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Pachpan Khambhe Lal Deewaren
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उषा प्रियम्वदा की गणना हिन्दी के उन कथाकारों में होती है जिन्होंने आधुनिक जीवन की ऊब, छटपटाहट, संत्रास और अकेलेपन की स्थिति को अनुभूति के स्तर पर पहचाना और व्यक्त किया है। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में एक ओर आधुनिकता का प्रबल स्वर मिलता है तो दूसरी ओर उनमें चित्रित प्रसंगों तथा संवेदनाओं के साथ हर वर्ग का पाठक तादात्म्य का अनुभव करता है; यहाँ तक कि पुराने संस्कारवाले पाठकों को भी किसी तरह के अटपटेपन का एहसास नहीं होता।
‘पचपन खम्भे लाल दीवारें’ उषा प्रियम्वदा का पहला उपन्यास है, जिसमें एक भारतीय नारी की सामाजिक-आर्थिक विवशताओं से जन्मी मानसिक यंत्रणा का बड़ा ही मार्मिक चित्रण हुआ है।
छात्रावास के पचपन खम्भे और लाल दीवारें उन परिस्थितियों के प्रतीक हैं जिनमें रहकर सुषमा को ऊब तथा घुटन का तीखा एहसास होता है, लेकिन फिर भी वह उनसे मुक्त नहीं हो पाती, शायद होना नहीं चाहती।
उन परिस्थितियों के बीच जीना ही उसकी नियति है। आधुनिक जीवन की यह एक बड़ी विडम्बना है कि जो हम नहीं चाहते, वही करने को विवश हैं। लेखिका ने इस स्थिति को बड़े ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत उपन्यास में चित्रित किया है। Usha priyamvda ki ganna hindi ke un kathakaron mein hoti hai jinhonne aadhunik jivan ki uub, chhataptahat, santras aur akelepan ki sthiti ko anubhuti ke star par pahchana aur vyakt kiya hai. Yahi karan hai ki unki rachnaon mein ek or aadhunikta ka prbal svar milta hai to dusri or unmen chitrit prsangon tatha sanvednaon ke saath har varg ka pathak tadatmya ka anubhav karta hai; yahan tak ki purane sanskarvale pathkon ko bhi kisi tarah ke ataptepan ka ehsas nahin hota. ‘pachpan khambhe laal divaren’ usha priyamvda ka pahla upanyas hai, jismen ek bhartiy nari ki samajik-arthik vivashtaon se janmi mansik yantrna ka bada hi marmik chitran hua hai.
Chhatravas ke pachpan khambhe aur laal divaren un paristhitiyon ke prtik hain jinmen rahkar sushma ko uub tatha ghutan ka tikha ehsas hota hai, lekin phir bhi vah unse mukt nahin ho pati, shayad hona nahin chahti.
Un paristhitiyon ke bich jina hi uski niyati hai. Aadhunik jivan ki ye ek badi vidambna hai ki jo hum nahin chahte, vahi karne ko vivash hain. Lekhika ne is sthiti ko bade hi kalatmak dhang se prastut upanyas mein chitrit kiya hai.

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एक

सुषमा को लगा कि नील आकर सिरहाने खड़ा हो गया है, फिर
उसने झुककर, धीरे-से उसके बाल छुए हैं। सुषमा चौंककर उठ
बैठी, चारों ओर घुप अँधेरा था। उसने काँपते हुए कंठ से पुकारा-
"नील!
बरामदे में सोई हुई भौंरी खाँसी - सुषमा ने पाया कि वह अपनी
चारपाई पर उठकर बैठी हुई है और नील कहीं नहीं है सब ओर
सन्नाटा है, भयावह, अकेला सन्नाटा। वह अकुलाकर खड़ी हुई और
उसने खिड़की पूरी खोल दी। बाहर से प्रकाश की एक फाँक आकर
उसके पैरों पर लोटने लगी और सुषमा छड़ों का ठंडा स्पर्श अनुभव

चार

 फिर सुषमा कुछ काम से बाजार गई, तो वहाँ अचानक ही नील
मिल गया। उसे देख नील के चेहरे पर ऐसी मुस्कान आई, जैसे
कि उसे बहुत बड़ी निधि मिल गई है। आग्रह कर वह सुषमा को वहाँ
से एक रैस्ट्रॉ में ले गया और ऑर्डर देकर बोला, आप नियति पर
विश्वास करती हैं?"
"क्यों?"
मैं आज यही सोच रहा था कि अभी कल ही तो आपके साथ
गया था, आज कैसे जाऊँ? पर देखिए, आप ही मिल गईं।
सुषमा को लगा कि नील की इस बात पर उसे बहुत बुरा लगना

बारह

अगले दिन नील का नौकर मीनाक्षी के पैकेट दे गया। सुषमा
थोड़ी-सी निराशा हुई। उसने सोचा था कि नील शायद स्वयं
जाए। दोपहर में नील ने सुषमा को फोन किया। फोन पर उसकी
आवाज बहुत बदल जाती थी और सुषमा को लगता था जैसे वह किसी
नए पुरुष से प्यार की बातें कर रही है। नील ने बताया कि वह फर्म
के काम से बम्बई जा रहा है, वहाँ कितने दिन लग जाएँ, निश्चय नहीं
था। उस वार्तालाप के बीच में मिस शास्त्री के जाने से सुषमा कह
भी सकी। उसके रिसीवर रखते ही मिस शास्त्री बोल उठीं- अब मुझे
होस्टल छोड़कर कहीं और ठिकाना ढूँढ़ना पड़ेगा। तुम्हें तो देखने-भालने

 



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