बाज़ारों में फ़िरते फ़िरते दिन भर बीत गया
काश हमारा भी घर होता, घर जाते हम भी
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तुम इक मर्तबा क्या दिखाई दिए
मिरा काम ही देखना हो गया
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सड़क पे सोए हुए आदमी को सोने दो
वो ख्वाब में तो पहुँच जायेगा बसेरे तक
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बसर की इस तरह दुनिया में गोया
गुज़ारी जेल में चक्की चला के
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मैंने ये सोच के रोका नहीं जाने से उसे
बाद में भी यही होगा तो अभी में क्या है
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और आलूदा मत करो दामन
आंसुओं रूह में उतर जाओ
आलूदा =प्रदूषित
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किया करते थे बातें ज़िन्दगी भर साथ देने की
मगर ये हौसला हम में जुदा होने से पहले था
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सिर्फ उस के होंठ कागज़ पर बना देता हूँ मैं
ख़ुद बना लेती हैं होंठो पर हंसी अपनी जगह
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गुज़ारे हैं हज़ारों साल हमने
इसी दो चार दिन की ज़िन्दगी में
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था वादा शाम का मगर आये वो देर रात
मैं भी किवाड़ खोलने फ़ौरन नहीं गया
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लोग सदमों से मर नहीं जाते
सामने की मिसाल है मेरी
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अच्छा खासा बैठे बैठे गुम हो जाता हूँ
अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता तुम हो जाता हूँ
मेरी तो ये बात समझ में आती नहीं , आप ही बताइये कि शराब और शायर के बीच क्या नाता है ?हमने ग़ालिब से लेकर फ़िराक़ ,जिगर ,मज़ाज़ जॉन एलिया आदि बहुत से ऐसे शायरों के बारे में पढ़ा है कि वो शराब के घनघोर प्रेमी थे ,उसी में डूबे रहते थे वगैरह !! शायर और शराब के रिश्ते को बहुत बढ़ा चढ़ा कर लिखा गया है जबकि शराब पीने का चलन आदि काल से चलता आ रहा है। हर तबके और वर्ग के लोग इस की गिरफ्त में रहे, रहते हैं और रहते रहेंगे। दरअसल जिसका नाम होता है वो ही बदनाम भी जल्दी होता है वर्ना आम आदमी अगर शराब में गर्क हुआ पड़ा है तो कौन उसकी परवाह करता है ? शराब दअसल इंसान को उस आभासी दुनिया में ले जाती है जिसकी वो कल्पना करता है -चाहे थोड़ी देर को ही सही। इसके नशे में गिरफ्त इंसान को अपने आप पास फूल खिलते नज़र आते हैं जिन पर रंगीन तितलियाँ रक़्स करती है, खुशबू भरी ठंडी हवाएं चलती हैं दूर बर्फ से ढके पहाड़ नज़र आते हैं ,झरने गीत गाते दिखाई देते हैं परिंदों का समूहगान सुनाई देता है हर इंसान खूबसूरत और खुश दिखाई देता है -इस दुनिया को देख कर शराबी सोचता है कि अगर फिरदौस-ऐ -ज़मीनस्तों , हमीनस्तों हमीनस्त चाहे हकीकत में वो किसी नाली में ही क्यों न गिरा हो।
कार-ऐ-दुनिया में उलझने से हमें क्या मिलता
हम तिरी याद में बेकार बहुत अच्छे हैं
कार-ऐ-दुनिया =दुनिया के काम
सिर्फ नाकारा हैं आवारा नहीं हैं हर्गिज़
तेरी ज़ुल्फ़ों के गिरफ़्तार बहुत अच्छे हैं
हद से गुज़रेगा अँधेरा तो सवेरा होगा
हाल अब्तर सही आसार बहुत अच्छे हैं
अब्तर =ख़राब
इस से पहले कि मेरे अज़ीज़ और बेहतरीन शायर जनाब के पी अनमोल साहब हँसते हुए कहें कि नीरज भाई आप भूमिका में क्यों बोर कर रहे हो तो मैं माज़रत के साथ अर्ज़ कर दूँ कि हमारे आज के शायर का शराब के साथ गहरा तअल्लुक है। दोनों शायद एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते। बार बार छोड़ देने के बावजूद इस अंगूर की बेटी का हुस्न उन्हें अपने पास खींच लेता है।इसके चलते मैंने सोचा कि चलो शराब से ही बात शुरू की जाय। हमारे आज के शायर हैं जनाब अनवर हुसैन जो शायरी की दुनिया में अनवर शुऊर के नाम से जाने जाते हैं। अनवर साहब भारत के मध्यप्रदेश राज्य के फर्रुखाबाद जिले के एक छोटे से गाँव सियोनी में अशफ़ाक़ हुसैन साहब के यहाँ 11 अप्रेल 1943 को पैदा हुए। प्रारंभिक शिक्षा वहीँ से ली।देश के विभाजन के बाद उनका परिवार कराची चला गया। वो जब पांचवी जमात में पढ़ते थे तभी उनकी माँ का देहांत हो गया ,पिता के अत्याचारों से तंग आ कर वो स्कूल और घर से भाग गए। पढाई से तौबा करली। आप ये न समझे कि वो पढ़े लिखे नहीं हैं , ये जरूर है की स्कूल से तालीम उन्होंने भले ही हासिल न की हो लेकिन दुनिया से मिली ठोकरों और घुमक्कड़ी से उन्होंने बहुत सीखा और फिर उसके बाद अपने दिलचस्पी के विषयों पर खूब पढ़ा। आज हम उनकी किताब "अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता " की बात करेंगे।
पहले सूली पे चढ़ाते हैं मसीहाओं को
बाद में सोग मनाते हैं मनाने वाले
मेरी बातों के मआ'नी भी समझते ऐ काश
मेरी आवाज़ से आवाज़ मिलाने वाले
नाम देते हैं मुझे आज खराबाती का
इस खराबे की तरफ खींच के लाने वाले
खराबाती-शराबी, खराबे - वीराना
अनवर मानते हैं कि तालीम हासिल करना बहुत जरुरी चीज है और इस बात का अफ़सोस उन्हें आज तक भी है लेकिन अब जो हो गया सो गया। ज़िन्दगी में भटकते भटकते आखिर उन्होंने उर्दू के सबसे ज्यादा छपने वाले पर्चे "सबरंग डाइजेस्ट " में मुलाज़मत की। उसी दौरान उनकी दोस्ती जॉन एलिया से हो गयी। जॉन साहब अपनी एक किताब का पेश लफ्ज़ या दीबाचा या प्रस्तावना लिखवाने सबरंग डाइजेस्ट के दफ्तर आते जहाँ वो बोलते और अनवर साहब उसे लिखते। उर्दू नस्र का एक बेहतरीन नमूना यूँ लिखा गया था। जॉन से उनकी दोस्ती और कुछ उनकी अपनी तबियत ने अनवर को शायर बना दिया। उनकी शायरी में किसी और शायर की शायरी का अक्स नहीं झलकता। उनका अपना स्टाइल है जो सुनने पढ़ने वालों को बहुत आकर्षित करता है।"सबरंग" ने उन्हें उड़ने के लिए आसमान दिया।
कहीं दिखाई दिए एक दूसरे को हम
तो मुंह बिगाड़ लिए रंजिशें ही ऐसी थीं
बहुत इरादा किया कोई काम करने का
मगर अमल न हुआ उलझने ही ऐसी थीं
बुतों के सामने मेरी ज़बान क्या खुलती
खुदा मुआफ़ करे ख्वाहिशें ही ऐसी थीं
लिखने का शौक उन्हें बचपन से ही था। महज़ 11 साल की उम्र में उन्होंने कवितायेँ लिखनी शुरू की जो कराची से लेकर दिल्ली तक की बच्चों की पत्रिकाओं और अख़बारों में प्रकाशित होने लगीं। "सबरंग" में सब एडिटर बनने से पहले उन्होंने 1964 में अपनी मुलाजमत की शुरुआत अंजुमन तरक्की-ऐ-उर्दू से की। 1970 में उन्होंने जो सबरंग का दामन पकड़ा तो फिर 30 साल बाद सन 2000 में छोड़ा। इन तीस सालों में उनकी पहचान पाकिस्तान के बेहद लोकप्रिय शायरों में की जाने लगीं। अनवर आजकल रोजाना की घटनाओं पर पाकिस्तान के नंबर 1 अखबार 'जंग' में नियमित रूप से कतआ लिखते हैं जिसे लाखों लोग रोज नियम से पढ़ते हैं। कतआत ने उनकी लोकप्रियता में चार चाँद लगा दिए लेकिन वो खुद को मूल रूप से एक ग़ज़ल कार ही समझते हैं।
तमाम दिन की गुलामी के बाद दफ़्तर से
किसी बहिश्त में जाता हूँ घर नहीं जाता
सता रही है मुझे ज़िन्दगी बहुत लेकिन
कोई किसी के सताने से मर नहीं जाता
ज़ियादा वक्त टहलते हुए गुज़रता है
कफ़स में भी मेरा शौक-ऐ-सफर नहीं जाता
अनवर साहब की ज़िन्दगी बहुत उतार चढ़ाव वाली रही। बड़ी मुश्किल से गुज़ारा होता था। एक तिमंज़िला इमारत पे बनी छोटी सी कोठरी में उनका ठिकाना रहा जिसमें बमुश्किल घुस के वो देर रात आने के बाद सोया करते थे। बलानोशी के चलते उन्होंने एक काबुली से पैसा उधार लिया और चुका नहीं पाए लिहाज़ा सूद-दर-सूद के हिसाब से अस्ल रकम में कई गुना इज़ाफ़ा हो गया। सूद-खोर ने जब धमकाना शुरू किया तो उन्होंने 'सबरंग' के एडिटर जनाब मुश्फ़िक ख्वाज़ा साहब से मदद की गुहार की। ख्वाजा साहब जो अनवर साहब की पीने की आदत से वाकिफ थे ने उन्हें इस शर्त पर क़र्ज़ अदाई के लिए पैसा देना मंज़ूर किया कि वो शराब छोड़ देंगे। अनवर मान गए , उनकी हरकतों से लगने लगा कि उन्होंने शराब से तौबा कर ली है लेकिन चंद दिन ही गुज़रे कि जॉन एलिया घबराये हुए सबरंग के दफ्तर आये और ख्वाजा साहब से कहा कि अनवर को बुरी तरह नशे की हालत में पोलिस पकड़ के ले गयी है और छोड़ने के 50 रु मांग रही है। ख्वाजा साहब ने सर पकड़ लिया - और करते भी क्या। अनवर ने शायद अपने बारे में जो ग़ज़ल कही उसके ये शेर देखें :
मुझसे सरज़द होते रहते हैं गुनाह
आदमी हूँ क्यों कहूं अच्छा हूँ मैं
बीट कर जाती है चिड़िया टाट पर
अज़मत-ए- आदम का आईना हूँ मैं
अज़मत-ए- आदम =इंसान की महानता
मुझ से पूछो हुर्मत-ए-काबा कोई
मस्जिदों में चोरियां करता हूँ मैं
मैं छुपाता हूँ बरहना ख्वाहिशें
वो समझती है कि शर्मीला हूँ मैं
बरहना = नग्न
ख्वाजा साहब लिखते हैं कि "शुऊर साहब की शायरी को किसी दीबाचे याने तआरुफ़ की ज़रूरत नहीं है। अबतक उर्दू ग़ज़ल के जितने सांचे और जितने रंग मिलते हैं शुऊर की ग़ज़ल उन सब से अलग है। इसकी एक अपनी फ़िज़ा है एक अपना मिज़ाज़ है यहाँ तक कि ज़खीरा-इ-अलफ़ाज़ (शब्द भण्डार )भी आम ग़ज़लों में इस्तेमाल होने वाले अल्फ़ाज़ से अलग है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं की शुऊर की ग़ज़ल हमारी शेरी रिवायती से अलग है। अपनी शेरी रिवायत से जितनी वाक़फ़ियत शुऊर को है उतनी कम शायरों को होगी लेकिन शुऊर ने बने बनाये सांचो पर निर्भर न रहते हुए और अपनी शेरी रिवायतों से तालमेल बिठाते हुए एक अलग राह निकाली है और एक अलग लहज़े को पहचान दी है जिससे नयी ग़ज़ल के फैलाव की सम्भावना का अंदाज़ा होता है। "
तबाह सोच-समझ कर नहीं हुआ जाता
जो दिल लगाते हैं फर्ज़ाने थोड़ी होते हैं
फर्ज़ाने =समझदार
जो आते हैं मिलने तेरे हवाले से
नए तो होते हैं अनजाने थोड़ी होते हैं
हमेशा हाथ में रखते हैं फूल उनके लिए
किसी को भेज के मंगवाने थोड़ी होते हैं
आज शादीशुदा और अपने अपने घरों में खुश 3 बेटियों और एक बेटे के पिता शुऊर साहब कराची के पॉश इलाके में बने गुलशन-ऐ-इक़बाल बिल्डिंग में बने अपने अपार्टमेंट में आराम और सुकून से रहते हैं जहाँ से कराची का सर्कुलर रेलवे स्टेशन और अलादीन अम्यूजमेंट पार्क साफ़ दिखाई देता है। वो अपने अपार्टमेंट की बालकनी में बैठ कर लगातार कुछ न कुछ पढ़ते रहते हैं। उनका मानना है कि लेखक को साहित्य की हर विधा पर पढ़ते रहना चाहिए। उपन्यास हो, कहानियां हों, ग़ज़लें हों, नज़्में हों, यात्रा वृत्तान्त हो , दर्शन हो या जीवनियां हों। वो मुस्कुराते हुए वो कहते हैं कि आजकल कहानीकार सिर्फ कहानियां पढता है उपन्यासकार सिर्फ उपन्यास ग़ज़लकार सिर्फ ग़ज़लें इतना ही नहीं हालात इतने ख़राब हैं कि अब तो शायर सिर्फ अपनी ही शायरी पढता है और फिक्शन लेखक सिर्फ अपना लिखा फिक्शन। वो कहते हैं कि मुझे जो भी थोड़ी बहुत पहचान मिली है वो सिर्फ शायरी की बदौलत मिली है।
दिल जुर्म-ऐ-मोहब्बत से कभी रह न सका बाज़
हालाँकि बहुत बार सज़ा पाए हुए था
हम चाहते थे कोई सुने बात हमारी
ये शौक हमें घर से निकलवाए हुए था
होने न दिया खुद पे मुसल्लत उसे मैंने
जिस शख़्स को जी जान से अपनाए हुए था
मुसल्लत =छा जाना
"अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता " शायद हिंदी में अनवर साहब की शायरी की एक मात्र किताब है जिसे रेख़्ता बुक्स ने प्रकाशित किया है। पाकिस्तान सरकार की और से अल्लामा इक़बाल सम्मान से सम्मानित अनवर शुऊर साहब के चार मजमुए "अनदोख्ता" 1995 में ,मश्क-ऐ-सुखन " 1999 में मी-रक्सम 2008 में और "दिल क्या रंग करूँ " 2009 में प्रकाशित हो चुके हैं। इस किताब को पाने के लिए आप रेख़्ता बुक्स से सम्पर्क करें या फिर अमेजन से ऑन लाइन मंगवा लें। इस किताब में अनवर साहब की 119 ग़ज़लें संग्रहित हैं जो अपने कहन और दिलकश अंदाज़ से आपका मन मोह लेंगी। आप किताब मंगवाने की कवायद करें और मैं नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ :
हमने जिस रोज़ पी नहीं होती
ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती
रात को ख़्वाब देखने के लिए
आँख में नींद ही नहीं होती
सुब्ह जिस वक्त शहर आती है
कोई खिड़की खुली नहीं होती
बे पिए कोई क्या ग़ज़ल छेड़े
कोफ़्त में शाइरी नहीं होती
- नीरज गोस्वामी