Yah Aakanksha Samay Nahin
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Author | Gagan Gill |
Publisher | Vani Prakashan |
Item Weight | 0.0 kg |
Yah Aakanksha Samay Nahin
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‘आकांक्षा' शब्द ही क्यों? चाहना या कामना शब्द क्यों नहीं? चाह चाहना के बरअक्स आकांक्षा शब्द वायवीय है, आत्मा का है, मन का, देह से अलग, किन्तु ‘देह' को पीड़ा से याद करता हुआ। यह एक शब्द-आकांक्षा। यह हर तरह के आश्वासन से परे है, ज़रा इस शब्द आकांक्षा का अनुपस्थित समुदाय देखो। उनकी ध्वनियाँ और अनुगूंजें । आकांक्षाकाश-आकाश। आश्वासन-आश्वास-आह। यह शब्द जैसे स्वयं से ही शापित है। अपना ही मारा हुआ। ईसाई मिथकीय साँप की तरह इसकी पूँछ अपने ही ग्रास में है। स्वयं का भक्षण करती हुई आकांक्षा। भक्षण करती हुई लेकिन फिर भी सदैव क्षुधाग्रस्त आकांक्षा। क्षुधा के ग्रास में। क्षुधित और अतृप्त। अतृप्त और असान्त्वनीय। अन्त से भागता हुआ अन्त। अन्त में भागता हुआ, अन्त के मुख में जाता हआ अन्त सारा समय। सारा समय! आकांक्षा ही एक शब्द है, जो छूटने का कोई रास्ता नहीं देता, कोई अवकाश नहीं देता, न कोई मुक्ति। -गगन गिल लूसी रोज़ेन्स्टाइन के प्रश्न का उत्तर देते हुए
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