Sampoorn Malkauns
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Item Weight | 0.400 |
ISBN | 978-9382673828 |
Author | PARUL PUKHRAAJ |
Language | Hindi |
Publisher | Sambhavna Prakashan |
Pages | 140 |
Dimensions | 10 x 2 x 2.7 cm |
Publishing year | 2025 |
Edition | Classic |
Return Policy | 5 days Return and Exchange |

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रमेशचन्द्र शाह
पारुल की कविताएँ सिवाय नितांत अपनी आवाज़ और नितांत अपने देखे-सुने के अलावा और किसी व्याख्या या मध्यस्थ की मोहताज नहीं। पल-पल परिवर्तित प्रकृति के रंगमंच पर उभरता-बिलाता यह दृश्य-नाट्य जितना नियति-नटी का है, उतना ही कविमन और ‘मानुष-तन’ का भी। सतही आशावाद और सतही निराशावाद दोनों से अलग और ऊपर लगता है यह आरोहावरोही स्वर कवियत्री का।
राजी सेठ
तुम्हें पाने के लिए बार बार तुम्हारे शब्द चिह्नों से गुज़रना पड़ेगा। वे कोई वस्तु या पदार्थ नहीं हैं जिन्हें कोई छू-पा ले। लय की यह यात्रा संकेतों के आकाश में खुलती है और संकेत सदा कितने निजी, कितने राग सघन, कितने रक्षणीय, कितने अपने होते हैं कि स्वयं भी उन्हें देखने के लिए अपनी आँखें बंद करनी पड़ती हैं, ताकि आँख मात्र देखना न होकर ‘दृष्टि’ के व्योम में दाख़िल हो सके। अगली पीढ़ी में ऐसी सम्पन्नता को देखना सुखद शांतिदायक है।
रुस्तम
पिछले दशक में जो हिन्दी कवि उभरे हैं उनमें पारुल पुखराज की दृष्टि सबसे सूक्ष्म और महीन है। उनकी कविताओं के गठन में कोई नुक़्स निकालना लगभग असम्भव होता है। लय पर उनका पूर्ण अधिकार है। पिछले दशक में उभरे कवियों पर जब मैं नज़र दौड़ाता हूँ तो सबसे पहले जो नाम मेरे मन में उभरता है वह पारुल पुखराज का होता है। यदि वे लिखती रहीं तो बाद में वे इस कालखण्ड के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवियों में गिनी जायेंगी, इसमें मुझे कोई शक नहीं।
पारुल की कविताएँ सिवाय नितांत अपनी आवाज़ और नितांत अपने देखे-सुने के अलावा और किसी व्याख्या या मध्यस्थ की मोहताज नहीं। पल-पल परिवर्तित प्रकृति के रंगमंच पर उभरता-बिलाता यह दृश्य-नाट्य जितना नियति-नटी का है, उतना ही कविमन और ‘मानुष-तन’ का भी। सतही आशावाद और सतही निराशावाद दोनों से अलग और ऊपर लगता है यह आरोहावरोही स्वर कवियत्री का।
राजी सेठ
तुम्हें पाने के लिए बार बार तुम्हारे शब्द चिह्नों से गुज़रना पड़ेगा। वे कोई वस्तु या पदार्थ नहीं हैं जिन्हें कोई छू-पा ले। लय की यह यात्रा संकेतों के आकाश में खुलती है और संकेत सदा कितने निजी, कितने राग सघन, कितने रक्षणीय, कितने अपने होते हैं कि स्वयं भी उन्हें देखने के लिए अपनी आँखें बंद करनी पड़ती हैं, ताकि आँख मात्र देखना न होकर ‘दृष्टि’ के व्योम में दाख़िल हो सके। अगली पीढ़ी में ऐसी सम्पन्नता को देखना सुखद शांतिदायक है।
रुस्तम
पिछले दशक में जो हिन्दी कवि उभरे हैं उनमें पारुल पुखराज की दृष्टि सबसे सूक्ष्म और महीन है। उनकी कविताओं के गठन में कोई नुक़्स निकालना लगभग असम्भव होता है। लय पर उनका पूर्ण अधिकार है। पिछले दशक में उभरे कवियों पर जब मैं नज़र दौड़ाता हूँ तो सबसे पहले जो नाम मेरे मन में उभरता है वह पारुल पुखराज का होता है। यदि वे लिखती रहीं तो बाद में वे इस कालखण्ड के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवियों में गिनी जायेंगी, इसमें मुझे कोई शक नहीं।
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