फ़ेह्रिस्त
फ़ेह्रिस्त
1 ख़ाक है मेरा बदन ख़ाक ही उस का होगा
2 दोनों का ला-शुऊ’र है इतना मिला हुआ
3 फिर मिरा ला-शुऊ‘र जारी हुआ
4 रात को दरकार था कुछ दास्तानी रंग का
5 एक दम दिल में उतर जाए जो ख़न्जर आप का
6 आ’म सा इक शख़्स है ये फ़रहत एहसास आप का
7 पहले तो ज़रा सा हट के देखा
8 मैं अपनी ख़ाक से मरने के बा’द उट्ठूँगा
9 इक शब कभी तो उस को मिरा ख़्वाब आएगा
10 सर-ए-तस्लीम ख़म करना पड़ेगा
11 ये इ’श्क़ वो है कि जिस का नशा न उतरेगा
12 वो अ’क़्ल-मन्द कभी जोश में नहीं आता
13 बाहर की क्या याद आए घर याद नहीं आता
14 बस अपना रू-ए-हक़ीक़त मैं खो नहीं सकता
15 वो सबक़ हूँ जो तुझे याद नहीं हो सकता
16 नशे में आता हूँ जब मैं तो क्या नहीं मिलता
17 मिले वो एक तो फिर दूसरा नहीं मिलता
18 मोहब्बत का सिला कार-ए-मोहब्बत से नहीं मिलता
19 तू मुझ को जो इस शह्र में लाया नहीं होता
20 मैं अपनी रूह का दामन पसारे बैठा था
21 अ’जीब तज्रबा आँखों को होने वाला था
22 ज़मीं से अ’र्श तलक सिलसिला हमारा भी था
23 हमें बनाते हुए ख़ुद बिगड़ गया है ख़ुदा
24 बदन के मौसम-ए-बरसात में नहीं आना
25 ख़लल आया न हक़ीक़त में न अफ़्साना बना
26 चराग़-ए-शह्र से शम-ए’-दिल-ए-सहरा जलाना
27 कुछ भी न कहना कुछ भी न सुनना लफ़्ज़ में लफ़्ज़ उतरने देना
28 वहाँ बहुत तेज़ रौशनी थी, मैं लौट आया
29 हमें अपने ही जैसा दूसरा होने का वक़्त आया
30 इस सलीक़े से वो मुझ में रात भर रह कर गया
31 इक हवा सा मिरे सीने से मिरा यार गया
32 शायद मैं अपने जिस्म से बाहर निकल गया
33 औरों का सारा काम मुझे दे दिया गया
34 आखि़र उस के हुस्न की मुश्किल को हल मैं ने किया
35 मुशाइ’रे ने जब उस को बुलाना छोड़ दिया
36 पर्दा-नशीं से हम ने आज अपना हिसाब कर लिया
37 जब से हम ने बाज़ुओं में ज़ोर पैदा कर लिया
38 दबा पड़ा है कहीं दश्त में ख़ज़ाना मिरा
39 फिर मिरे शाना-ए-हस्ती पे नया सर निकला
40 बुझ गए सारे चराग़-ए-जिस्म-ओ-जाँ तब दिल जला
41 मैं महफ़िल-बाज़ घबरा कर हुआ तन्हाई वाला
42 ईमाँ का लुत्फ़ पहलू-ए-तश्कीक में मिला
43 दुनिया का हाल पूछने आते नहीं कभी
44 हम आए हैं प गए भी कहीं हुए हैं बहुत
45 लोग हम से तने हुए हैं बहुत
46 सितम हैं याद करम भूलने लगे हैं बहुत
47 जो इ’श्क़ चाहता है वो होना नहीं है आज
48 इस तरह आता हूँ बाज़ारों के बीच
49 मुशाइ’रे नज़र आते हैं मंडियों की तरह
50 नक़्क़ाद का था हुक्म कि कहिए जदीद शे’र
51 रूह-ओ-बदन को दस्त-ओ-गरेबान देख कर
52 दिल के इक गोशे में सहरा देख कर
53 आँसुओं का एक हल्क़ा खींच कर
54 करनी पड़ेगी जिस्म से पहचान जान कर
55 मौत मेरा इक ज़रा सा काम कर
ख़ाक है मेरा बदन ख़ाक ही उस का होगा
दोनों मिल जाएँ तो क्या ज़ोर का सहरा होगा
फिर मिरा जिस्म मिरी जाँ से जुदा है देखो
तुम ने टाँका जो लगाया था वो कच्चा होगा
तुम को रोने से बहुत साफ़ हुई हैं आँखें
जो भी अब सामने आएगा वो अच्छा होगा
रोज़ ये सोच के सोता हूँ कि इस रात के बा’द
अब अगर आँख खुलेगी तो सवेरा होगा
क्या बदन है कि ठहरता ही नहीं आँखों में
बस यही देखता रहता हूँ कि अब क्या होगा
दोनों का ला-शुऊ’र1 है इतना मिला हुआ
उस ने जो पी शराब तो मुझ को नशा हुआ
1 अवचेतन
कैसा खटक रहा है तसव्वुफ़1 के पाँव में
इक जिस्म ख़ानक़ाह2 के दर पर पड़ा हुआ
1 अध्यात्म 2 सूफ़ियों का मठ
पैदा किया दोबारा मुझे उस के जिस्म ने
मैं जो बराए-वस्ल1 गया था मरा हुआ
1 मिलने के लिए
दुनिया की हर नमाज़ का मुझ को मिला सवाब1
मस्जिद का अन्दरून है मुझ पर खुला हुआ
1 पूण्य
ये भी मिरे चराग़-ए-ख़मोशी1 का फ़ैज़2 है
चारों तरफ़ है शोर हवा का मचा हुआ
1 ख़ामोशी का चराग़ 2 फ़ायदा
उस ने पढ़ी नमाज़ तो मैं ने शराब पी
दोनों को, लुत्फ़ ये है, बराबर नशा हुआ
देखा नहीं कभी न मुलाक़ात ही हुई
एहसास जी का नाम है लेकिन सुना हुआ
फिर मिरा ला-शुऊ‘र1 जारी हुआ
या’नी मज्मूआ’2 इन्तिशारी3 हुआ
1 अवचेतन 2 संग्रह 3 बिखरा हुआ
वह्म1 होने लगा ख़ुद अपना वह्म
ए’तिबार2 अपना ए’तिबारी3 हुआ
1 भ्रम 2 विश्वास 3 सापेक्ष
उस के आने की जब उड़ी अफ़्वाह
मैं ज़रा और इन्तिज़ारी हुआ
इ’श्क़ हो वस्ल हो कि हिज्र कि खेल
एक पर एक इन्हिसारी1 हुआ
1 निर्भर करने वाला
हम मरे, फिर जिए, मरे फिर से
बस यही खेल बारी बारी हुआ
शाइ’री मेरी बे-सदा1 बे-लफ़्ज़2
कोई सामे’3 न कोई क़ारी4 हुआ
1 बे-आवाज़ 2 नि:शब्द 3 श्रोता 4 पाठक
इ’श्क़ करता है शे’र कहता है
फ़रहत एहसास जब से जारी हुआ
रात को दरकार था कुछ दास्तानी1 रंग का
हम चराग़-ए-ख़ामुशी लाए ज़बानी रंग का
1 काल्पनिक
उस ने पेशानी1 हमें दी है ज़मीनी रंग की
और सज्दा चाहता है आस्मानी रंग का
1 माथा
गेहुँवें-पन1 ने निकलवाया था जन्नत से हमें
जान-ए-मन अब के करेंगे इ’श्क़ धानी रंग का
1 गेहूँ जैसा होना
इ’श्क़ ने तो मेरा चेहरा ही बदल कर रख दिया
ऐसा आईना दिखाया उस ने सानी1 रंग का
1 दूसरा
हम मोहब्बत करने वालों की ज़िदें1 भी हैं अ’जीब
चाहिए इक वाक़िआ’2 लेकिन कहानी रंग का
1 ज़िद (हठ) का बहु 2 घटना
शायद अब उकता गए सहरा-नवर्दी1 से ग़ज़ाल2
चाहते हैं कोई वीराना मकानी रंग का
1 रेगिस्तान में घूमना 2 हिरण
फ़रहत एहसास उस की मिट्टी की समाअ’त1 खिल उठी
शे’र जब मैं ने सुनाया तेरा पानी रंग का
1 सुनने की क्षमता
एक दम दिल में उतर जाए जो ख़न्जर आप का
फ़रहत एहसास अपना बन जाए क़लन्दर1 आप का
1 संत, फ़क़ीर
हो के चकना-चूर फिर पुर-नूर1 होना है मुझे
कब मिरे शीशे से टकराएगा पत्थर आप का
1 रौशनी से भरा हुआ
रक़्स1 मेरा जिस्म चाहे जिस तसव्वुर2 में करे
रक़्स के पेश-ए-नज़र3 रहता है महवर4 आप का
1 नृत्य 2 कल्पना 3 आँखों के सामने 4 नृत्य का केंद्र
सख़्त हैरत में पड़े हैं शह्र भर के अह्ल-ए-वस्ल1
रात भर ख़ाली पड़ा रहता है बिस्तर आप का
1 मिलन वाले
भीड़ में से सर उठा कर इस क़दर मत देखिए
भीड़ वर्ना काट कर ले जाएगी सर आप का
आप तो बस एक शब आग़ोश1 में आ जाइए
सुब्ह होने तक निकल जाएगा सब डर आप का
1 आलिंगन
मुझ को अपनी एक क़त्रा हुक्मरानी1 चाहिए
और इस के बा’द फिर सारा समुन्दर आप का
1 सत्ता
बेचता है थोक में, तन्क़ीद1 का बाज़ार उसे
फ़रहत एहसास अपने शे’रों में है फुटकर आप का
1 आलोचना
आ’म सा इक शख़्स है ये फ़रहत एहसास आप का
इ’श्क़ ने इस को बनाया है मगर ख़ास आप का
आप तन्हाई में कब मिलते हैं कुछ तो बोलिए
ख़त्म कब होता है आईने में इज्लास1 आप का
1 सम्मेलन
और कितना पास आऊँ मैं कि पास आ जाएँ आप
कुछ तो कहिए और कितनी दूर है पास आप का
साहिबा1 हम को गले से भी लगा लीजे कभी
कब तलक क़दमों में ही बैठा रहे दास आप का
1 ऐ मित्र
गोश्त मेरे जिस्म का तारीक1 हो जाता है क्यों
शाम आते ही दमक उठता है क्यों मास आप का
1 अंधेरा
वो जो हैं इक जौहरी1 से फ़रहतुल्लह ख़ान हैं
ये लफ़ंगा जो है, वो है फ़रहत एहसास आप का
1 हीरे आदि परखने वाला
पहले तो ज़रा सा हट के देखा
उस शोख़ से फिर लिपट के देखा
इतनी भी बुरी न थी जो मैं ने
दुनिया को ज़रा सा हट के देखा
देखा उसे उस का हो के और फिर
क्या फ़र्क़ पड़ेगा कट के देखा
हम जम्अ’ हुए ही जा रहे थे
आराम मिला जो घट के देखा
बस एक ही ख़्वाब था कि जिस को
ता-उ’म्र1 उलट-पलट के देखा
1 सारी उ’म्र
वो और क़रीब आ गया था
जब मैं ने ज़रा सिमट के देखा
फिर दिल ने मिरे ग़म और ख़ुशी को
रस्सी की तरह से बट के देखा
कल डूब रहा था फ़रहत एहसास