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Mahayatra Gatha ( 4 Vol. Set)
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प्रस्तुत युग ऋग्वेद काल से प्रारम्भ होता है। हो सकता है ऋग्वेद के कुछ अंश इस काल से पहले ही बन चुके थे, परन्तु अधिकांश का प्रारम्भ अब ही हुआ। अन्य साक्ष्य बताते हैं कि ऋग्वेद और सामवेद का प्रणयन समकालीन हुआ। सामवेद के कुछ भाग की रचना परवर्ती काल में भी होती रही। इस समय अनेक राजा हुए, किन्तु हम केवल उस विशेष घटना को लेंगे, जिसने इतिहास की गति को बदला।
इस युग के उपरान्त राम का युग है, जिनके समय में पूर्वापर मिलाकर यजुर्वेद का प्रणयन हुआ और शूद्रों को समाज का अंग स्वीकार किया गया। किन्तु हमने वर्ण-व्यवस्था के साथ जाति-व्यवस्था का भी चित्रण किया है, क्योंकि इन दोनों के मिलने से ही भारतीय जीवन का विकास हुआ है।
जैन पुराणों में इसी युग की एक अन्य परम्परा प्राप्त होती है, जिसमें उनके अपने तीर्थंकरों का वर्णन आता है। ऋषभ से प्रारम्भ होकर अनेक तीर्थंकरों का वर्णन आता है। अरिष्टनेमि कृष्ण का समकालीन तीर्थंकर बताया जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि परम्परा अनेक जैन तीर्थंकरों को पुराना मानती है। परवर्ती तीर्थंकरों का वर्णन हम अलग करेंगे, जबकि जैन सम्प्रदाय का ब्राह्मण सम्प्रदाय से भेद स्पष्ट दिखाई देने लगेगा। हम नहीं कह सकते कि जैनों के आदि पुराण में जिस राजा भरत का वर्णन है, वह कौन था। हो सकता है कि वह दुष्यन्त का पुत्र ही हो, या कोई अन्य। जो हो, वह इतिहास में एक वीर नायक है, वह इतिहास को मोड़ता नहीं। ऋषभदेव को इक्ष्वाकुवंशी राजा नाभि और मरुदेवी का पुत्र बताया जाता है। वह विनीता नगरी में पैदा हुआ था। इसने राज्य किया था और इसका विवाह इन्द्रकन्या जयन्ती से हुआ बताया जाता है। भरत, कुशावर्त्त आदि इसके सौ पुत्र थे। श्रीमद्भागवत इन्हें वेदज्ञ बताती है। ऋषभदेव ने दावानल में गिरकर अपना शरीर त्यागा था। यह एक प्रकार से स्वयं मरना था।
—भूमिका से
मूल्य - 2000 (चारों भाग)
प्रकाशन - अनन्य प्रकाशन (नयी किताब प्रकाशन समूह)
About Author

जन्म : 17 जनवरी, 1923 को आगरा में जन्म । मूल नाम टी. एन. वी. आचार्य (तिरुमल्लै नम्बाकम् वीर राघव आचार्य) । कुल से दाक्षिणात्य । ढाई शतक से पूर्वज वैर (भरतपुर) के निवासी और वैर, बारोनी गांवों के जागीरदार । घर की बोली ब्रज और तमिल थी । शिक्षा : आगरा में । सेंट जॉन्स कॉलेज से 1944 में स्नातकोत्तर और 1948 में आगरा विश्वविद्यालय से गुरु गोरखनाथ पर पीएच. डी. । हिंदी, अंग्रेजी, ब्रज और संस्कृत पर उनका असाधारण अधिकार था । 13 वर्ष की आयु में लिखना शुरू किया । 23–24 वर्ष की आयु में ही अभूतपूर्व चर्चा के विषय बने । 1942 में अकालग्रस्त बंगाल की यात्रा के बाद उनका लिखा रिपोर्ताज ‘तूफानों के बीच’ हिंदी में चर्चा का विषय बना । हिन्दी में रिपोर्ताज विधा के विकास में रांगेय राघव का महत्वपूर्ण योगदान है । साहित्य के अतिरिक्त चित्रकला, संगीत और पुराततत्त्व में उनकी विशेष रुचि थी । साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में सिद्धहस्त थे । मात्र 39 वर्ष की आयु में साहित्य को कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज के अतिरिक्त आलोचना, सभ्यता और संस्कृति पर शोध संबंधी 150 से भी अधिक पुस्तकों से समृद्ध करने वाले वे अप्र

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