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Muktibodh Rachanawali : Vols. 1-6
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मुक्तिबोध उन कवियों में नहीं थे जो मन या मस्तिष्क के उबाल को कविता में उतारकर शान्तचित्त हो सो रहें। उनके लिए कविता आत्माभिव्यक्ति का माध्यम इस अर्थ में थी कि एक ओर वह उनके कथ्य को भाषा में व्यक्त करती थी और दूसरी ओर उस कथ्य को समानान्तर रूप में समृद्ध भी करती जाती थी। उनकी कविता के परिदृश्य को देखकर यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि कविता उनके लिए वन-वे मुक्तिमार्ग नहीं थी। वे बार-बार उसके पास लौटकर आते थे। अभिव्यक्ति की स्व-निर्धारित परिपूर्णता चुनौती की तरह उन्हें बार-बार बुलाती थी, और बार-बार वे अनुभव और अभिव्यक्ति के औजारों से ज्यादा सक्षम होकर आने के लिए उसे अधूरी छोड़कर जाते थे। शायद यही कारण है कि उनकी इतनी कविताएँ अधूरी हैं या कुछ कविताओं के कई-कई ड्राफ्ट मिलते हैं; और जिसके चलते उनका काव्य-संसार परम्परागत काव्य-प्रेमियों का सुखद स्वर्ग होने की बजाय पर्वतारोहण जैसा कुछ हो जाता है। ऊबड़-खाबड़, कभी-कभी थका देनेवाला, लेकिन अपने आकर्षण में सतत अकाट्य। रचनावली के अभी तक उपलब्ध संस्करण के दोनों कविता-खंडों के बाद यह नया खंड एक बार फिर इस तथ्य का प्रमाण है कि कविता के साथ मुक्तिबोध का सम्बन्ध उतना इकतरफा और उपयोगितावादी नहीं था जितना बाद में चलकर उनके नाम का ढोल पीटनेवाले हममें से अनेक का असाध्य रूप से हुआ। श्री रमेश मुक्तिबोध के श्रम से प्राप्त और व्यवस्थित की गई इस खंड में संकलित 'आधी-अधूरी, कुछ पूरी तथा भिन्न-भिन्न प्रारूपों के संयोजन से बनीÓ कुल 351 कविताएँ हमें यही बताती हैं कि कविता करना कुछ अलग-सा ही काम है, और इस काम को हमें कुछ ज्यादा गम्भीरता से लेना चाहिए। कवि के रूप में उनके क्या सरोकार थे, इन कविताओं में उन्होंने क्या कहने की कोशिश की है, यह सब यहाँ कहना मात्र दुहराव ही होगा। उस कसरत में न पड़कर बेहतर हो कि हम एक बार फिर शब्दों और अर्थों की उस भीषण प्रयोगशाला में साहसपूर्वक प्रवेश करें जिसके जादू को पकडऩे का प्रयास दशकों से किया जा रहा है।

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