Look Inside
Shaam Ke Baad Kuch Nahin
Shaam Ke Baad Kuch Nahin

Shaam Ke Baad Kuch Nahin

Regular price Rs. 199
Sale price Rs. 199 Regular price Rs. 250
Unit price
Save 20%
20% off
Tax included.

Earn Popcoins

Size guide

Pay On Delivery Available

Rekhta Certified

7 Day Easy Return Policy

Shaam Ke Baad Kuch Nahin

Shaam Ke Baad Kuch Nahin

Cash-On-Delivery

Cash On Delivery available

Plus (F-Assured)

7-Days-Replacement

7 Day Replacement

Product description
Shipping & Return
Offers & Coupons
Read Sample
Product description

About Book

शाहीन अब्बास की ग़ज़लें दुनियावी चीज़ों को एक बिल्कुल नए नज़रिए से देखती है| कई बार ये नज़रिया काल्पनिक होता है तो कई बार मनोवैज्ञानिक| इंसानी रिश्तों के बारे में उनके शेर मानवीय संवेदनाओं की कई परतें खोलते हैं| उनके शेरों की पढ़कर कई बार ये एहसास हॉता है कि बिल्कुल यही बात हम भी कहना चाहते थे मगर इन शेरों ने उस बात को ज़बान दे दी है| "शाम के बाद कुछ नहीं" शाहीन अब्बास की चुनिन्दा शायरी का संकलन है जो पहली बार देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है और इसे पाठकों का भरपूर प्यार मिला है|

About Author

शाहीन अ’ब्बास पंजाब के शह्र शेख़ूपूरा में 29 नवंबर 1965 को पैदा हुए। यूनीवर्सिटी आफ़ इंजिनीयरिंग ऐंड टैक्नालोजी लाहौर से ता’लीम हासिल की। पेशे से इंजीनियर हैं। 1980 में शे’री सफ़र का आग़ाज़ किया। पहला शे’री मज्मूआ’ ‘तहय्युर’ (1998) शाए’ हुआ, जो ग़ज़लों पर मुश्तमिल था। इसके बा’द ‘वाबस्ता’ (2002) ‘ख़ुदा के दिन’ (2009) ‘मुनादी’ (2013) ‘दरस धारा’ (2014) शाए’ हुए। शाहीन अ’ब्बास का शुमार 1990 के बा’द के अह्म-तरीन पाकिस्तानी शाइ’रों में होता है।

 


Shipping & Return

Contact our customer service in case of return or replacement. Enjoy our hassle-free 7-day replacement policy.

Offers & Coupons

Use code FIRSTORDER to get 10% off your first order.


Use code REKHTA10 to get a discount of 10% on your next Order.


You can also Earn up to 20% Cashback with POP Coins and redeem it in your future orders.

Read Sample


फ़ेह्‍‌रिस्त

 फ़ेह्रिस्त
1 ज़मीं का आख़िरी मन्ज़र दिखाई देने लगा


2 ख़ुद में उतरें तो पलट कर वापस आ सकते नहीं
3 इस गली में कुछ नहीं बस घटता बढ़ता शोर है
4 ग़ैर-मुम्किन था चराग़ों पे गुज़ारा अपना
5 ख़ामुशी की तर्ह तेरी शाम में आना मिरा
6 नाम और नक़्श की सरहद से मिला देगा मुझे
7 अब ऐसे चाक पर कूज़ा-गरी होती नहीं थी
8 अगर उस कोह-ए-निदा पर से इशारा हो जाए
9 जुज़ दीदा-ए-तर नक़्श बनाया नहीं जाता
10 बढ़ा दिया है मोहब्बत ने इन्तिशार मिरा
11 डूब कर उभरे हैं किस ज़ख़्म की गहराई में हम
12 इक यही ख़्वाब-ए-गुज़ि़श्ता की निशानी रह गई
13 दिया जलता न था तो शाम भी होती नहीं थी
14 अपनी बुनियाद तिरे दिल में उठाना है मुझे
15 दिल मिलें भी तो यही मिलने की सूरत रहेगी
16 किसी भी दश्त ने ऐसा नहीं गुज़ारा दिन
17 कैसा मन्ज़र था कि पस-मन्ज़र में रह जाता रहा
18 उसकी आँखों में हमारी शाइ’री गुम हो गई
19 याद करने पे भी अब याद न आना दिल का
20 रौशनी जैसे किसी शाम के आने से हुई
21 शो’ला-ए-जाँ मिरे पैकर से निकल आया है
22 ख़ाक और ख़्वाब की दहलीज़ से बाहर हो कर
23 चलते में क़याम चल रहा है
24 युँहीं चलते चलते फ़ना के नह्ज पे आ गया
25 मन्ज़र-ए-जाँ का सफ़र है पस-ए-मन्ज़र की तरफ़
26 शायद अपने साथ फिर मेरा गुज़ारा हो सके
27 पहले तो इक चराग़ की आँखों में ज़म हुए
28 दश्त-ए-नादीदा से फिर रब्त बढ़ाने लगे हम
29 दूर उस सर्हद-ए-दिल पर भी उतरना होगा
30 दश्त-ओ-दरिया से भी कुछ मिलना-मिलाना हुआ है
31 जागते में सुला दिया है मुझे
32 किसी आइने पे मैं फिर नज़र नहीं कर सका
33 मेरे अन्दर ही कहीं आया था तुफ़ान मिरा
34 तेरी ख़ामोशी को आँखों से लगाए हुए हैं
35 अ’ह्द-ए-जफ़ा से वस्ल का लम्हा जुदा करो
36 किसी अपनी ज़मीं पर और किसी अपने ज़माने में
37 ये ख़्वाब क्या है मिरी आँख में उभरता हुआ
38 दिन ढल चुका है और वही नक़्शा है धूप का
39 नज़र से ख़ास थी जो शो’लगी वो आ’म हुई
40 आँख तर हो तो नज़र आए नज़ारा उसका
41 दर-ए-इम्काँ से गुज़र कर सर-ए-मन्ज़र आ कर
42 सफ़र-ए-ज़ीस्त का कम कम हुनर आता है मुझे
43 सुख़न कुछ ऐसे लहू के लबों से निकले हैं
44 इक सितारे के क़रीब आएँगे हम और अभी
45 मुझे आइने में उतार मुझसे सवाल कर
46 ख़्वाबीदा हैं इस लम्स में इम्कान कुछ ऐसे
47 बदन की साख तो पोशाक से नहीं बनती
48 हर नफ़स जलता चला जाए पिघलता चला जाए
49 मुत्तसिल हो तो गया पाँव के छाले से मिरे
50 दर्द की धूप में आ बैठें तो जाना ही न हो
51 ऐ मिरे हम-किनार जिस्म चल मुझे बेकिनार कर
52 सोची थी इक दुआ’ की रात लिक्खे थे कुछ दुआ’ के दिन
53 पहले तो मिट्टी का और पानी का अन्दाज़ा हुआ
54 चार सम्तों में नज़र रखता हूँ मैं चारों पर
55 ख़्वाब को ख़ुशनुमा बनाते हुए
56 बुझते हुए चराग़ पे डाली है रौशनी
57 मिट्टी के मकान देखता हूँ

1

ज़मीं का आख़िरी मन्ज़र दिखाई देने लगा

मैं देखता हुआ पत्थर दिखाई देने लगा

 

वो सामने था तो कम कम दिखाई देता था

चला गया तो बराबर दिखाई देने लगा

 

निशान-ए-हिज्‍र1 भी है वस्ल की निशानियों में

कहाँ का ज़ख़्म कहाँ पर दिखाई देने लगा

1 जुदाई का निशान

 

वो इस तरह से मुझे देखते हुए गुज़रा

मैं अपने आपको बेहतर दिखाई देने लगा

 

तुझे ख़बर ही नहीं रात मो’जिज़ा1 जो हुआ

अंधेरे को तुझे छू कर दिखाई देने लगा

1 चमत्कार

 

कुछ इतने ग़ौर से देखा चराग़ जलता हुआ

कि मैं चराग़ के अन्दर दिखाई देने लगा

 

पहुँच गया तिरी आँखों के उस किनारे तक

जहाँ से मुझको समुन्दर दिखाई देने लगा

 

मैं सर हिलाता गया और क़दम उठाता गया

सुनाई देता हुआ घर दिखाई देने लगा


 

2

ख़ुद में उतरें तो पलट कर वापस आ सकते नहीं

वर्ना क्या हम अपनी गहराई को पा सकते नहीं

 

मन्ज़िलें ऐसी जहाँ जाना तो है इस इ’श्क़ में

क़ाफ़िले ऐसे कि जिनके साथ जा सकते नहीं

 

झुक गया था सर बहुत पहले वो ख़ेमे देख कर

अब किसी सहरा के आगे आँख उठा सकते नहीं

 

ज़िन्दगी क़ैद-ए-अ’नासिर1 से कुछ आगे का है खेल

दश्त2-ओ-दरिया अब हमारे काम आ सकते नहीं

1 तत्त्वों की क़ैद 2 वीराना

 

ख़ुश्बुएँ कपड़ों में नादीदा1 चमन-ज़ारों2 की हैं

हम कहाँ से हो कर आए हैं बता सकते नहीं

1 अदृश्य 2 बाग़

 

एक वो दरिया जो अपनी रौ1 में रखता है हमें

एक ये सहरा कि जिसमें ख़ाक2 उड़ा सकते नहीं

1 बहाव 2 धूल


 

3

इस गली में कुछ नहीं बस घटता बढ़ता शोर है

इक मकीं की ख़ामुशी है इक मकाँ का शोर है

 

शाम-ए-शोर-अंगेज़1 ये सब क्या है बेहद्द-ओ-हिसाब

इतनी आवाज़ें नहीं दुनिया में जितना शोर है

1 शोर / पागलपन पैदा करने वाली शाम

 

एक मज़्मूँ1 है पर आपस में सबक़2 मिलता  नहीं

अपनी अपनी ख़ामुशी है अपना अपना शोर है

1 विषय 2 पाठ, शिक्षा

 

नक़्ल करती है मिरे चलते में वीरानी मिरी

ये जो मेरे शोर-ए-पा1 से मिलता जुलता शोर है

1 पैरों / चलने की आवाज़

 

मैं ये क्या यक्ता-ए-हंगामा1 हूँ अपने चार-सू2

क्या अकेली हाव-हू3 है कैसा तन्हा शोर है

1 अकेला, अद्वितीय 2 चारों ओर 3 दर्द और कराह की आवाज़, क़लन्दरों की ना’रे

 

ख़ाली दिल फिर ख़ाली दिल है ख़ाली घर की भी न पूछ

अच्छे ख़ासे लोग हैं और अच्छा ख़ासा शोर है

 

सामने की याद जुड़ती है बहुत पीछे कहीं

सब अ’क़्ब1 से आ रहा है आगे जितना शोर है

1 पीछे, परोक्ष


 

4

ग़ैर-मुम्किन1 था चराग़ों पे गुज़ारा अपना

साथ लाया हूँ ज़मीं पर मैं सितारा अपना

1 असंभव

 

अब तो जिस रौ में भी होगी तग-ओ-दौ1 में होगी

चश्म-ए-नम छोड़ चुकी कब से किनारा अपना

1 दौड़-धूप

 

एक उसी ख़त्त1-ए-कम-आमेज़2 पे सरहद अपनी

वही इक मन्ज़र-ए-नादीदा3 हमारा अपना

1 लकीर 2 कम मिलना-जुलना 3 अदृश्य दृश्य

 

हाथ इक ग़ार1 के अन्दर से बढ़ा मेरी तरफ़

आख़िर अस्बाब-ए-सफ़र2 सर से उतारा अपना

1 गुफ़ा 2 सफ़र का सामान

 

यही बन्दिश1 कि जिसे दिल भी कहें दुनिया भी

इसी अन्दर की गिरह2 पर है गुज़ारा अपना

1 बाध्यता 2 गाँठ

 

इक सदा उभरी थी सीने में कि फिर डूब गई

क़ाफ़िला छूट गया जैसे दोबारा अपना

 

अ’र्सा1-ए-जाँ2 में सही मोहलत3-ए-वहशत तो मिली

कोई सहरा तो हुआ सारे का सारा अपना

1 समय 2 जान, ज़िन्दगी 3 अवकाश, अवसर


 

5

ख़ामुशी की तर्ह तेरी शाम में आना मिरा

डूबना इक बार और फिर डूबते जाना मिरा

 

हम में बाग़ों की सी बेबाकी1 कहाँ से आ गई

यूँ महक उठना तुम्हारा और महकाना मिरा

1 उन्मुक्तता

 

तेरी तन्हाई के साए में है तन्हाई मिरी

तेरे वीराने की सरहद पर है वीराना मिरा

 

अपनी अपनी ख़ामुशी में अपने अपने ख़्वाब में

मुझको दोहराना तुम्हारा तुमको दोहराना मिरा

 

सब का सब नक़्श1-ए-निहायत2 जिस्म क्या और इस्म3 क्या

तेरा यूँ मुझको बनाना और बन जाना मिरा

1 निशान 2 अंत, अत्यंत 3 नाम

 

छोड़ आना ख़ुद को उन आँखों के पर्दे में कहीं

देखने पर भी मुझे कम कम नज़र आना मिरा

 

मेरे याँ1 आने से तन्हाई2 बढ़ी है और भी

और ख़ाली हो गया है आइना-ख़ाना3 मिरा

1 यहाँ 2 अकेलापन 3 जहाँ आईने ही आईने हों


 

6

नाम और नक़्श की सरहद से मिला देगा मुझे

ख़ुद मिरा ख़्वाब कभी ख़्वाब बना देगा मुझे

 

ये सितारा सा जो दिल है मिरी दरयाफ़्त1 तमाम

जब तलक रौशनी देता है दुआ’ देगा मुझे

1 खोज

 

ये अलग बात कि मैं गोश-बर-आवाज़1 नहीं

फिर भी कुछ देर तो आईना सदा2 देगा मुझे

1 आवाज़ पर कान लगाए हुए 2 आवाज़

 

दिल कि बढ़ता चला आता है नज़र की जानिब

फिर किसी कार-ए-मोहब्बत1 पे लगा देगा मुझे

1 प्रेम-कर्म

 

जिस्म उकताया अगर एक सी वहशत1 से तो दिल

एक दश्त2 और इसी दश्त में ला देगा मुझे

1 दीवानगी 2 वीराना

 

जिस सफ़ीने1 में शब-ओ-रोज़2 के आ बैठा हूँ

मौज में आया अगर मौज बना देगा मुझे

1 नाव 2 रात-दिन

 

दिल में दीवार के उठने से ये शोर उट्ठा है

ये वो साया है जो चुप-चाप जला देगा मुझे


 

7

अब ऐसे चाक पर कूज़ा-गरी1 होती नहीं थी

कभी होती थी मिट्टी और कभी होती नहीं थी

1 बर्तन बनाना

 

घरों से हो के आते जाते थे हम अपने घर में

गली का पूछते क्या हो गली होती नहीं थी

 

बहुत पहले से अफ़्सुर्दा1 चले आते हैं हम तो

बहुत पहले कि जब अफ़्सुर्दगी2 होती नहीं थी

1 दुखी 2 दुख

 

हमें इन हालों होना भी कोई आसान था क्या

मोहब्बत एक थी और एक भी होती नहीं थी

 

तुम्हीं को हम बसर करते थे और दिन मापते थे

हमारा वक़्त अच्छा था घड़ी होती नहीं थी

 

दिया पहुँचा नहीं था आग पहुँची थी घरों तक

फिर ऐसी आग जिससे रौशनी होती नहीं थी

 

गिरह1 का पूछते क्या हो अचानक लग गई थी

भरी लगती थी गठरी और भरी होती नहीं थी

1 गाँठ

 

हमें ये इ’श्क़ तब से है कि जब दिन बन रहा था

शब-ए-हिज्‍राँ1 जब इतनी सरसरी होती नहीं थी

1 जुदाई की रात


 

8

अगर उस कोह-ए-निदा1 पर से इशारा हो जाए

उ’म्‍र चुप-चाप भी गुज़रे तो गुज़ारा हो जाए

1 एक दास्तानी पहाड़ जो लोगों को बुलाता है

 

मुझमें आबाद कई एक सितारे हैं तो क्या

मुझसे आबाद कोई एक सितारा हो जाए

 

शजर-ए-जाँ1 से उड़ा कर मैं जिन्हें भूल गया

उन परिन्दों से अगर रब्त2 दोबारा हो जाए

1 जान रूपी पेड़ 2 संपर्क

 

किसे मा’लूम इसी दर्द की रफ़्तार के साथ

दिल फिर इक जस्त1 भरे और तुम्हारा हो जाए

1 छलाँग

 

कश्तियाँ मौज-ब-मौज1 आती रहें जाती रहें

ऐसा आबाद मिरे दिल का किनारा हो जाए

1 लहरों लहरों

 

रोज़-ओ-शब1 अपने हैं जिस शख़्स2 के वक़्त अपना है

कैसे मुम्किन3 वो किसी शाम हमारा हो जाए

1 दिन और रात 2 व्यक्ति 3 संभव


 

9

जुज़1 दीदा-ए-तर2 नक़्श बनाया नहीं जाता

रंग और कहीं मुझसे जमाया नहीं जाता

1 के सिवा 2 आँसू भरी आँख

 

अब जैसा भी अन्जाम1 हो इस कूज़ागरी2 का

मिट्टी से मगर हाथ छुड़ाया नहीं जाता

1 नतीजा 2 कुम्हार का काम

 

ये दिल तो वो दिल है हमें मत्लब नहीं जिससे

ये घर तो वो घर है जहाँ आया नहीं जाता

 

उग आती है दीवार-ए-ख़राबी सर-ए-सहरा1

बन जाता है घर ख़ुद ही बनाया नहीं जाता

1 वीराने में

 

दिल रौज़न-ए-दुनिया1 से नज़र आए तो आए

इस मौज को मन्ज़र2 पे तो लाया नहीं जाता

1 दुनिया की खि​ड़की 2 दृश्य

 

वहशत की हदें ख़ाक से मिलती नहीं अफ़्सोस

इक दश्त है और उसमें समाया नहीं जाता

 

हमराह-ए-सफ़र1 पेड़ जो थे रह गए पीछे

जो साया सरों पर था वो साया नहीं जाता

1 सफ़र के दौरान


 

Customer Reviews

Based on 2 reviews
100%
(2)
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)
A
ABHAY BHADORIYA

Shaam Ke Baad Kuch Nahin

A
Aman Arora
Excellent books

Excellent as always u all r

Related Products

Recently Viewed Products