BackBack

Kya Kahoon Jo Ab Tak Nahin Kahi

Sujata

Rs. 425

वृन्दावन आकर कितनी ख़ुश थी मैं । जिस आश्रम में रहती थी यमुना के किनारे था। यमुना के किनारे-किनारे घने पेड़-पौधे लगे थे। लम्बे-लम्बे, बड़े-बड़े पेड़ । गुरुदेव कहते थे ये पेड़ नहीं, सन्त, महात्मा हैं। वृन्दावन में पेड़ बनकर तपस्या कर रहे हैं। वैसे तो सभी वृक्ष सन्त ही... Read More

HardboundHardbound
Reviews

Customer Reviews

Be the first to write a review
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)
readsample_tab
वृन्दावन आकर कितनी ख़ुश थी मैं । जिस आश्रम में रहती थी यमुना के किनारे था। यमुना के किनारे-किनारे घने पेड़-पौधे लगे थे। लम्बे-लम्बे, बड़े-बड़े पेड़ । गुरुदेव कहते थे ये पेड़ नहीं, सन्त, महात्मा हैं। वृन्दावन में पेड़ बनकर तपस्या कर रहे हैं। वैसे तो सभी वृक्ष सन्त ही होते हैं परोपकारी, पत्थर भी मारो तो फल देते हैं, अपनी छाया में शीतलता प्रदान करते हैं और धरती को प्रदूषित होने से बचाते हैं। एक बात मन को बहुत कचोटती है कि ये मानव जो इतने सभ्य और सुशिक्षित तो हो रहे हैं किन्तु पेड़ों को कितनी तेज़ी से काटते जा रहे हैं। जिन पेड़ों में गुरुदेव किसी को अपनी धोती नहीं टाँगने देते थे, आज वे पेड़ कट गये। आश्रमों और अट्टालिकाओं की भरमार लग गयी और वृन्दावन वृक्षविहीन हो गया। मैंने भी वृन्दावन के पेड़-पौधे से आच्छादित यमुना तट पर उसी आश्रम में एक पर्ण कुटीर बनाया था। सुबह होते ही सूर्य की किरणें छन-छन कर आतीं, पेड़ों के झुरमुट को बेंधती हुई नीचे धरती पर आकर इन्द्रधनुषी रंग बिखेर देतीं। कितनी अच्छी सुप्रभात होती। मोर जब सवेरे-सवेरे पिउ-पिउ करते तो मेरे हृदय से भी प्रेम का स्रोत फूट पड़ता। श्रीकृष्ण के लिए मेरा हृदय भी स्पन्दित हो जाता। हज़ारों तोते और अन्य दूसरे पक्षी कलरव करके मेरे सूने मन और आकाश को गुंजायमान कर हर्षित कर देते। सामने यमुना माँ मेरे सभी दुख-सुख की साक्षी बनी। इस माँ की ममता से विहीन मूढ़ा को कल-कल करके बहती हुई जीवन में आनन्द का संचार कर देती, मानो अपने वात्सल्य और ममतामयी स्पर्श से मुझ अभागन को तृप्त कर रही हों। जब भी उदास होकर यमुना तट पर बैठती, आँखों से आँसू गिरते तो शीघ्रतापूर्वक मेरे आँसू अपने प्रबल वेग में बहा ले जाती, मुझे लगता मेरी माँ मेरे आँसुओं को अपने में आत्मसात कर रही हैं। माफ़ करना मैं अपने आँसुओं को नहीं रोक पायी। अब क्यों उदास होती है अम्मा? वृन्दावन आकर तो अपने प्रियतम को पा लिया था। क्या घर की याद आती थी? अपनी आँखों में भरे आँसू को रोकते हुए ममता घोष ने कहा, उसकी आवाज़ से स्पष्ट लग रहा था कि उसे अभी भी घर की बेहद याद आ रही थी।
Description
वृन्दावन आकर कितनी ख़ुश थी मैं । जिस आश्रम में रहती थी यमुना के किनारे था। यमुना के किनारे-किनारे घने पेड़-पौधे लगे थे। लम्बे-लम्बे, बड़े-बड़े पेड़ । गुरुदेव कहते थे ये पेड़ नहीं, सन्त, महात्मा हैं। वृन्दावन में पेड़ बनकर तपस्या कर रहे हैं। वैसे तो सभी वृक्ष सन्त ही होते हैं परोपकारी, पत्थर भी मारो तो फल देते हैं, अपनी छाया में शीतलता प्रदान करते हैं और धरती को प्रदूषित होने से बचाते हैं। एक बात मन को बहुत कचोटती है कि ये मानव जो इतने सभ्य और सुशिक्षित तो हो रहे हैं किन्तु पेड़ों को कितनी तेज़ी से काटते जा रहे हैं। जिन पेड़ों में गुरुदेव किसी को अपनी धोती नहीं टाँगने देते थे, आज वे पेड़ कट गये। आश्रमों और अट्टालिकाओं की भरमार लग गयी और वृन्दावन वृक्षविहीन हो गया। मैंने भी वृन्दावन के पेड़-पौधे से आच्छादित यमुना तट पर उसी आश्रम में एक पर्ण कुटीर बनाया था। सुबह होते ही सूर्य की किरणें छन-छन कर आतीं, पेड़ों के झुरमुट को बेंधती हुई नीचे धरती पर आकर इन्द्रधनुषी रंग बिखेर देतीं। कितनी अच्छी सुप्रभात होती। मोर जब सवेरे-सवेरे पिउ-पिउ करते तो मेरे हृदय से भी प्रेम का स्रोत फूट पड़ता। श्रीकृष्ण के लिए मेरा हृदय भी स्पन्दित हो जाता। हज़ारों तोते और अन्य दूसरे पक्षी कलरव करके मेरे सूने मन और आकाश को गुंजायमान कर हर्षित कर देते। सामने यमुना माँ मेरे सभी दुख-सुख की साक्षी बनी। इस माँ की ममता से विहीन मूढ़ा को कल-कल करके बहती हुई जीवन में आनन्द का संचार कर देती, मानो अपने वात्सल्य और ममतामयी स्पर्श से मुझ अभागन को तृप्त कर रही हों। जब भी उदास होकर यमुना तट पर बैठती, आँखों से आँसू गिरते तो शीघ्रतापूर्वक मेरे आँसू अपने प्रबल वेग में बहा ले जाती, मुझे लगता मेरी माँ मेरे आँसुओं को अपने में आत्मसात कर रही हैं। माफ़ करना मैं अपने आँसुओं को नहीं रोक पायी। अब क्यों उदास होती है अम्मा? वृन्दावन आकर तो अपने प्रियतम को पा लिया था। क्या घर की याद आती थी? अपनी आँखों में भरे आँसू को रोकते हुए ममता घोष ने कहा, उसकी आवाज़ से स्पष्ट लग रहा था कि उसे अभी भी घर की बेहद याद आ रही थी।

Additional Information
Book Type

Hardbound

Publisher Vani Prakashan
Language Hindi
ISBN 978-9355188076
Pages 150
Publishing Year 2023

Kya Kahoon Jo Ab Tak Nahin Kahi

वृन्दावन आकर कितनी ख़ुश थी मैं । जिस आश्रम में रहती थी यमुना के किनारे था। यमुना के किनारे-किनारे घने पेड़-पौधे लगे थे। लम्बे-लम्बे, बड़े-बड़े पेड़ । गुरुदेव कहते थे ये पेड़ नहीं, सन्त, महात्मा हैं। वृन्दावन में पेड़ बनकर तपस्या कर रहे हैं। वैसे तो सभी वृक्ष सन्त ही होते हैं परोपकारी, पत्थर भी मारो तो फल देते हैं, अपनी छाया में शीतलता प्रदान करते हैं और धरती को प्रदूषित होने से बचाते हैं। एक बात मन को बहुत कचोटती है कि ये मानव जो इतने सभ्य और सुशिक्षित तो हो रहे हैं किन्तु पेड़ों को कितनी तेज़ी से काटते जा रहे हैं। जिन पेड़ों में गुरुदेव किसी को अपनी धोती नहीं टाँगने देते थे, आज वे पेड़ कट गये। आश्रमों और अट्टालिकाओं की भरमार लग गयी और वृन्दावन वृक्षविहीन हो गया। मैंने भी वृन्दावन के पेड़-पौधे से आच्छादित यमुना तट पर उसी आश्रम में एक पर्ण कुटीर बनाया था। सुबह होते ही सूर्य की किरणें छन-छन कर आतीं, पेड़ों के झुरमुट को बेंधती हुई नीचे धरती पर आकर इन्द्रधनुषी रंग बिखेर देतीं। कितनी अच्छी सुप्रभात होती। मोर जब सवेरे-सवेरे पिउ-पिउ करते तो मेरे हृदय से भी प्रेम का स्रोत फूट पड़ता। श्रीकृष्ण के लिए मेरा हृदय भी स्पन्दित हो जाता। हज़ारों तोते और अन्य दूसरे पक्षी कलरव करके मेरे सूने मन और आकाश को गुंजायमान कर हर्षित कर देते। सामने यमुना माँ मेरे सभी दुख-सुख की साक्षी बनी। इस माँ की ममता से विहीन मूढ़ा को कल-कल करके बहती हुई जीवन में आनन्द का संचार कर देती, मानो अपने वात्सल्य और ममतामयी स्पर्श से मुझ अभागन को तृप्त कर रही हों। जब भी उदास होकर यमुना तट पर बैठती, आँखों से आँसू गिरते तो शीघ्रतापूर्वक मेरे आँसू अपने प्रबल वेग में बहा ले जाती, मुझे लगता मेरी माँ मेरे आँसुओं को अपने में आत्मसात कर रही हैं। माफ़ करना मैं अपने आँसुओं को नहीं रोक पायी। अब क्यों उदास होती है अम्मा? वृन्दावन आकर तो अपने प्रियतम को पा लिया था। क्या घर की याद आती थी? अपनी आँखों में भरे आँसू को रोकते हुए ममता घोष ने कहा, उसकी आवाज़ से स्पष्ट लग रहा था कि उसे अभी भी घर की बेहद याद आ रही थी।