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Sitesh Alok ki Lokpriya Kahaniyan
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चर्चा में बने रहने के लिए लोग आजकल क्या नहीं करते! दूसरी ओर, चर्चा का अपना कोई सुनिश्चित चरित्र नहीं होता...मरीचिकाओं में भटकते-भटकते चर्चा स्वयं एक मरीचिका का रूप ग्र्रहण कर लेती है।साहित्य भी दुर्भाग्यवश इस मरीचिका से नहीं बच पाया। साहित्य में अनेकानेक गढ़ बनते-बिगड़ते रहे और उसमें राजनीति भी चोरी-छिपे पैर पसारती रही। अपवादस्वरूप, कुछ ही लेखक हैं, जो साहित्य में उपजे वादों-विवादों से बचते हुए अपनी साधना में तल्लीन रह सके।ऐसे ही स्वनामधन्य साहित्यकारों में एक हैं डॉ. सीतेश आलोक, जिन्हें साहित्य न तो विरासत में मिला और न किसी मठ अथवा मंच से। आत्मसम्मान के धनी डॉ. आलोक ने अपनी शर्तों पर चलते-जूझते हुए स्वयं अपनी राह बनाई और कला की अनेक विधाओं में साधानारत रहते हुए अपनी रचनाओं को मर्मस्पर्शी अनुभवों से समृद्ध किया।वैसे तो डॉ. आलोक ने लगभग सभी विधाओं में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, किंतु कहानी के क्षेत्र में उनकी अपनी अनूठी शैली है। जीवन के प्रति अपनी मौलिक दृष्टि ���े कारण उनके कथानक पाठकों के मन में निरंतर एक जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं। पाठक उनके चरित्रों में कभी स्वयं अपने आप को पाता है तो कभी अपने संबंधियों अथवा पड़ोसियों को। संभवतः एक कारण यह भी है कि उनकी कहानियाँ चर्चा का विषय बनकर पाठकों के मन पर स्थायी प्रभाव छोड़ती हैं।________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________अनुक्रम1. हज़ारों साल का हिसाब —Pgs. 92. बंद मुट्ठी —Pgs. 213. नासमझ —Pgs. 334. दो घंटे —Pgs. 455. वापसी —Pgs. 616. नए घर में —Pgs. 697. प्रार्थना —Pgs. 828. बिल्ली —Pgs. 939. लौटते समय —Pgs. 10410. नकटे —Pgs. 11411. दुहराता इतिहास —Pgs. 12512. अपने लोग —Pgs. 13513. कोई अपना —Pgs. 146

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