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मंडी - राजनीति का गम्भीर सामाजिक आशय किस तरह आज अपनी सार्थकता गँवाकर बाज़ार की ज़रूरतों में तब्दील हो चुका है, उसका आम आदमी को लेकर सत्ता के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचने वाला रूपक, कैसे क्रूर और जघन्य ढेरों हाथों के चंगुल में आकर उलझ गया है- ऐसी भयावहता की शिनाख्त अपने असम्भव अर्थों तक यह उपन्यास करता है।मंडी एक प्रतीक है, उस सच का और आज के निर्मम यथार्थ का, जिसमें सत्ता और तन्त्र साँप-सीढ़ी के पुराने खेल से बहुत आगे जाकर समकालीन अर्थों में राजनीति का आँखो देखा हाल बयाँ करती है। यह देखना गहरे अचम्भे में डालता है कि यह राजनीति, ख़ासकर उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में किस क़दर एक साथ दिलचस्प और त्रासद है, निर्मम और हास्यास्पद है तथा भीतर से खोखली व ऊपरी सतह पर अत्यन्त विडम्बनापूर्ण ढंग से एक बन्द अन्धेरी सुरंग में जाने को विवश है।वरिष्ठ पत्रकार बृजेश शुक्ल की क़लम से निकला हुआ उनका यह पहला उपन्यास ही इस बात की सफलतापूर्वक नुमाइन्दगी करता है कि पत्रकारिता के जीवन में रहते हुए उन्होंने समाज, राजनीति, सत्ता, तन्त्र, नौकरशाही और बाज़ार की, ज़र्रा-ज़र्रा और रेशा-रेशा महीन पड़ताल की है। वे एक कुशल ज़र्राह की तरह, विचारों एवं अनुभवों के नंगे चाकू से उत्तर प्रदेश के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का जिस बेबाकी से पोस्टमार्टम करते हैं, वह इस उपन्यास में देखने लायक है।राजनीति के दाँवपेचों को पारदर्शी ढंग से उघाड़ने के जतन में नौकरशाही और सत्ता के समीकरण को उसके नंगेपन तक पहुँचाने में तथा चुनावी माहौल और उससे उपजी सरगमी को एक सिद्ध क़िस्सागों की आवाज़ में सुनाने में, वे हमें अपनी लेखकीय यात्रा में हर दूसरे क़दम पर चौकाते हैं, हतप्रभ करते हैं और एक निश्चित बिन्दु पर ले जाकर आश्वस्त भी करते हैं।'मंडी' अपने शिल्प में साफ़गोई एवं जीवन्त भाषा शैली में हिन्दी के इधर के उपन्यासों में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है। एक पत्रकार की सन्तुलित पैनी निगाह से रचा गया यह उपन्यास अपने कथानक और गठन में एक सुन्दर राजनीतिक दस्तावेज़ बन पड़ा है।बृजेश शुक्ल यहाँ एक पत्रकार की हैसियत से नहीं, बल्कि एक उपन्यासकार के रूप में अपने निर्मम यथार्थ से, एवं पाठकों से ज़िरह करने के लिए रूबरू है।-यतीन्द्र मिश्र
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