अनुक्रम
1. कृपया प्रसाद ग्रहण करें - 6
2. आभार - 10
3. सत्यमेव जयते नानृतम् - 14
4. माहात्म्य - 20
5. सेवा प्रबन्धन - 30
6. सम्पत्ति प्रबन्धन - 50
7. सन्तति प्रबन्धन - 80
8. संघर्ष प्रबन्धन - 104
9. संस्कार प्रबन्धन - 118
10. पूजन विधान - 134
11. श्रीसत्यनारायणजी की आरती - 135
12. श्रीसत्यनारायण व्रत की महिमा तथा व्रत की विधि - 147
13. निर्धन ब्राह्मण तथा काष्ठक्रेता की कथा - 148
14. राजा उल्कामुख, साधु वणिक् एवं लीलावती-कलावती कथा - 153
15. असत्य भाषण तथा भगवान् के प्रसाद की अवहलेना का परिणाम - 157
16. राजा तुंगध्वज और गोपगणों की कथा - 164
17. देवलोकवासी स्वामी नारायणदेव तीर्थजी द्वारा हिन्दी में रचित कथा - 170
18. प्रथम अध्याय - 174
19. दूसरा अध्याय - 176
20. तीसरा अध्याय - 178
21. चौथा अध्याय - 180
22. पाँचवाँ अध्याय - 182
अध्याय-1
सेवा प्रबन्धन
कथा सार
●नैमिषारण्य में सन्तों का आपस में वार्तालाप ।
•सूतजी से प्रश्न पूछना
•संसार में लोगों को दुखी देख नारदजी विष्णुजी के पास
•विष्णुजी ने नारदजी को समाधानकारी व्रत बतलाया ।
समय कम है और सफलता अधिक
अर्जित करनी है, ऐसे में यह
कथा सफलता के लिए सत्यव्रत को
लघु उपाय के रूप में घोषित कर
रही है।
व्रत एक उपाय है, फिर सत्यव्रत
तो ऐसा उपाय है जिसमें जीवन के
सारे समाधान हैं।
• जो सन्त होता है उसके पूरे व्यक्तित्व
में सेवा-भाव होता है लेकिन जिस
व्यक्ति के भीतर सेवा उतरे फिर
वह स्वतः सन्त हो जाएगा।
सन्त समागम केवल जमघट नहीं
होता, वे सत्य की खोज के लिए
अपनी-अपनी योग्यता का उपयोग
करते हैं
सेवा प्रबन्धन को समझने के पहले थोड़ा कथा क्रम में प्रवेश करें। सत्य
को पाने के दुनिया में जितने उपाय हैं उनमें से एक है, बैठकर आपस
में चर्चा करना और दूसरा है स्वयं के भीतर उतरना ।
इस कथा का पहला प्रसंग है, ऋषि-मुनियों ने बैठकर सत्य पर सामूहिक चर्चा
की थी। कथा में आगे फिर हर पात्र को 'सत्य' पाने के लिए अपनी निजता के
अध्याय-3
सन्तति प्रबन्धन
• नई पीढ़ी परिवर्तन चाहती है और
सत्य के मार्ग पर उपलब्ध परमात्मा
से परिवर्तन तथा प्रगतिशीलता के
अनेक संकेत मिलते हैं ।
• केवल सन्तान पैदा करना ही माता-
पिता का काम नहीं है, समाज को
अच्छे नागरिक देना भी उनका
दायित्व है।
• सन्तति (सन्तान) परमात्मा का प्रसाद
है, इन्हें प्रसाद की तरह ही तैयार
किया जाए और वितरित करें।
• सत्य के प्रयोग छिपे हैं सन्तान के
लालन-पालन में ।
कथा सार
• राजा उल्कामुख और वैश्य ने
सन्तान प्राप्ति के लिए व्रत
किया था ।
• वैश्य ने संकल्प भुला दिया।
• ससुर-दामाद राजा चन्द्रकेतु के
यहाँ जेल में डाले गए।
● माँ-बेटी ने व्रत किया वैश्य और
दामाद मुक्त होकर अपने नगर
आए ।
मनुष्य को विपत्ति और आनन्द चार मार्ग से मिलते हैं-शरीर. संसार.
सम्पत्ति और सन्तति । सन्तान का हो जाना ही काफी नहीं होता है। यह
एक सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक दायित्व है। सत्य को उपलब्ध होने में
सन्तति की भी बड़ी भूमिका रहती है। सन्तान के लालन-पालन में सत्य के प्रयोग
दिये हैं। परिवर्तन सन्तान की नियति है। हर परिवार में हर सन्तान एक नए युग,