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Pratinidhi Kahaniyan : Rangeya Raghav
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रांगेय राघव के कहानी-लेखन का मुख्य दौर भारतीय इतिहास की दृष्टि से प्त हलचल-भरा विरल कालखंड है, कम मौकों पर भारतीय जनता ने इतने स्वप्न और दुःस्वप्न एक साथ देखे थे-आशा और हताशा ऐसे अड़ोस-पड़ोस में खड़ी देखी थी । और रांगेय राघव की कहानियों की विशेषता यह है कि उस पूरे समय की शायद ही कोई घटना हो जिसकी गूँजे-अनुगूंजें उनमें न सुनी जा सकें । सच तो यह है कि रांगेय राघव ने हिन्दी कहानी को भारतीय समाज के उन धूल-काँटों भरे रास्तों, आवारे-खफंडरों-चरजीवियों की फक्कड़ जिन्दगी, भारतीय गाँवों की कच्ची और कीचड़-भरी पगडंडियों की गश्त करवाई, जिनसे वह भले ही अब तक पूर्णत: अपरिचित न रही हो पर इस तरह हिली-मिली भी नहीं थी; और इन 'दुनियाओं' में से जीवन से लबलबाते ऐसे-ऐसे कद्‌दावर चरित्र प्रकट किए जिन्हें हम विस्मृत नहीं कर सकेंगे । 'गदल' को क्या कोई भूल सकता है!

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क्रम

पंच परमेश्वर - पृष्ठ 13
घिसटता कंबल - पृष्ठ 31
रोने का मोल - पृष्ठ 37
प्रवासी - पृष्ठ 42
नया समाज - पृष्ठ 69
तबेले का धुँधलका - पृष्ठ 79
धर्म-संकट - पृष्ठ 91
जाति और पेशा - पृष्ठ 100
ऊँट की करवट - पृष्ठ 109
भय - पृष्ठ 121
गदल - पृष्ठ 139

पंच परमेश्वर

चंदा ने दालान में खड़े होकर आवाज देने के लिए मुँह खोला, पर एकाएक साहस नहीं हुआ | कोठे के भीतर खाँसने की आवाज आई। अभी अँधेरा ही था । कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी । गधे भी भीतर की तरफ टाट बाँधकर बनाई हुई छत के नीचे कान खड़े किए बिलकुल नीरव खड़े थे । खपरैल पर लाल-सी झलक थी, देखकर ही लगता था जैसे सबकुछ बहुत ठंडा हो गया था, जैसे स्वयं बर्फ हो । गली की दूसरी तरफ मस्जिद में मुल्ला ने अजान । की बॉंग दी । चंदा कुछ देर खड़ा रहा, फिर उसने धीरे से कहा- “भैया !” बिस्तर में कन्हाई कुलबुलाया, अपनी अच्छीवाली आँख को मींडा । उसे क्या मालूम न था ? फिर भी भारी गले से पड़ा-पड़ा बोला - "कौन है ?" और कहते में वह स्वयं रुक गया । नहीं जानता तो क्या रात को दरवाजे खुले छोड़कर सोता । उसे खूब पता था कि कल सूरज - नारायण चढ़े न चद्रे मगर चंदा लगी भोर आकर बिसूरेगा । दोनों भाई असमंजस में थे । इसी समय चौधरी मुरली की बूढ़ी खाँसी सड़क पर सुनाई दी | चंदा की जान में जान आई। चौधरी को बहुत सुबह ही उठ जाने की टेव थी । वास्तव में टेव-फेव कुछ नहीं । दिन में हुक्का गुड़गुड़ाने से रात को ठसका सताता था और फिर उल्लू की तरह रात को जागकर वह सुबह ही बुलबुल की तरह जग जाते और लठिया ठनकाते सड़क से गली, गली से सड़क पर चक्कर मारते रहते । इतनी भोर को जो कन्हाई का द्वार खुला देखा, और फिर एक आदमी भी, तो पुकारकर कहा - "कौन है रे ?” चंदा को डूबते में सहारा मिला । लपककर पैर पकड़ लिए। "क्यों ? रोता क्यों है ?" चौधरी ने अचकचाकर पूछा, "रंपी कैसी है ?" "कहाँ है, चौधरी दादा”, चंदा ने रोते-रोते हिचकी लेकर कहा - "रात को ही चल बसी ।"

रोने का मोल

जब साँझ हो आई और अँधेरा आसमान की ललाई को फीका करने लगा तब शहर की बिजली की बत्तियाँ जगमगा उठीं। दूकानदारों की पलकें ठंडी हवा पाकर कुछ क्षण को बोझिल - सी धूलि से ढक गईं। कोलाहल बढ़कर थमने लगा। सड़कें चलने लगीं और कोहरा अभी से चिल्ला' में सघन होने लगा।

लोग घरों के दरवाजे बंद करने लगे। तभी एक बड़ा-सा ताकतवर कुत्ता गली में से निकलकर बीच सड़क पर रोने लगा। राहगीर चुपचाप चले जा रहे थे। किसी ने भी उससे कुछ नहीं कहा, केवल एकाध इक्केवाले ने उसे राह से हटाने को जोर से चाबुक की लकड़ी को पहिए में अटकाकर खड़खड़ा दिया। उसके निकल जाने पर कुत्ता फिर बीच में आकर रोने लगा।

दो मिनट बाद ही एक बड़ा-सा नुकीला पत्थर उसकी पीठ पर झल्लाकर आ गिरा। कुत्ता एक बार जोर से रोया और भूँकता हुआ गली में मुड़ गया। फेंकनेवाले ने मकान की कोख में से हँसकर कहा, "भाग गया साला! इतना बड़ा बदन लेकर भी बिल्कुल बेकार और डरपोक है।"

पंडित श्रीनारायण ने उफनते हुए कहा, "इतने सड़क पर चलते हैं, कोई कुछ नहीं कहता। धर्म नहीं रहा, वर्ना दिनदहाड़े कहीं भला सड़क पर कुत्ता रोने दिया जाता है?"

बड़े लड़के गोविंद ने कहा, "चाचा! इसकी तो गर्दन काट देनी चाहिए।"

छोटे मनोहर ने कुछ न समझकर कहा, "रो लेने दो उसे, उसी ने उस दिन मेहरा के घर से उतरते चोर को पकड़वाया था।"

माँ ने टोककर शीघ्रता से कहा, "नहीं रे, यह बुरा सौन है। यमदर्शन होते हैं। क्यों मुहल्ले में मारे है सबको?"

श्रीनारायण गरज पड़े, “मनोहर! अबकी कहियो।”

मनोहर उठकर गंभीर होगया। अँधेरा स्याह पड़ने लगा था। गोविंद ने 

नया समाज

शहर से चार मील दूर के उस छोटे-से गाँव की शांति, या नीरवता, अब टूट गई थी। पिछली लड़ाई के पहले केवल रेल की घड़घड़ाहट सुनाई देती थी या फिर बड़ी सड़क पर कभी-कभी साहब लोगों की शिकार पर जाती हुई रंगीन औरतों से लदी बड़ी-बड़ी मोटरें; वरना उधर तालाब के किनारे के सेंठे के जंगल में हवा भरकर गूँजा करती थी, जिनमें कभी-कभी बनैले सूअर थुथने फुफकारते घूमा करते थे। पर अब वही कारखाना भन भन करके शोर करता है। उसका धुआँ चिमनियों से उड़ता और फिर झुककर गाँव की ओर भागने लगता—जैसे वह इन्सान से दूर नहीं जाना चाहता हो—और छप्परों पर लोटकर वह फिर ऊपर उठने लगता। पर किसी को भी यह सब देखने की फुर्सत नहीं थी। लड़ाई के बाद भी गजब की महँगी थी। तिस पर अब मजदूर नौकरियों से निकाले जा रहे थे—छँटनी हो रही थी। रेल के डिब्बे उधर ही सरका दिए जाते थे। और बच्चे उन मालगाड़ियों के डिब्बों में खेला करते। उनके इर्द-गिर्द ही पहाड़ियों की गूँजती हुई आवाज उठती और फिर रेल की पटरियों के दोनों तरफ इकट्ठा किए गए जले कोयले के ढेरों के पीछे भागते हुए बच्चे अपनी-अपनी जगह से निकल भागने लगते। किनारे ही मजदूरों के लिए क्वार्टर बन गए थे। अक्सर तो मजदूर गाँव का था, पर इधर से जो शहर आ पहुँचा था, उसके लिए यह घर बनाना जरूरी हो गया था। वहाँ अक्सर पुलिस के सिपाही दिखाई देते। उनकी आँखों में एक खौफ़ की निशानी होती थी।
पर मास्टर साहब के लिए यह बातें दूर की थीं। जिंदगी का पत्थर बड़ा मजबूत था। उस पर किसी तरह अब सतत रस्सी के घिसने से कुछ गड्ढा-सा पड़ना शुरू हुआ था। मास्टर साहब कुछ-कुछ खिचड़ी बालों से, जिनकी टोपी के अंदर न सिर्फ चुटिया, बल्कि एक अधकचरी बुजुर्गी भी छिपी रहती थी, अपनी उम्र से अधिक दिखाई देत

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