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Pratinidhi Kavitayen : Bharatbhushan Agrawal
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भारतभूषण अग्रवाल की कविता बिना किसी नाटकीयता, बिना कोई चीख़-पुकार मचाए ईमानदारी से अपनी सच्चाई को देखती-परखती कविता है। उसमें रूमानी आवेग से लेकर मुक्त हास्य, विद्रूप से लेकर अनुराग और कोमलता की कई छवियाँ, सभी शामिल हैं। कामकाजी मध्यवर्ग की विडम्बनाएँ, संवेदनशील व्यक्ति के ऊहापोह, शहराती ज़िन्दगी के रोज़मर्रा के सुख-दु:ख आदि को भारत जी ईमानदारी और पारदर्शिता से अपनी कविता में जगह देते हैं। उनमें अपनी विशिष्टता का रत्ती-भर भी आग्रह नहीं है। बल्कि अगर आग्रह है तो अपनी सीधी-सादी, सरल जान पड़ती लेकिन दरअसल जटिल साधारणता का। यह आग्रह उनकी आवाज़ को और सघन तथा उत्कट बनाता है। उनकी कविता अपने को महत्त्वाकांक्षा के किसी विराट लोक में विलीन नहीं करती। वह अपनी उत्सुकताओं और बेचैनियों को जतन से नबेरती है। वह कविता में विकल्प इतना नहीं खोजती जितना सच्चाई की ही कई अन्यथा अलक्षित रह जानेवाली परतों को। कविता में कवि का यह अहसास बराबर मौजूद है कि सच्चाई और ज़िन्दगी कविता से कहीं बड़ी और व्यापक हैं और वे कविता में अँट नहीं पा रही हैं। Bharatbhushan agrval ki kavita bina kisi natkiyta, bina koi chikh-pukar machaye iimandari se apni sachchai ko dekhti-parakhti kavita hai. Usmen rumani aaveg se lekar mukt hasya, vidrup se lekar anurag aur komalta ki kai chhaviyan, sabhi shamil hain. Kamkaji madhyvarg ki vidambnayen, sanvedanshil vyakti ke uuhapoh, shahrati zindagi ke rozmarra ke sukh-du:kha aadi ko bharat ji iimandari aur pardarshita se apni kavita mein jagah dete hain. Unmen apni vishishtta ka ratti-bhar bhi aagrah nahin hai. Balki agar aagrah hai to apni sidhi-sadi, saral jaan padti lekin darasal jatil sadharanta ka. Ye aagrah unki aavaz ko aur saghan tatha utkat banata hai. Unki kavita apne ko mahattvakanksha ke kisi virat lok mein vilin nahin karti. Vah apni utsuktaon aur bechainiyon ko jatan se naberti hai. Vah kavita mein vikalp itna nahin khojti jitna sachchai ki hi kai anytha alakshit rah janevali parton ko. Kavita mein kavi ka ye ahsas barabar maujud hai ki sachchai aur zindagi kavita se kahin badi aur vyapak hain aur ve kavita mein ant nahin pa rahi hain.

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क्रम

1. सपनों से पूछो... - 11

2. पहाड़ी साँझ - 12

3. प्लेटफ़ार्म पर विदाई - 12

4. पथहीन - 14

5. पूँजीवादी दुर्ग के... - 14

6. अप्रस्तुत मन! - 16

7. घृणा का 'डोज़' - 17

8. लेना नाम... - 18

9. तुक की व्यर्थता - 18

10. कौंध तो अभिव्यक्ति है! - 18

11. कार्टूनों का जुलूस - 20

12. असाधारण की चाह : डायरी का एक पन्ना - 21

13. आनेवालों से एक सवाल - 23

14. परम्परा : एक नई उपलब्धि - 26

15. मूर्ति तो हटी, परन्तु... - 27

16. अन्धकार की हदें खींच दो - 29

17. समाधि-लेख - 30

18. मुक्ति ही प्रमाण है - 30

19. खंड हूँ विराट् का! - 32

20. मैं और मेरा पिट्ठू – 34

21. माध्यम : आवाज़ - 36

22. हो तो सकता था...-37

23. अनुपस्थित लोग – 39

24. मुक्ति - 41

25. विदेह - 46

26. कैसी तुम नदी हो! - 48

27. एक उठा हुआ हाथ - 50

28. सन्नद्ध - 51

29. याद - 52

30. मैंने सोचा था – 53

31. अगति-1 - 55

32. -लगाव - 56

33. टूटन - 58

34. आहट : डायरी का तीसरा पन्ना - 59

35. वसीयत - 62

36. कोट- सप्तक – 63

37. अब नहीं मिलेगा - 64

38. चीर-फाड़ - 66

39. परिदृश्य - 74

40. चोट - 84

41. आप मेरा क्या कर लेंगे? - 85

42. हर बार यही होता है - 86

43. निरापद - 87

44. पतित-पावनी - 89

45. एक सांस्कृतिक चूहे की कुतरन - 1 - 90

46. एक सांस्कृतिक चूहे की कुतरन - 2 - 91

47. तुक्तक - 92

48. तुक्तक एवं मुक्तक – 93

 

सपनों से पूछो

सपनों से पूछो, क्यों मेरी विह्वलता का पार नहीं है
               जब अम्बर के आलिंगन में
ज्योति-मुग्ध वसुधा सोती है
रजनी अपनी कज्जल अलके
जब स्वगंगा में धोती है
तारे कह देते हैं - तुमको छवि का भी अधिकार नहीं है 
               जब चम्पा की सुरभि पान कर
किरणें कर उठती हैं नर्तन
जब दिगन्त तक मादकता में
डूब- डूब जाता जग-जीवन
हृदय कुहुक उठता-क्यों कोई मुझको करता प्यार नहीं है 
               जब उद्वेलित हो उठता है
ज्योत्स्ना की छाया से सागर
एक अपरिचित की सुधि जब
भर जाती है नयनों की गागर
कैसे कहूँ : उमड़ पड़ता तब मेरे जी में ज्वार नहीं है

मुक्ति ही प्रमाण है

मैंने फूल को सराहा :
'देखो, कितना सुन्दर है, हँसता है !'
तुमने उसे तोड़ा
और जूड़े में खोंस लिया
मैंने बौर को सराहा :
'देखो, कैसी भीनी गन्ध है !'
तुमने उसे पीसा
और चटनी बना डाली
मैंने कोयल को सराहा :
'देखो, कैसा मीठा गाती है !'
तुमने उसे पकड़ा
और पिंजरे में डाल दिया
एक युग पहले की बातें ये
आज याद आतीं नहीं क्या तुम्हें ?
क्या तुम्हारे बुझे मन हत-प्राण का है यही भेद नहीं :
हँसी, गन्ध, गीत जो तुम्हारे थे
वे किसी ने तोड़ लिए, पीस दिए, कैद किए ?
 मुक्त करो
!मुक्त रहो !-
जन्म-भर की यह यातना भी
इस ज्ञान के समक्ष तुच्छ है

विदेह

आज जब घर पहुँचा शाम को
तो बड़ी अजीब घटना हुई
मेरी ओर किसी ने भी कोई ध्यान ही दिया
चाय को पूछा आके पत्नी ने
बच्चे भी दूसरे ही कमरे में बैठे रहे
नौकर भी बड़े ढीठ ढंग से झाडू लगाता रहा
मानो मैं हँ ही नहीं ?
तो क्या मैं हूँ ही नहीं ?

और तब विस्मय के साथ यह बोध मन में जगा :
अरे, मेरी देह आज कहाँ है ?
रेडियो चलाने को हुआ-हाथ गायब हैं
बोलने को हुआ-मुँह लुप्त है
दृष्टि है परन्तु हाय ! आँखों का पता नहीं
सोचता हूँपर सिर शायद नदारद है
तो फिर - तो फिर मैं भला घर कैसे आया हूँ ?
 और तब धीरे-धीरे ज्ञान हुआ
भूल से मैं सिर छोड़ आया हूँ दफ्तर में
हाथ बस में ही टँगे रह गए
आँखें जरूर फाइलों में ही उलझ गईं
मुँह टेलीफोन से ही चिपटा - सटा होगा
और पैर हो--हो क्यू में रह गए हैं-
तभी तो मैं आज घर आया हूँ विदेह ही !

 


 


 

 

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