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Muktibodh : Sampurna Kahaniyan
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कविता हो या कहानी, आलोचना हो या डायरी मुक्तिबोध इनमें हमेशा नयी शैली और नायाब तरीका अपनाते हैं, बिना किसी विधागत सीमाओं में बँधकर। उनके साहित्य का प्रतिमान सिर्फ़ उनका ही है, किसी और से उनकी तुलना हो ही नहीं सकती। काव्य-सृजन के साथ ही साथ मुक्तिबोध ने कहानी-विधा को भी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। 'तार सप्तक' के अपने 'वक्तव्य' में कहानी-लेखन के प्रति अपनी आत्मीयता उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त की है-'... साथ ही जिज्ञासा के विस्तार के कारण कथा की ओर मेरी प्रवृत्ति बढ़ गयी... कहानी लेखन आरम्भकरते ही मुझे अनुभव हुआ कि कथा-तत्त्व मेरे उतने ही समीप हैं जितना काव्य।' बेशक कहानीकार के रूप में मुक्तिबोध की चर्चा कम ही हुई लेकिन उल्लेखनीय बात यह है कि उनकी कहानियों में उनका प्रदीर्घ जीवन-संघर्ष एवं मध्यवर्ग के संकट ही अनेक रूपों में अभिव्यक्त हुए हैं। 'चाबुक', 'विद्रूप', 'समझौता', 'सतह से उठता आदमी' के पात्र अभिशप्त मध्यमवर्गीय जीवन्त स्त्री-पुरुष हैं। इनका जीवनदर्शन इतना धुँधला एवं संकट इतना गहरा है कि ये पात्र तथाकथित 'चरित्र चित्रण' में फिट ही नहीं बैठते। वैसे मुक्तिबोध की कहानियाँ परम्परागत अर्थ में कहानियाँ हैं ही नहीं, न उन्हें तत्कालीन नयी कहानी या प्रचलित किसी अन्य कथा-आन्दोलन से जोड़कर देखा जा सकता है। यह मुक्तिबोध का ही सर्जनात्मक कौशल था कि वे सामान्य परिवेश, पात्र एवं घटनाओं के सहारे सार्थक और विशिष्ट कहानी रच देते थे। यही कारण है कि 'दो चेहरे', 'आखेट', 'काठ का सपना', 'जलना' तथा 'ज़िन्दगी की कतरन' कहानियाँ साधारण शिल्प तथा कथ्य को उठाने के उपरान्त भी महत्त्वपूर्ण बन सकीं। उन्होंने कहानी लिखने के लिए कहानियाँ नहीं लिखीं, न ही शिल्प के लिए शिल्प की तलाश की। पारम्परिक भाषा, रूप और शैली को ही रचना का उत्कर्ष स्वीकारनेवाले आलोचकों को अवश्य ही मुक्तिबोध की कहानियाँ पढ़कर निराशा होगी। प्रचलित रचना-शिल्प से हटकर संस्मरण, संवाद, प्रतीक-विधान, फैण्टेसी, डायरी आदि के संश्लेष-विश्लेष से युक्त होकर 'मुक्तिबोध' की कहानियों में एक नवोन्मेषी समावेशी शिल्प उभरता है। मुक्तिबोध के लिए सत्य कहना और उसी सच को लिखना हर हाल में जरूरी था।
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