फ़ेह्रिस्त
1 ठहरे हुए पानी में रवानी कोई शय तू
2 वरक़-वरक़ कोई हर्फ़-ए-दुआ’ चमकता है
3 हर्फ़-दर-हर्फ़ लिखा जाता है
4 ये ख़ामोशी मिरे कमरे में किस आवाज़ की है
5 उसे हम ने कभी देखा नहीं है
6 सहरा से नद्दी के सफ़र में रवाँ थी ख़ाक
7 रात दिन गर्दिश में हैं लेकिन पड़ा रहता हूँ मैं
8 ये किन मकानों से मुझ को हवा गुज़ारती है
9 मिरी दुनिया को सपना कर दिया है
10 तेरे सदक़े मिरे साहिब तुझे हासिल हुआ मैं
11 अब घर चलें मियाँ कि बहुत देर हो गई
12 जब से किसी के पाँव की `सानी' हुआ हूँ धूल
13 देखने वाली जगह थी देखने का काम था
14 जो हो रहा है वो भी कहाँ हो रहा है देख
15 कोई बताओ कि आख़िर किस इम्तिहान में है
16 रस्ता कोई मौजूद से आगे नहीं जाता
17 किनारे तोड़ के बाहर निकल गया दरिया
18 ये किस मक़ाम पे ले आए रास्ते मुझ को
19 हाल-ए-सुपुर्दगी में भी दिल को मलाल-सा रहा
20 इक साया कमरे में आया, आधी रात गए
21 देखूँ तुझे मैं जब भी तो पुर-मलाल देखूँ
22 इन्सान अन्दर-अन्दर कितना बिखर गया है
23 किसकी मौजूदगी है कमरे में
24 कहाँ आपको भी गवारा था मैं
25 आवाज़ की वसातत से रौशनी को पहुँचूँ
26 पहले भी तन्हा थे लेकिन हम को इ’ल्म न था
27 पहले मुझ को भी दुनिया से नफ़रत रहती थी
28 अब मिरी कहानी
29 ख़्वाब-दर-ख़्वाब बिगड़ती हुई सूरत उसकी
30 अपने ही आप में रस्ता हूँ मैं
31 हम दोनों एक दूजे के साथ ख़ुश नहीं थे
32 गुमशुदा रास्तों के मुसाफ़िर
33 सदा-ओ-ख़ामुशी के दर्मियाँ ठहरता है
34 मकाँ अपना मैं ढाए जा रहा हूँ
35 परिंदा फिर सफ़र पर जा रहा है
36 वही उदास-सी आँखें उदास चेहरा है
37 दर्द से दिल को निस्बत है
38 तुझे तो शौक़ था अपनी तरह से होने का
39 दीवार-ओ-दर ने रंगों से दामन छुड़ा लिया
40 फ़लक ज़रा सा है इस में ज़मीं ज़ियादा है
41 क़त्रा-ए-अश्क नहीं रौशनी करने के लिए
42 काम कुछ भी नहीं था करने को
43 आँख के किनारों पर बारिशें थीं शिद्दत की
44 ज़मीं पर क़हर ढाया जा रहा है
45 बदन के इख़्तियार में चला आया
46 तू मुझे कब बुलाने आया था
47 कब मुझे अपना ध्यान रहता है
48 कोई मुझमें ये अक्सर पूछता है
49 जो करना चाहता हो कर रहो बस
50 मिले हुए हैं इक मुद्दत से ख़ुद को खो कर देखें भी
51 एक दरिया है जिसकी रवानी था मैं
52 कब मोहब्बत से तुझे देखते हैं
53 बिगड़ता बनता हुआ कौन अब ये ख़्वाब में है
54 ये तेरा ख़्वाब मुझे एक ख़्वाब कर के रहेगा
1
ठहरे हुए पानी में रवानी कोई शय1 तू
मौजूद से आगे भी है या’नी कोई शय तू
1 वस्तु
जो एक है उस एक में हर हाल है तू ही
अव्वल1 में अगर है कहीं सानी2 कोई शय तू
1 प्रथम 2 द्वितीय
जो रूप है वो रंग से ख़ाली तो नहीं है
इन ज़र्द1 से पत्तों में है धानी2 कोई शय तू
1 पीला 2 हरा
सरसब्ज़1 है ता-हद्दे-नज़र2 रेत की खेती
मौजूद के सहराओं3 में पानी कोई शय तू
1 हरा-भरा 2 नज़र की हद तक 3 रेगिस्तान
हर सूरत-ए-इज़्हार1 नया रंग नई शक्ल
इस शह्र-ए-तग़य्युर2 में पुरानी कोई शय तू
1 अभिव्यक्ति का रूप 2 परिवर्तन का नगर
2
वरक़-वरक़1 कोई हर्फ़-ए-दुआ’2 चमकता है
मिरी किताब में किसका लिखा चमकता है
1 पन्ना 2 दुआ का अक्षर
ये ऐसे दिन तो नहीं हैं कि रौशनी हो बहुत
ब-फ़ैज़-ए-शौक़1 मिरा रास्ता चमकता है
1 प्रेम कृपा से
मिरे वजूद में तेरा वजूद ऐसे है
दरख़्त-ए-ज़र्द1 में जैसे हरा चमकता है
1 सूखा पेड़
नहीं है मेरी रियाज़त1 का इसमें कोई दख़्ल
तिरे ख़याल से ग़ार-ए-हिरा2 चमकता है
1 साधना 2 ध्यानस्थली, (मक्के के पास एक पहाड़ की गुफ़ा जहाँ हज़रत (स.अ.) मोहम्मद साहब ने साधना की थी)
ये रौशनी में कोई और रौशनी कैसी
कि मुझ में कौन ये मेरे सिवा चमकता है
मैं एक बार तो हैरान हो गया 'सानी'
ये मेरा अ’क्स है या आइना चमकता है
3
हर्फ़-दर-हर्फ़1 लिखा जाता है
किस से वो लफ़्ज़ पढ़ा जाता है
1 अक्षरशः
हाफ़िज़े1 में कोई मौजूद नहीं
तो किसे याद किया जाता है
1 स्मृति
अपनी आँखों से परे जा के उसे
इक नज़र देख लिया जाता है
शाख़-ए-जाँ1 सूखती जाती है तमाम
दर्द का फूल खिला जाता है
1 प्राणों की डाली
इस क़दर सोचता रहता हूँ उसे
वो मिरा ध्यान हुआ जाता है
अंदर-अंदर किसी तहख़ाने का
मुझ में दरवाज़ा खुला जाता है
अव्वल-अव्वल वही सानी1 'सानी'
तू भी धोके में पड़ा जाता है
1 द्वितीय
4
ये ख़ामोशी मिरे कमरे में किस आवाज़ की है
कहीं यूँ तो नहीं, तू बात करना चाहती है
वो क्या शय1 है जिसे मैं ढूँढता हूँ ख़ुद से बाहर
यहीं घर में कहीं इक शय भुला रक्खी हुई है
1 वस्तु
मैं तन्हाई को अपना हम-सफ़र क्या मान बैठा
मुझे लगता है मेरे साथ दुनिया चल रही है
कभी दीवार लगती है मुझे ये सारी वुस्अ’त1
कभी देखूँ इसी दीवार में खिड़की खुली है
1 फैलाव, विस्तार
उतरते जा रहे हैं रंग दीवारों से `सानी'
ये परछाईं सी क्या शय है जो इन पर रेंगती है
5
उसे हम ने कभी देखा नहीं है
वो हम से दूर है ऐसा नहीं है
जिधर जाता हूँ दुनिया रोकती है
‘इधर का रास्ता तेरा नहीं है'
मैं ऐसी यात्रा पर जा रहा हूँ
जहाँ से लौट कर आना नहीं है
सफ़र आज़ाद होने के लिए है
मुझे मन्ज़िल का कुछ धोका नहीं है
हमारे वास्ते होने की सूरत
वही है जो कहीं होता नहीं है
हुए आज़ाद जब जाना ये `सानी'
मफ़र1 का कोई भी रस्ता नहीं है
1 फ़रार, पलायन
6
सहरा1 से नद्दी के सफ़र में रवाँ थी ख़ाक
या’नी अपनी अस्ल में इक इम्काँ2 थी ख़ाक
1 रेगिस्तान 2 सम्भावना
ऐसी ताज़ाकारी1 इस बोसीदा2 वरक़3 पर
मेरी शक्ल में आने से पहले कहाँ थी ख़ाक
1 रचनात्मकता 2 बासी, गला-सड़ा 3 पन्ना
ख़ाक उड़ाई उस ने एक-इक आ’लम की
ये उस दौर की बात है जब कि जवाँ थी ख़ाक
इक ख़ुश्बू की ज़द में था उस का हर रक़्स1
और उसी ख़ुश्बू के लिए मकाँ थी ख़ाक
1 नृत्य
उस में जितनी गिरहें थीं सब आब1 की थीं
वर्ना अपने रंग में तो आसाँ थी ख़ाक
1 पानी
7
रात दिन गर्दिश में हैं लेकिन पड़ा रहता हूँ मैं
काम क्या मेरा यहाँ है सोचता रहता हूँ मैं
बाहर-अन्दर के जहानों से मिला मुझको फ़राग़1
तीसरी दुनिया के चक्कर काटता रहता हूँ मैं
1 छुटकारा
जाने कैसी रौशनी थी कर गयी अंधा मुझे
इस भयानक तीरगी1 में भी बुझा रहता हूँ मैं
1 अँधेरा
एक जंगल-सा उगा है मेरे तन के चारों ओर
और अपने मन के अन्दर ज़र्द1-सा रहता हूँ मैं
1 पीला, मुरझाया हुआ
एक नुक़्ते1 से उभरती है ये सारी क़ाएनात
एक नुक़्ते पर सिमटता फैलता रहता हूँ मैं
1 बिन्दु
रौशनी के लफ़्ज़ में तहलील1 हो जाने से क़ब्ल2