फ़ेह्रिस्त
1 ख़ुद अपना अ’क्स हूँ कि किसी की सदा हूँ मैं
2 सोते सोते चौंक पड़े हम ख़्वाब में हमने क्या देखा
3 हर हर सांस नई ख़ुश्बू की इक आहट सी पाता है
4 देखने वाला कोई मिले तो दिल के दाग़ दिखाऊँ
5 हर घड़ी उ’म्र-ए-फ़रोमाया की क़ीमत माँगे
6 कहाँ खो गई रूह की रौशनी
7 हैं कुछ लोग जिन को कोई ग़म नहीं
8 बने-बनाए से रस्तों का सिलसिला निकला
9 हवा के झोंके जो आएँ तो उनसे कुछ न कहो
10 ये तमन्ना नहीं अब दाद-ए-हुनर दे कोई
11 दुनिया-दारी तो क्या आती दामन सीना सीख लिया
12 ये माना हमने ये दुनिया अनोखी है निराली है
13 घर में बैठे सोचा करते हमसे बढ़ कर कौन दुखी है
14 मैं कहाँ हूँ कुछ बता दे ज़िन्दगी ऐ ज़िन्दगी!
15 मेरे आँगन को महका दो
16 फिर मिरी राह में खड़ी होगी
17 रुख़ पे गर्द-ए-मलाल थी क्या थी
18 जलता नहीं और जल रहा हूँ
19 इस पर भी दुश्मनों का कहीं साया पड़ गया
20 तर्ज़ जीने के सिखाती है मुझे
21 अगरचे ग़ैर के हाथों लहूलुहान हुआ
22 हम बाँसुरी पर मौत की गाते रहे नग़्मा तिरा
23 गली गली की ठोकर खाई कब से ख़्वार-ओ-परेशाँ हैं
24 पहले भी सहे हैं रन्ज बहुत पर ऐसी घड़ी कब आई है
25 बस गई दिल में किसकी रा’नाई
26 जब कभी आया तो ज़िक्र-ए-मय-ए-गुलफ़ाम आया
27 वो दिन कब के बीत गए जब दिल सपनों से बहलता था
28 नहीं अब कोई ख़्वाब ऐसा तिरी सूरत जो दिखलाए
29 नश्शा-ए-मय के सिवा कितने नशे और भी हैं
30 हंगामा-ए-हयात से जाँ-बर न हो सका
31 सोई है कली दिल की इसको भी जगा जाना
32 कोई तुम जैसा था ऐसा ही कोई चेहरा था
33 तिरी सदा का है सदियों से इन्तिज़ार मुझे
34 कहूँ ये कैसे कि जीने का हौसला देते
35 मैं देर से धूप में खड़ा हूँ
36 हर ख़ार-ओ-ख़स से वज़्अ’ निभाते रहे हैं हम
37 पीना नहीं हराम है ज़ह्र-ए-वफ़ा की शर्त
38 हर ज़र्रा गुल-फ़िशाँ है नज़र चूर चूर है
39 लुट गया घर तो है अब सुब्ह कहीं शाम कहीं
40 शराब ढलती है शीशे में फूल खिलते हैं
41 वो हुस्न जिसको देख के कुछ भी कहा न जाए
1
ख़ुद अपना अ’क्स1 हूँ कि किसी की सदा2 हूँ मैं
यूँ शह्र-ता-ब-शह्र3 जो बिखरा हुआ हूँ मैं
1 छाया, प्रतिबिम्ब 2 आवाज़ 3 एक शह्र से दूसरे शह्र
मैं ढूँढने चला हूँ जो ख़ुद अपने आप को
तोहमत1 ये मुझ पे है कि बहुत ख़ुद-नुमा2 हूँ मैं
1 आरोप 2 आत्मप्रदर्शन
मुझसे न पूछ नाम मिरा रूह-ए-काएनात1
अब और कुछ नहीं हूँ तिरा आइना हूँ मैं
1 दुनिया की आत्मा
जब नींद आ गई हो सदा-ए-जरस1 को भी
मेरी ख़ता2 यही है कि क्यों जागता हूँ मैं
1 कारवाँ की घंटियों के आवाज़ 2 भूल, ग़लती
लाऊँ कहाँ से ढूँढ के मैं अपना हम-नवा1
ख़ुद अपने हर ख़याल से टकरा चुका हूँ मैं
1 साथी
ऐ उ’म्र-ए-रफ़्ता1 मैं तुझे पहचानता नहीं
अब मुझ को भूल जा कि बहुत बेवफ़ा हूँ मैं
1 बीती हुई ज़िन्दगी
2
सोते सोते चौंक पड़े हम ख़्वाब में हमने क्या देखा
जो ख़ुद हमको ढूँढ रहा हो ऐसा इक रस्ता देखा
दूर से इक परछाईं देखी अपने से मिलती-जुलती
पास से अपने चेहरे में भी और कोई चेहरा देखा
सोना लेने जब निकले तो हर हर ढेर में मिट्टी थी
जब मिट्टी की खोज में निकले सोना ही सोना देखा
सूखी धरती सुन लेती है पानी की आवाज़ों को
प्यासी आँखें बोल उठती हैं हमने इक दरिया देखा
आज हमें ख़ुद अपने अश्कों1 की क़ीमत मा’लूम हुई
अपनी चिता में अपने आप को जब हमने जलता देखा
1 आँसुओं
चाँदनी के से जिन के बदन थे सूरज के से मुखड़े थे
कुछ अंधी गलियों में हमने उनका भी साया देखा
रात वही फिर बात हुई ना हमको नींद नहीं आई
अपनी रूह के सन्नाटे से शोर सा इक उठता देखा
3
हर हर सांस नई ख़ुश्बू की इक आहट सी पाता है
इक इक लम्हा अपने हाथ से जैसे निकला जाता है
दिन ढलने पर नस नस में जब गर्द सी जमने लगती है
कोई आ कर मेरे लहू में फिर मुझको नहलाता है
हम सब एक ही माँ के बेटे इस धरती के बासी हैं
जो भी इस मिट्टी से बना है उससे अपना नाता है
सारी सारी रात जले हैं जो अपनी तन्हाई में
उन की आग से सुब्ह का सूरज अपना दिया जलाता है
मैं तो घर में अपने आप से बातें करने बैठा था
अन-देखा सा इक चेहरा दीवार पे उभरा आता है
कितने सवाल हैं अब भी ऐसे जिन का कोई जवाब नहीं
पूछने वाला पूछ के उनको अपना दिल बहलाता है
किस को सज़ा-ए-मौत1 मिलेगी ये कैसी है भीड़ लगी
और क्या उस ने जुर्म2 किया था कोई नहीं बताता है
1 मृत्युदंड 2 अपराध
4
देखने वाला कोई मिले तो दिल के दाग़ दिखाऊँ
ये नगरी अँधों की नगरी किस को क्या समझाऊँ
नाम नहीं है कोई किसी का रूप नहीं है कोई
मैं किस का साया हूँ किसके साए से टकराऊँ
सस्ते दामों बेच रहे हैं अपने आप को लोग
मैं क्या अपना मोल बताऊँ क्या कह कर चिल्लाऊँ
अपने सपेद-ओ-सियह1 का मालिक एक तरह से मैं भी हूँ
दिन में समेटूँ अपने आप को रात में फिर बिखराऊँ
1 सफ़ेद और काला
अपने हों या ग़ैर1 हों सबके अन्दर से है एक सा हाल
किस किसके मैं भेद छुपाऊँ किसकी हंसी उड़ाऊँ
1 पराये
प्यासी बस्ती प्यासा जंगल प्यासी चिड़िया प्यासा प्यार
मैं भटका आवारा बादल किसकी प्यास बुझाऊँ
5
हर घड़ी उ’म्र-ए-फ़रोमाया1 की क़ीमत माँगे
मुझसे आईना मिरा मेरी ही सूरत2 माँगे
1 बेक़ीमत ज़िन्दगी 2 रूप
दूर रह कर ही जो आँखों को भले लगते हैं
दिल-ए-दीवाना मगर उनकी ही क़ुर्बत1 माँगे
1 समीपता
पूछते क्या हो इन आँखों की उदासी का सबब
ख़्वाब जो देखे वो ख़्वाबों की हक़ीक़त1 माँगे
1 वास्तविकता, सच्चाई
अपने दामन में छुपा ले मिरे अश्कों के चराग़
और क्या तुझ से कोई ऐ शब-ए-फ़ुर्क़त1 माँगे
1 जुदाई की रात
वो निगह कहती है बैठे रहो महफ़िल में अभी
दिल की आशुफ़्तगी1 उठने की इजाज़त माँगे
1 दीवानगी
ज़ह्र पी कर भी जियूँ मैं ये अलग बात मगर
ज़िन्दगी उस लब-ए-रंगीं1 की हलावत2 माँगे
1 रंगीन होंठ 2 मिठास
ज़ेब1 देते नहीं ये तुर्रा-ओ-दस्तार2 मुझे
मेरी शोरीदा-सरी3 संग-ए-मलामत4 माँगे
1 शोभा 2 कलग़ी व पगड़ी 3 दीवानगी 4 निंदा का पत्थर
6
कहाँ खो गई रूह की रौशनी
बता मेरी रातों की आवारगी
मैं जब लम्हे लम्हे का रस पी चुका
तो कुछ और जागी मिरी तिश्नगी1
1 प्यास
अगर घर से निकलें तो फिर तेज़ धूप
मगर घर में डसती हुई तीरगी1
1 अंधेरा
ग़मों पर तबस्सुम1 की डाली नक़ाब2
तो होने लगी और बेपर्दगी3
1 मुस्कुराहट 2 पर्दा 3 पर्दा न होना
मगर जागना अपनी क़िस्मत में था
बुलाती रही नींद की जलपरी
न जाने जले कौन सी आग में
है क्यों सर पे ये राख बिखरी हुई
गुज़ारी है कितनों ने इस तर्ह उ’म्र
बिल-अक़्सात1 करते रहे ख़ुद-कुशी2
1 क़िस्तों में 2 आत्म-हत्या
7
हैं कुछ लोग जिन को कोई ग़म नहीं
अ’जब तुर्फ़ा1 ने’मत2 है ये बेहिसी3
1 अनोखी 2 अच्छी चीज़ें 3 संवेंदनहीनता
कोई वक़्त बतला कि तुझ से मिलूँ
मिरी दौड़ती भागती ज़िन्दगी
जिन्हें साथ चलना हो चलते रहें
घड़ी वक़्त की किसकी ख़ातिर1 रुकी
1 के लिए
मैं जीता तो पाई किसी से न दाद1
मैं हारा तो घर पर बड़ी भीड़ थी
1 प्रशंसा
हुआ हम पे अब उन का साया हराम
थी जिन बादलों से कभी दोस्ती
मुझे ये अंधेरे निगल जाएँगे
कहाँ है तू ऐ मेरे सूरज-मुखी!
निकाले गए इस के मा’नी1 हज़ार
अ’जब चीज़ थी इक मिरी ख़ामुशी
1 अर्थ
8
बने-बनाए से रस्तों का सिलसिला निकला
नया सफ़र भी बहुत ही गुरेज़-पा1 निकला
1 कतरा कर निकलता हुआ
न जाने किसकी हमें उ’म्र भर तलाश रही
जिसे क़रीब से देखा वो दूसरा निकला
हमें तो रास1 न आई किसी की महफ़िल भी
कोई ख़ुदा कोई हमसाया-ए-ख़ुदा2 निकला
1 अनुकूल 2 ख़ुदा का पड़ोसी
हज़ार तर्ह की मय1 पी हज़ार तर्ह के ज़ह्र
न प्यास ही बुझी अपनी न हौसला निकला
1 शराब
हमारे पास से गुज़री थी एक परछाईं
पुकारा हम ने तो सदियों का फ़ासला1 निकला
1 दूरी
अब अपने आपको ढूँढें कहाँ कहाँ जा कर
अ’दम1 से ता-ब-2अ’दम अपना नक़्श-पा3 निकला
1 नश्वरता 2 तक 3 पद-चिन्ह
9
हवा के झोंके जो आएँ तो उनसे कुछ न कहो
जो आग ख़ुद ही लगाई है उसमें जलते रहो
ये दिल का दर्द तो साथी तमाम उ’म्र का है
ख़ुशी का एक भी लम्हा1 मिले तो उससे मिलो
1 पल
हमेशा सच ही नहीं बोलता है आईना
ख़ुद अपने आप से हर लह्ज़ा1 उ’म्र मत पूछो
1 पल
यहाँ तो कुछ भी नहीं जुज़1 ख़ला-ए-बेपायाँ2
हमारी आँखों की गहराईयों में मत झाँको
1 सिवा 2 असीम ख़ालीपन
खुला है और न खुलेगा किसी का दरवाज़ा
तो आओ कूचा-ए-जानाँ1 को शब-बख़ैर2 कहो
1 मा’शूक़ की गली 2 शुभ रात्रि