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About Book उस वक्त जब शायरी महबूब के आरिज़ ओ लब ,बुलबल ओ चमन, हुस्न ओ इश्क की जंजीरों में जकड़ी हुई थी खलिल साहब ने अपने समकालीनों के साथ उसे जदीदियत की ओर मोड़ा. उसे प्रगतिशील बनाया और उसमें वो लफ़्ज इस्तेमाल किए जो अमूमन शायरी की ज़बान से... Read More
About Book
उस वक्त जब शायरी महबूब के आरिज़ ओ लब ,बुलबल ओ चमन, हुस्न ओ इश्क की जंजीरों में जकड़ी हुई थी खलिल साहब ने अपने समकालीनों के साथ उसे जदीदियत की ओर मोड़ा. उसे प्रगतिशील बनाया और उसमें वो लफ़्ज इस्तेमाल किए जो अमूमन शायरी की ज़बान से दूर रखे जाते हैं. तेरी सदा का इंतजार खलील-उर-रहमान आज़मी की चुनिंदा उर्दू शाइरी का संग्रह है। यह पुस्तक "रेखता नुमाइंदा कलाम" श्रृंखला के तहत रेखता फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित की गई है। इस श्रृंखला के साथ, रेख़्ता फ़ाउंडेशन का उद्देश्य वर्तमान युग के प्रतिष्ठित अभी तक कम जानने वाले उर्दू कवियों की सर्वश्रेष्ठ उर्दू शाइरी को सामने लाना है।
About Author
ख़लीलुर्रहमान आ’ज़मी को उर्दू की नई शाइ’री और आलोचना के शिखर-पुरूषों में शुमार किया जाता है। उनकी नज़्मों और ग़ज़लों ने, अपने समय के सवालों से जूझते हुए आदमी की गहरी वेदना को ज़बान दी, तो आलोचना ने 1960 और 1970 के दशकों में, एक संतुलित और वस्तु-परक दृष्टि देकर नए शाइ’रों का मार्गदर्शन किया। 1927 में आ’ज़मगढ़ में जन्मे आ’ज़मी ने मुस्लिम युनिवर्सिटी अ’लीगढ़ में शिक्षा पाई और वहीं शिक्षण कार्य किया। बी़ ए़ करने के दौरान ही ख़्वाजा हैदर अ’ली ‘आतिश’ पर अपने आलोचनात्मक लेख से मशहूर हो गए। 1947 में, ट्रेन से देहली से अ’लीगढ़ के सफ़र के दौरान दंगाइयों का हमला हुआ और तक़रीबन मुर्दा हालत में अस्पताल लाए गए। ये घटना सारी ज़िन्दगी उनके दिल-ओ-दिमाग़ पर तारी रही। 1955 में पहला कविता-संग्रह ‘काग़ज़ी पैरहन’, 1965 में दूसरा संग्रह ‘नया अह्दनामा’ और 1983 में ‘ज़िन्दगी ऐ ज़िन्दगी’ नाम से तीसरी संग्रह उनके देहांत के बा’द छपा। उन्होंने 1978 में कैंसर से हार कर आख़िरी सांस ली।