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Sunita Jain ki Lokpriya Kahaniyan
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समकालीन भारतीय परिदृश्य में प्रस्तुत कहानियाँ और भी अधिक प्रासंगिक हो उठीं है। बहुत पहले ही इन कहानियों ने जैसे अनिष्ट की छाया देख ली हो। माता-पिता के लिए अमेरिका में रह रहे बच्चे भी अजनबी होते जाते हैं। कई वर्षों बाद जब माँ अपने बेटे, बहू और नातियों से मिलने भी जाती हैं तो उसे कई समझौते करने होते हैं। इन कहानियों में गंभीर विमर्श भी है, जिनके माध्यम से सुनीता जैन की ही रचना प्रक्रिया को समझने के सूत्र मिलते हैं। इनकी कहन शैली में एक विशेष गुण यह है कि लेखिका से हम दो स्तरों पर जुड़ते हैं। हमें लगता है कि हम कहानी 'पढ़' नहीं रहे, वरन् 'सुन' रहे हैं। सुनीता जैन अपने पात्रों को गहन अंधकारमय गुफा में रोशनी की एक सतीर दिखाती हैं। वे हमारी उँगली पकड़ हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलती हैं। अंधकारमय जगत् में वे एक-न-एक रोशनदान खुला रखती हैं। कब क्या पढ़ना चाहिए और कब क्या नहीं पढ़ना चाहिए की समझ को सुनीता जैन कहानी के मध्य लाती हैं। ऐसा नहीं है कि अमरीकी सभ्यता को दोयम दरजे की घोषित करना लेखिका का मंतव्य हो। वे भारतीयों की फिसलन और सामाजिक ढोंग-ढर्रे की भी अच्छी खबर लेती हैं। यह संकलन हमारे समकालीन समाज की आलोचना है। ये कहानियाँ स्त्री-पुरुष, घर-परिवार को उसके सामाजिक परिदृश्य में स्थापित करती हैं।______________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________अनुक्रमभूमिका — 51. न-से-नेता — 112. क्रेजी किया रे... 163. बड़कू चाचा — 234. पाँच दिन — 265. पालना — 356. बाट — 447. बिंदु — 518. बिरथा जन्म हमारो — 599. पार्वती जब रोएगी — 6510. इतने बरसों बाद — 7211. काफी नहीं — 7912. रामसिंग — 8413. कमाई — 9014. परदेस — 9415. तलछट — 10416. गुलमा बेगम — 10917. सरसी धरती — 11618. भरोसा — 12619. उन्हें जाने दो — 13220. काली रूपी — 13921. मंगल-सूत्र — 14322. या इसलिए — 14923. पतन-पुराण — 15724. तिग्गी — 16525. राम बचाए हिंदुस्तानी — 17426. किधर? — 177

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