Description
ईसा की सत्रहवीं सदी के मुग़ल साम्राज्य के शहज़ादा दाराशिकोह के समन्वयवादी चिन्तन के साथ जीवन को 'शहज़ादा दाराशिकोह : दहशत का दंश' में प्रस्तुत किया गया है। उस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए युगीन भयावह परिस्थितियों के मध्य गुरु तेगबहादुर जी के बलिदान की औपन्यासिक कथा सामने आती है। भारतीय इतिहास में नारनौल के सतनामी निर्गुण सम्प्रदाय के संघर्ष एवं बलिदान की उपेक्षा हुई है, परन्तु उपन्यास में इस सम्प्रदाय का पूर्ण रूप वर्णित हुआ है। नानक पन्थ के नौवें गुरु तेगबहादुर अकाल पीड़ित ग़रीब किसानों की मदद करते हैं। बाद में कश्मीरी पण्डित समाज के साथ मुग़ल सूबेदार के क्रूर व्यवहार को जानकर उनके रक्षार्थ वे भीषण प्रतिज्ञा कर दिल्ली चल पड़ते हैं। मुग़ल शहंशाह औरंगजेब उनके समक्ष धर्म-परिवर्तन की घोषणा कर देता है। अतः गुरु देश और धर्म की रक्षा हेतु बलिदान देने को तत्पर हो गये। अपने शिष्यों के साथ उन्होंने दिल्ली में बलि दे दी। उसी समय महाराष्ट्र में शिवाजी बीजापुर और गोलकुण्डा के साथ उत्तर के मुग़लों के आततायी साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे। विन्ध्याचल के क्षेत्र में छत्रसाल भी इस संघर्ष में शामिल थे। युग करवट ले रहा था। जब उस युग के श्रेष्ठ कवि चिन्तामणि और मतिराम दरबारी कवि बनकर मस्त हो रहे थे तब उनके कनिष्ठ भ्राता घनश्याम त्रिपाठी यानी भूषण छत्रसाल तथा शिवाजी के स्वातत्र्य-संघर्ष की शौर्यगाथा को अभिव्यक्त कर जनजीवन को अनुप्राणित कर रहे थे। हिन्दी साहित्य के रीतिकाल का यह महत्त्वपूर्ण प्रसंग है। शृंगार के मध्य वीर रस की उच्छल तरंगें सबको मुग्ध कर रही थीं। उनमें यह युगीन हिन्दवी स्वराज्य की चेतना जाग्रत करती दिख रही थी।