Description
जैसे कोई कलाकार छेनी लेकर पत्थर से मूर्तियों की रचना करता है, उसके विभिन्न भागों में सन्तुलन, सुन्दर अनुपात और सही रेखाओं को खोजता है, रंगमंच के शारीरिक प्रशिक्षक को जीवन्त शरीर के साथ वैसे ही प्रतिफल की प्राप्ति की कोशिश करनी चाहिए और फिर इसके विभिन्न भागों के अनुपातों को समझना चाहिए। अभिनेता रचनात्मक प्रक्रिया में जितना अधिक अनुशासन और आत्म-संयम से काम लेता है, उसकी भूमिका का रूपाकार उतना ही स्पष्ट होता है और दर्शक भी उतना ही अधिक प्रभावित होते हैं। हर अभिनेता को अपनी वाणी की सामर्थ्य का विशेष रूप से भान होना चाहिए। अगर उसका अपनी वाणी पर समुचित अधिकार न हो तो भावों की सूक्ष्म भंगिमाओं का समुचित प्रयोग वह कैसे कर पाएगा!... रंगमंच पर वाचन की आधारभूत नियमावली को समझे बिना अपने मन को नये विचारों से भर लेने की कोई उपयोगिता नहीं है; विज्ञान और कला तभी सहायक होते हैं जब वे एक-दूसरे को सहारा दें और परिपूरक बनें।