क्रम
1. मिस पाल - 6
2. आर्द्रा - 35
3. मलबे का मालिक - 50
4. उसकी रोटी - 61
5. पाँचवें माले का फ्लैट - 72
6. एक और जिन्दगी - 86
7. जानवर और जानवर - 115
8. वारिस - 134
मिस पाल
वह दूर से दिखायी देती आकृति मिस पाल ही हो सकती थी ।
फिर भी विश्वास करने के लिए मैंने अपना चश्मा ठीक किया । निःसन्देह,वह मिस पाल
ही थी । यह तो खैर मुझे पता था कि वह उन दिनों कुल्लू में ही कहीं रहती है, पर इस तरह
अचानक उससे भेंट हो जायेगी, यह नहीं सोचा था । और उसे सामने देखकर भी मुझे विश्वास
नहीं हुआ कि वह स्थायी रूप से कुल्लू और मनाली के बीच उस छोटे से गाँव में रहती होगी ।
जब वह दिल्ली से नौकरी छोड़कर आयी थी, तो लोगों ने उसके बारे में क्या-क्या नहीं सोचा था !
बस रायसन के डाकखाने के पास पहुँचकर रुक गयी । मिस पाल डाक-खाने के बाहर खड़ी
पोस्टमास्टर से कुछ बात कर रही थी । हाथ में वह एक थैला लिये थी । वस के रुकने पर न जाने
किस बात के लिए पोस्टमास्टर को धन्यवाद देती हुई वह बस की तरफ मुड़ी। तभी मैं उतरकर
उसके सामने पहुँच गया । एक आदमी के अचानक सामने आ जाने से मिस पाल थोड़ा अचकचा
गयी, मगर मुझे पहचानते ही उसका चेहरा खुशी और उत्साह से खिल गया ।
" रणजीत तुम ?” उसने कहा, "तुम यहाँ कहाँ से टपक पड़े ?"
“मैं इस बस से मनाली से आ रहा हूँ ।" मैंने कहा ।
"अच्छा! मनाली तुम कब से आये हुए थे ?”
“आठ-दस दिन हुए, आया था। आज वापस जा रहा हूँ ।"
" आज ही जा रहे हो ?" मिस पाल के चेहरे से आधा उत्साह गायब
हो गया, "देखो, कितनी बुरी बात है कि आठ-दस दिन से तुम यहाँ हो और
मुझसे मिलने की तुमने कोशिश भी नहीं की । तुम्हें यह तो पता ही था कि
होगा कि तुम किसी को यह भी न बताओ कि तुम मुझे यहाँ मिले थे । मैं
नहीं चाहती कि वहाँ कोई भी मेरे बारे में कुछ जाने या बात करे । समझे ।"
बस तब स्टार्ट हो रही थी और मैं खिड़की से झाँककर मिस पाल को
देख रहा था । बस चली तो मिस पाल हाथ हिलाने लगी । दोनों खाली
डिब्वे वह अपने हाथों में लिये हुए थी । मैंने भी एक बार उसकी तरफ
हाथ हिलाया और बस के मुड़ने तक हिलते हुए खाली डिब्बों को ही देखता रहा।
आर्द्रा
वचन को थोड़ी ऊँघ आ गयी थी, पर खटका सुनकर वह चौंक गयी । इरावती
ड्योढ़ी का दरवाजा खोल रही थी । चपरासी गणेशन आ गया था । इसका
मतलब था कि छः बज चुके थे । बचन के शरीर में ऊब और झुंझलाहट की
झुरझुरी भर गयी। बिन्नी न रात को घर आया था, न सुबह से अब तक
उसने दर्शन दिये थे। इस लड़के की वजह से ही वह यहाँ परदेस में पडी थी,
जहाँ न कोई उसकी जबान समझता था,
एक इरावती ही थी जिससे वह टूटी-फूटी हिन्दी में बात कर लेती थी,
हालांकि उसकी पंजाबी हिन्दी और इरावती की कोंकणी हिन्दी में जमीन-
आसमान का फर्क था। जब इरावती भी उसकी सीधे-सादे शब्दों में कही
साधारण-सी बात को न समझ पाती, तो बुरी तरह विवशता के खेद से दब
जाती। और इस लड़के को रत्ती चिन्ता नहीं थी कि माँ किस मुश्किल से
दिन काटती है और किस बेसब्री से इसका इन्तजार करती है । मन में आया,
तो घर आ गये, नहीं तो जहाँ हुआ पड़ रहे ।
एक मादा सूअर अपने छः बच्चों के साथ, जो अभी नौ-नौ इंच से बड़े
नहीं हुए थे, कुएँ की तरफ से आ रही थी । तूत के बुड्ढे पेड़ के पास पहुँचकर
उसने दो-तीन बार नाली को सूंघा और फिर पेड़ के नीचे हुफ्-हुफ् करते हुए
एक और जिन्दगी
और उस एक क्षण के लिए प्रकाश के हृदय की धड़कन जैसे रुकी रही ।
कितना विचित्र था वह क्षण - आकाश से टूटकर गिरे हुए नक्षत्र जैसा !
कोहरे के वक्ष में एक लकीर-सी खींचकर वह क्षण सहसा व्यतीत हो गया ।
कोहरे में से गुजरकर जाती हुई आकृतियों को उसने एक बार फिर
ध्यान से देखा । क्या यह सम्भव था कि व्यक्ति की आँखें इस हद तक उसे
धोखा दें ? तो जो कुछ वह देख रहा था, वह यथार्थ ही नहीं था ?
कुछ ही क्षण पहले जब वह कमरे से निकलकर वालकनी पर आया
था, तो क्या उसने कल्पना में भी यह सोचा था कि आकाश ओर-छोर
तक फैले हुए कोहरे में, गहरे पानी की निचली सतह पर तैरती हुई मछ-
लियों-जैसी जो आकृतियां नजर आ रही हैं, उनमें कहीं वे दो आकृतियाँ भी
होंगी ? मन्दिरवाली सड़क से आते हुए दो कुहरीले रंगों पर जब उसकी
नजर पड़ी थी, तब भी क्या उसके मन में कहीं ऐसा अनुमान जागा था ?
फिर भी न जाने क्यों उसे लग रहा था जैसे बहुत समय से, बल्कि कई दिनों
से, वह उनके वहाँ से गुजरने की प्रतीक्षा कर रहा हो, जैसे कि उन्हें देखने
के लिए ही वह कमरे से निकलकर बालकनी पर आया हो, और उन्हीं को
ढूँढ़ती हुई उसकी आंखें मन्दिरवाली सड़क की तरफ मुड़ी हों । यहाँ तक
कि उस धानी आँचल और नीली नेकर के रंग भी जैसे उसके पहचाने हुए
हों और कोहरे के विस्तार में वह उन दोनों रंगों को हो खोज रहा हो ।
वैसे उन आकृतियों के बालकनी के नीचे पहुँचने तक उसने उन्हें पहचाना
नहीं था । परन्तु एक क्षण में सहसा वे आकृतियाँ इस तरह उसके सामने
स्पष्ट हो उठी थीं जैसे जड़ता के क्षण के अवचेतन की गहराई में डूबा हुआ
कोई विचार एकाएक चेतना की सतह पर कौंध गया हो ।