अपनी ही बात सुनना चाहता है, ये इंसान दूसरों को इत्मीनान से न सिर्फ़ सुन रहा है बल्कि उन्हें अपनी बेशकीमती राय से नवाज़ता भी है। पूछने पर मुस्कुराते हुए कहता है कि मैं उन पौधों को खाद और पानी दे रहा हूं जो आगे चलकर एक विशालकाय पेड़ बनेंगे। ऐसे पेड़ जो फूल और फलों से लदे हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करेंगे। जिनकी छाया में बैठकर लोगों को अच्छा लगेगा। मैं तो हमेशा नहीं रहूंगा मेरे बाद ये हरे भरे पेड़ ही मेरी पहचान बनेंगे। ऐसे ही गिने-चुने इंसानों की वजह से ये दुनिया अभी तक खूबसूरत बनी हुई है। ऐसे इंसान जो अपने वजूद की परवाह किए बिना दूसरों का मुस्तकबिल सँवारने में लगे हैं तालियों के हक़दार हैं। ये नींव के वो पत्थर हैं जिन पर आने वाले कल की खूबसूरत इमारत तामीर होने वाली है।
किसे बताऊंँ कि अंदर से तोड़ देता है
कभी-कभार ये बाहर का रख रखाव मुझे
*
ये ज़िंदगी भी अ'जब इम्तिहान लेती है
जिसे मिज़ाज न चाहे उसी के साथ रहो
*
बहुत से राज भी आएंगे आ'ली-जाह फिर बाहर
ख़फ़ा होकर हवेली से अगर नौकर निकल आए
*
तुम्हारे नाम के आंँसू है मेरी आंँखों में
ये बात भूल न जाना मुझे रुलाते हुए
*
पुराने ज़ख़्म कहीं फिर न मुस्कुरा उठ्ठें
मैं डर रहा हूं तअ'ल्लुक बहाल करते हुए
*
अदाकारी हर इक इंसान के बस की नहीं होती
ज़ियादा देर तक हंँसने में दुश्वारी भी होती है
मोहब्बत फूल देगी आपको तब होगा अंदाज़ा
कि दुनिया में कोई शय इस क़दर भारी भी होती है
*
तुम से बिछड़े तो कोई ख़्वाब न देखा हमने
रख लिया आंँखों का उस दिन से ही रोज़ा हमने
क्या हिमाक़त है कि बस एक अना की ख़ातिर
कर लिया तुमसे बिछड़ना भी गवारा हमने
*
धूल से महफ़ूज़ रखना था मुझे तेरा बदन
इसलिए मुझको तेरी पोशाक होना ही पड़ा
आज हम ऐसे ही एक शायर की किताब खोल कर बैठे हैं जो शायरी जीता है, ओड़ता है बिछाता हैऔर अपना इल्म दूसरों में बाँटता है ।
अफ़सोस आज बाजार में पैकिंग पर सारा ध्यान दिया जाता है ,पैक की हुई चीज़ पर नहीं। लुभावने चमकीले पैकेट में जो कुछ भी बिक रहा है उसकी गुणवत्ता या क्वालिटी कैसी है यह सोचने का वक्त खरीददार के पास नहीं है ।इसीलिए असली हीरे धूल खा रहे हैं और नकली शोरूम में महंगे दाम बिक रहे हैं।
बाजार रोज़मर्रा की चीजों पर ही नहीं अदब पर भी कब्जा किए बैठा है ।आज शायर की उसकी शायरी की वजह से नहीं उसके इंस्टाग्राम, यूट्यूब या फेसबुक पर उसकी फॉलोअर्स की संख्या की वजह से पूछ है। तभी फालोअर की संख्या बढ़ाने के लिए स्टेज पर नौटंकी का सहारा लिया जाता है शायरी अब परफॉर्मिंग आर्ट हो चुकी है ।
ये बहस का विषय है इसलिए इस बात को यहीं छोड़ कर हम हमारे आज के शायर जनाब वसीम नादिर (वसीम अहमद खाँ )साहब की किताब रंगो की मनमानी पर आते हैं जिसे रेख़्ता बुक्स ने प्रकाशित किया है ।
तुझे भुलाने को सीखा था शाइ'री का हुनर
हर एक शे'र में अब तुझको याद करते हैं
तेरा ख़याल सलामत तो क्या है तन्हाई
चराग़ वाले कहीं तीरगी से डरते हैं
*
मैं भटकता ही रहा भूख के सहराओं में
मेरे कमरे में सजा मेरा हुनर रक्खा रहा
*
बीती रूतों का एल्बम लेकर बैठ गए
हम आंँधी में रेशम लेकर बैठ गए
दिल की बातें दुनिया को समझाओगे
तुम भी धूप में शबनम लेकर बैठ गए
*
बिछड़ते ही किसी से हो गया एहसास ये हमको
कि रस्ता किस तरह इक मील का सौ मील होता है
ये ऊंँचे लोग खुल कर मिल नहीं सकते कभी तुमसे
समंदर भी सिमट कर क्या कहीं पर झील होता है
*
लपेट रक्खा है खुद को अना की चादर में
सबब यही है कि अंदर से दाग़-दाग़ हैं हम
*
इतना हुआ कि आप जो सांँसों में बस गए
सांँसो का एहतराम भी करना पड़ा मुझे
इस दिल की रहनुमाई में चलने से ये हुआ
दलदल में ख़्वाहिशों की उतरना पड़ा मुझे
15 जुलाई 1974 को उत्तर प्रदेश के जिले बदाऊं के कस्बे ककराला में जन्मे वसीम साहब को शायरी विरसे में नहीं मिली। घर में उर्दू पढ़ने बोलने का चलन जरूर था, जिसके चलते उन्हें इस शीरीं ज़बान से बेपनाह मोहब्बत हो गयी । उनके बुजुर्ग वहां के जाने माने हक़ीम थे लेकिन उन में से किसी का शायरी से कोई सीधा ताल्लुक़ नहीं था। शायरी वसीम साहब के भीतर कहीं छुपी बैठी थी। लड़कपन से ही उन्हें घर के आस-पास और दूर-दराज़ होने वाले ऑल इण्डिया लेवल के मुशायरों में जाने और वहां सारी-सारी रात बैठ कर शायरी सुनने का शौक़ था। इब्तिदाई तालीम उन्होंने ककराला और बदाऊं में हासिल की।
इसी बीच 1997 में उन्हें सऊदी अरब जाने का मौका मिला। वतन से दूर जा कर वतन की याद आना एक बहुत स्वाभाविक बात है। तन्हाई और उदासी को कम करने के लिहाज़ से उन्होंने बाकायदा रोज डायरी लिखना शुरू किया। इसी लेखन के दौरान यूँ ही अचानक एक दिन उन्होंने ये शेर कहा :' बस्ती तो दूर मुझको वतन छोड़ना पड़ा ,मुझको कहाँ कहाँ मेरे हालात ले गए'। जब उन्होंने इसे दोस्तों को सुनाया तो बहुत दाद मिली। इस शेर के कहने तक उन्हें शायरी के उरूज़ के बारे में कोई इल्म नहीं था लेकिन उन्हें लगने लगा था कि शायरी करने का हुनर उनके अंदर कहीं मौजूद है। जल्द ही सऊदी से वो शायरी के फ़न को अपने दिल में बसाये वापस अपने वतन लौट आये। घर आकर वो बाकायदा शेर कहने लगे। शायरी के लिए बेहद जरूरी उरूज़ की तालीम के लिए उन्हें अपने आस-पास जब कोई उस्ताद नहीं मिला तो उन्होंने किताबों का सहारा लिया और उन्हें रात-दिन पढ़ पढ़ कर ग़ज़ल का व्याकरण सीखा। .
ठहर गया मेरी आंँखों में दर्द का मौसम
तेरा ख़याल मुझे जाने कब रुलाएगा
वो जिनके घर में किताबों को खा गई दीमक
उन्हें बताओ कहांँ से शऊ'र आएगा
*
ग़म तो हर हाल में आंँखों से छलक जाएगा
लाश सीने में समंदर भी छुपाने से रहा
रूठना है तो बड़े शौक़ से तू रूठ मगर
ज़िंदगी मैं तुझे इस बार मनाने से रहा
*
मेरा वजूद है क़ायम इसी तअ'ल्लुक से
हवाएंँ उसकी हैं और बादबान मेरा है
अभी तो पर भी नहीं खोले उसने उड़ने को
अभी से कहने लगा आसमान मेरा है
*
सितम ये है कि मैं जिनके लिए मसरूफ़ रहता हूंँ
उन्हीं से बात करने की मुझे फ़ुर्सत नहीं मिलती
*
ऐ ज़िंदगी ये सितम है कि तेरे होते हुए
ज़माना आने लगा मेरी ताज़ियत के लिए
ताज़ियत: शोक प्रकट करना
*
इतना भी बेकार न समझो याद-ए-माज़ी को नादिर
ये तिनका ही एक न इक दिन दरिया पार कराएगा
*
तेरे बग़ैर भी कहती है मुझसे जीने को
ये ज़िंदगी भी सही मशवरा नहीं देती
बदाऊं से कारोबार के सिलसिले में वसीम साहब का दिल्ली जाना हुआ। दिल्ली में जल्द ही उनके बहुत से शायर दोस्त बन गए जिनके साथ वहां होने वाली अदबी बैठकों और नशिस्तों में आना जाना होने लगा। सीनियर शायरों से गुफ़तगू का सिलसिला जारी हो गया। ऐसी ही अदबी महफिलों में उनकी मुलाक़ात जनाब इक़बाल अशर से हुई जो जल्द ही बेतकल्लुफ़ दोस्ती में तब्दील हो गयी। हालाँकि इक़बाल अशर साहब वसीम साहब से उम्र में बड़े हैं लेकिन जब ख़्यालात मिलने लगें तो उम्र दोस्ती के बीच नहीं आती। हफ्ते में चार पाँच दिन दोनों रात आठ बजे मिलते और किसी चाय खाने में चाय की चुस्कियां लेते शायरी पर बातचीत करते हुए रात के एक या दो बजा देते। ऐसी ही बेतकल्लुफ़ दोस्ती वसीम साहब की जनाब हसीब सोज़ साहब से भी है। इन सीनियर शायरों से हुई बातचीत से वसीम साहब के सामने शायरी के खूबसूरत मंज़र खुलने लगे। हालाँकि वसीम साहब ने इन शायरों को कॉपी नहीं किया बल्कि उनसे अपने शेर कहने और लफ़्ज़ों को सलीक़े से बरतने के इल्म में इज़ाफ़ा किया।
वसीम साहब को शेर में बरती गयी ज़बान बहुत अपील करती है। जनाब बशीर बद्र और नासिर काज़मी साहब उनके पसंदीदा शायर इसीलिए हैं। पानी की तरह बहती ज़बान और आसान लफ़्ज़ों में मफ़हूम को लपेटे शेर उनको बेहद पसंद हैं। आसान लफ़्ज़ों में गहरी बात कह देने का फ़न बहुत मुश्किल से हासिल होता है. इसके लिए बड़ी मश्क़ करनी पड़ती है। अपने लिखे के प्रति कड़ा रुख अपनाना पड़ता है। ज़बान पसंद न आने पर दस में से अपनी आठ ग़ज़लें खारिज़ कर देने से वसीम साहब को जरा भी गुरेज़ नहीं होता। उनका मानना है कि अगर आप अपने कहे हर शेर से मोहब्बत करेंगे तो बेहतर शायर नहीं बन सकते। यही बात वो हर उस नौजवान को समझाते हैं जो उनसे ग़ज़ल कहने का फ़न सीखता है। शायरी में मफ़हूम तो है ही लेकिन सारा हुस्न ज़बान का है। वसीम साहब के देश विदेश में फैले 35-40 शागिर्द एक दिन अपने साथ साथ अपने उस्ताद का नाम तो रौशन करेंगे ही, उर्दू अदब को अपनी शायरी से मालामाल भी करेंगे। यहाँ उनके सभी शागिर्दों के नाम देना तो मुमकिन नहीं लेकिन बानगी के तौर पर आप जनाब यासिर ईमान , बालमोहन पांडेय, सलमान सईद और सरमत खान जैसे युवा शायरों को यू-ट्यूब पर अपना कलाम पढ़ते हुए सुनिए।
बहुत तेजाब फैला है गली कूचों में नफ़रत का
मोहब्बत फिर भी अपने काम से बाहर निकलती है
*
लाख तरक्की कर लें बच्चे फिर भी फ़िक्रें रहती हैं
बुनियादों पर दीवारों का बोझ हमेशा रहता है
बाहर निकलूँ तो अन्जानी भीड़ डराती है दिल को
घर के अंदर सन्नाटों का शोर सताता रहता है
*
वो अगर ख्वाब है आंँखों में रहे बेहतर है
और हक़ीक़त है तो आंँखों से निकल कर आए
हमको हालात ने शर्मिंदा किया किस हद तक
बारहा अपने ही घर भेस बदल कर आए
*
दुनिया तेरी लिखाई समझ में न आ सकी
अनपढ़ रहे हम इतनी पढ़ाई के बाद भी
*
गिरवी रखे हैं कान ज़रूरत की सेफ़ में
अब हम बहल न पाएंगे लफ़्ज़ों की बीन से
*
तुम्हारे बा'द अब जिसका भी जी चाहे मुझे रख ले
ज़नाज़ा अपनी मर्जी से कहां कांँधा बदलता है
*
उस सम्त जा रहे हैं जिधर ज़िंदगी नहीं
आंखें खुली हुई है मगर सो रहे हैं लोग
*
किसी ने देखा नहीं आस पास थी जन्नत
थे आस्माँ की तरफ़ हाथ सब पसारे हुए
*
आख़िर मैंने ख़ून से अपने वो तस्वीर मुकम्मल की
कब तक बेबस बैठा रहता रंगों की मनमानी पर
आज के इस दौर में जब हर कोई ज्यादा से ज्यादा लाइक्स या व्यूज बटोरने के फेर में लगा है वसीम साहब सोशल मिडिया पर उतने एक्टिव नहीं हैं जितने उनके हमउम्र दूसरे शायर हैं। ये बात उनसे पूछने पर उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा कि 'कुछ शायर बहुत प्रेक्टिकल होते हैं , अपने आप को बड़ा मार्केटिंग का आदमी बना लेते हैं हालाँकि इसमें कोई बुराई भी नहीं है ,लेकिन कुछ फ़नकारों में बड़ी बेज़ारी होती है अपने आप में ग़ुम रहने की, जैसा हो रहा है चलने दो वाली ,शायद मैं भी उसी खाने का आदमी हूँ।' उनकी ये बात सही भी है सोशल मिडिया पर बहुत एक्टिव रहने से या मुशायरों के मंच से भीड़ की वाह वाह पाने से आप बड़े शायर नहीं बनते अलबत्ता लोकप्रिय जरूर हो जाते हैं लेकिन ये लोकप्रियता बहुत थोड़े वक़्त तक साथ देती है। शायर बड़ा अपनी शायरी की वजह से कहलाता है लोकप्रियता की वजह से नहीं। लम्बे समय तक आप नहीं आपकी शायरी ज़िन्दा रहती है। वसीम साहब कहते हैं कि 'शायरी वो बड़ी शायरी है जो कागज़ पर पढ़ने वाले से दाद लेले।' वसीम साहब का मानना है कि 'ये कहना कि अब पहले जैसी शायरी नहीं होती ग़लत है।' ये जरूर है कि अब शायर पहले जैसी मेहनत नहीं करते और रातों रातों रात मशहूर होना चाहते हैं। ये सूरते हालात सिर्फ शायरी में ही नहीं बल्कि ज़िन्दगी में हर कहीं है। एक अजीब सी बेचैनी और घुटन में लोग जी रहे हैं किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है धीरे धीरे इंसान छोटे छोटे जज़ीरों में तब्दील होता जा रहा है अपने आप में सिमटा हुआ। उन्हें ज़माने और इंसान में होने वाले इस बदलाव से गिला नहीं है वो जनाब शौकत साहब के इस शेर से दिल को तसल्ली दे लेते हैं : 'शौकत हमारे साथ अजब हादसा हुआ , हम रह गए हमारा ज़माना चला गया।'
वसीम साहब का पहला ग़ज़ल संग्रह 'शाम से पहले' सं 2015 में उर्दू रस्मुलख़त में मंज़र-ऐ-आम पर आया। इस किताब को बेहद मक़बूलियत मिली और ये अदबी हलक़ों में चर्चित भी रही। इसे उर्दू अकादमी देहली ने सम्मानित भी किया।
हिंदी में 'रंगो की मनमानी' 2021 में पाठकों के हाथों में पहुंची। इस किताब का इज़रा आगामी 26 मार्च 2022 को बदाऊं में होना है। मेरी आप सभी पाठकों से गुज़ारिश है कि खूबसूरत शायरी और किताब के इज़रे की अग्रिम बधाई वसीम साहब को उनके मोबाइल न. 8851953082 पर जरूर दें।
आखिर में पेश हैं इसी किताब से कुछ और शेर :-
सब अपने नाम की तख़्ती लगाए बैठे हैं
पता सभी को है ये सल्तनत ख़ुदा की है
*
जिसे चिराग़ मिले हों जले जलाए हुए
वो रोशनी का ज़रा भी अदब करेगा क्यों
*
कितने दरवाजों पे झुकता है तुम्हें क्या मालूम
वो जो इक शख़्स किसी घर का बड़ा होता है
उसने ता'रीफ़ के पत्थर से किया है जख़्मी
ये निशाना बड़ी मुश्किल से ख़ता होता है
ख़ता: चूकना
*
बस एक गुज़रा तअ'ल्लुक़ निभाने बैठे हैं
वरना दोनों के कप में ज़रा भी चाय नहीं
*
क़ैद- ख़ाने में यही सोच के वापस आया
मुझको मालूम है तन्हा पड़ी ज़ंजीर का दुख
*
थकन से चूर होकर गिर गया बिस्तर पे मैं अपने
मगर अब तक तेरी तस्वीर से बाज़ू नहीं निकले
*
धुएँ से शक्ल बनाना उदास लम्हों की
नए ज़माने तेरी सिगरेटों ने छोड़ दिया
*
सुब्ह तक सरगोशियों का रक़्स कमरे में रहा
रात एल्बम से कई चेहरे निकल कर आ गए
*
अब इससे बढ़ के मोहब्बत किसी को क्या देगी
किसी की आंँख का आंँसू किसी की आंँख में है
-नीरज गोस्वामी