क्रम
1. कोखजली - 7
2. गरम कोट - 20
3. भोला - 30
4. तुलादान - 40
5. ग्रहन - 50
6. लाजवंती - 59
7. कल्याणी - 72
8. मिथुन - 83
9. अपने दुख मुझे दे दो - 96
10. मुक्तिबोध - 123
कोखजली
घमंडी ने ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया ।
घमंडी की माँ उस वक़्त सिर्फ अपने बेटे के इंतिज़ार में बैठी थी । वह यह
बात अच्छी तरह जानती थी कि पहले पहर की नींद के चूक जाने से अब उसे
सर्दियों की पहाड़ - ऐसी रात जागकर काटनी पड़ेगी। छत के नीचे लातादाद
`सरकंडे गिनने के अलावा टिड्डियों की उदास और परेशान करनेवाली आवाज़ों
को सुनना होगा दरवाज़े पर ज़ोर-ज़ोर की दस्तक के बावजूद वह कुछ देर खाट
पर बैठी रही । इसलिए नहीं कि वह सर्दी में घमंडी को बाहर खड़ा करके उसके
घर में देर से आने की आदत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाहती थी, बल्कि
इसलिए कि घमंडी अब आ ही तो गया है।
यूँ भी बूढ़ी होने की वजह से उस पर एक क़िस्म का ख़ुशगवार आलकस,
एक मीठी-सी बेहिसी छाई रहती थी । वह सोने और जागने के दरमियान
मुअल्लक़ (लटकी) रहती। कुछ देर बाद माँ ख़मोशी से उठी, फिर से औंधी
लेटकर उसने अपने पाँव चारपाई से दूसरी तरफ लटकाए और घसीटकर खड़ी
हो गई। शमादान के क़रीब पहुँचकर उसने बत्ती को ऊँचा किया, फिर वापस
आकर खाट के साँखे में छिपाई हुई हुलास की डिबिया निकाली और इत्मीनान से
दो चुटकियाँ अपने नथनों में रखकर दो गहरे साँस लिए और दरवाज़े की तरफ़
बढ़ने लगी । लेकिन तीसरी दस्तक पर यूँ मालूम हुआ, जैसे किवाड़ टूटकर
ज़मीन पर आ रहेंगे ।
"अरे थम जा, उजड़गए।" माँ ने बरहम होकर कहा : "मुझे इंतिज़ार
दिखाता है और आप एक पल भी तो नहीं ठहर सकता ।'
किवाड़ के बाहर घमंडी के कानों पर लिपटे हुए मफ़तर को चीरते हुए माँ के
ये अल्फ़ाज़ घमंडी के कानों में पहुँचे, 'उजड़गए' ।
तुलादान
धोबी के घर कहीं गोरा चिट्टा छोकरा पैदा हो जाए तो उसका नाम बाबू रख
देते हैं। साधूराम के घर बाबू ने जन्म लिया और वह सिर्फ बाबू की
शक्लो-सूरत पर ही मौकूफ़ (स्थगित) नहीं था । जब वह बड़ा हुआ तो उसकी
तमाम आदतें बाबुओं-जैसी थीं। माँ को हिकारत से 'ऐ यू' और बाप को 'चल
बे' कहना उसने न जाने कहाँ से सीख लिया था । वह उसकी रऊनत (दंभ) से
भरी हुई आवाज़, फूँक-फूंककर पाँव रखना, जतों समेत चौके में चले जाना, दूध
के साथ बालाई न खाना- सभी सिफ़ात बाबुओंवाली ही तो थीं। जब वह
तहक्कुमाना (आदेशात्मक) अंदाज़ से बोलता और 'चल बे' कहता तो साधूराम
'खी खी बिल्कुल बाबू' कहकर अपने जर्द दाँत निकाल देता और फिर
ख़ामोश हो जाता ।
बाबू जब सुखनंदन, अमृत और दूसरे अभीरज़ादों में खेलता तो किसी को
मालूम न होता कि यह उस माला का मनका नहीं है। सच तो यह है कि ईश्वर ने
सब जीव-जंतु को नंगा करके इस दुनिया में भेज दिया है । कोई बोली ठोली
नहीं दी। यह नादार, लखपति, महा ब्राह्मण, भनोट, हरिजन, लंगुवा,
फ़रनीका सबकुछ बाद में लोगों ने ख़ुद ही ईजाद किया है ।
बुधई के पुरवा में सुखनंदन के माँ-बाप खाते-पीते आदमी थे और साधूराम
और दूसरे आदमी उन्हें खाते-पीते देखनेवाले। सुखनंदन का जन्मदिन आया तो
पुरवा के बड़े-बड़े नेतागण, देवभंडारी, डालचंद, गनपत, महाब्राह्मण वग़ैरा
खाने पर मदऊ किए गए । डालचंद और गणपत महाब्राह्मण दोनों मोटे आदमी
और क़रीब-क़रीब हरेक दावत में देखे जाते थे। उनकी उभरी हुई तोंद के
नीचे पतली-सी धोती में लँगोट, भारी-भरकम जिस्म पर हल्का-सा जनेऊ,
लंबी चोटी, चंदन का टीका देखकर बाबू जलता था और भला यह भी कोई