Main Jab Tak Aayi Bahar
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Item Weight | 325 |
ISBN | 978-9360865214 |
Author | Gagan Gill |
Language | Hindi |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Pages | 168 |
Dimensions | 21*13.5*1.5 |
Publishing year | 2024 |
Edition | 1st |

Main Jab Tak Aayi Bahar
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‘मैं क्यों कहूँगी तुम से/अब और नहीं/सहा जाता/मेरे ईश्वर’—गगन गिल की ये काव्य-पंक्तियाँ किसी निजी पीड़ा की ही अभिव्यक्ति हैं या हमारे समय के दर्द का अहसास भी? और जब यह पीड़ा अपने पाठक को संवेदित करने लगती है तो क्या वह अभिव्यक्ति प्रकारान्तर से प्रतिरोध की ऐसी कविता नहीं हो जाती, जिसमें ‘दर्दे-तनहा’ और ‘ग़मे-ज़माना’ का कथित भेद मिटकर ‘दर्दे-इनसान’ हो जाता है? कविता इसी तरह इतिहास अर्थात समय का काव्यान्तरण सम्भव करने की ओर उन्मुख होती है।
गगन गिल की इन आत्मपरक-सी लगती कविताओं के वैशिष्ट्य को पहचानने के लिए मुक्तिबोध के इस कथन का स्मरण करना उपयोगी हो सकता है कि कविता के सन्दर्भ ‘काव्य में व्यक्त भाव या भावना के भीतर से भी दीपित और ज्योतित’ होते हैं, उनका स्थूल संकेत या भाव-प्रसंगों अथवा वस्तु-तथ्यों का विवरण आवश्यक नहीं है। इन कविताओं का अनूठापन इस बात में है कि वे एक ऐसी भाषा की खोज करती हैं, जिसमें सतह पर दिखता हल्का-सा स्पन्दन अपने भीतर के सारे तनावों-दबावों को समेटे होता है—बाँध पर एकत्रित जलराशि की तरह।
यह भी कह सकते हैं कि ये कविताएँ प्रार्थना के नये-से शिल्प में प्रतिरोध की कविताएँ हैं—प्रतिरोध उस हर सत्ता-रूप के सम्मुख जो मानवत्व मात्र पर, स्त्रीत्व पर भी, आघात करता है। इन आघातों का दर्द अपने एकान्त में सहने पर ही कवि-मन पहचान पाता है कि ‘मैं जब तक आयी बाहर एकान्त से अपने/बदल चुका था मर्म भाषा का’। ये कविताएँ काव्य-भाषा को उसकी मार्मिकता लौटाने की कोशिश कही जा सकती हैं।
—नन्दकिशोर आचार्य
गगन गिल की इन आत्मपरक-सी लगती कविताओं के वैशिष्ट्य को पहचानने के लिए मुक्तिबोध के इस कथन का स्मरण करना उपयोगी हो सकता है कि कविता के सन्दर्भ ‘काव्य में व्यक्त भाव या भावना के भीतर से भी दीपित और ज्योतित’ होते हैं, उनका स्थूल संकेत या भाव-प्रसंगों अथवा वस्तु-तथ्यों का विवरण आवश्यक नहीं है। इन कविताओं का अनूठापन इस बात में है कि वे एक ऐसी भाषा की खोज करती हैं, जिसमें सतह पर दिखता हल्का-सा स्पन्दन अपने भीतर के सारे तनावों-दबावों को समेटे होता है—बाँध पर एकत्रित जलराशि की तरह।
यह भी कह सकते हैं कि ये कविताएँ प्रार्थना के नये-से शिल्प में प्रतिरोध की कविताएँ हैं—प्रतिरोध उस हर सत्ता-रूप के सम्मुख जो मानवत्व मात्र पर, स्त्रीत्व पर भी, आघात करता है। इन आघातों का दर्द अपने एकान्त में सहने पर ही कवि-मन पहचान पाता है कि ‘मैं जब तक आयी बाहर एकान्त से अपने/बदल चुका था मर्म भाषा का’। ये कविताएँ काव्य-भाषा को उसकी मार्मिकता लौटाने की कोशिश कही जा सकती हैं।
—नन्दकिशोर आचार्य
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