Nai Sadi Ka Panchtantra
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Author | Udya Prakash |
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Nai Sadi Ka Panchtantra
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केदारनाथ सिंह की कविता ‘बाघ' पर कुछ सोचने और कुछ लिखने का आज सबसे अधिक अनुकूल समय है। जैसा कि प्रचलन है, अगर औपचारिक, सार्वजनिक और उत्सवधर्मी भाषा का सहारा लें तो यह वर्ष, जो कि अपने आप में ही खासा ऐतिहासिक वर्ष है, संयोग से केदारनाथ सिंह की सृजनात्मक यात्रा का पचासवाँ वर्ष भी है। अर्थात हमारे समय के एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वरिष्ठ कवि की एक सचमुच लम्बी, खाइयों-शिखरों, उतार-चढ़ावों और चुप्पियों-अभिव्यक्तियों की कई अनेकरूपताओं से भरी महत्त्वपूर्ण काव्य-यात्रा की स्वर्णजयन्ती। केदारनाथ जी ने अभी-अभी बीत चुकी बीसवीं सदी के ठीक उत्तरार्द्ध से कविता लिखने की शुरुआत की थी। सन् 1950 से। लेकिन एक दशक तक लिखने के बाद, 1960 से 1980 तक, यानी लगभग बीस लम्बे वर्षों तक वे कविता के परिदृश्य से लगभग फरार रहे। इन बीस वर्षों में उनकी अनुपस्थिति और निःशब्दता, 1980 में उनकी वापसी के ठीक पहले तक, उनके रचनाकाल में अक्सर इतिहास में पाए जाने वाले किसी ‘अन्धकार युग' की तरह पसरी हुई है। इस ‘निस्तब्ध-काल' या ‘अज्ञातवास-काल' में अपने न लिखने के कारणों के बारे में अपने किसी भी साक्षात्कार में न तो उन्होंने कोई बहुत विस्तृत स्पष्टीकरण दिया है, न कविता के किसी उल्लेखनीय आलोचक ने इस अन्धकार की छानबीन की कोई खास चेष्टा की है।
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