अनुक्रमणिका
1. बरसात है, हर शख़्स का घर डूब रहा है - 11
2. सूखे पत्तों सा यह शहर क्यों है? - 12
3. जब भी उठो लिहाफ़ हटाकर सुबह - सुबह - 14
4. जी हाँ मुझे पता है शीशा टूटेगा - 15
5. बाहर आने को मुश्किल से कोई दुख राज़ी होता है - 17
6. राजकोश की जूठन छोटी बड़ी किताबों में - 18
7. धँसी है आँख मिट्टी में, निगाहें आसमानों में - 19
8. आप बदले तो कहाँ हम भी पुराने से रहे - 20
9. एक मुजरिम को मसीहा नहीं बता सकते - 22
10. फाइलों में छिपा दिया पानी - 23
11. मन बँधते ही मरा काठ तन धीरे-धीरे नष्ट हुआ - 24
12. गुफ़्तगू ख़त्म हुई, तख़्त बचा, ताज रहा - 25
13. तेरा कहा तुझी पर लागू नहीं होता है - 26
14. रोज़ पीता है उसे इतना नशा आता है - 27
15. जश्न में हरगिज़ न जाऊँगा मुझे करना मुआफ़ - 28
16. आँकड़ों के ज़माने आए हैं - 29
17. सच बताने को तरसते हुए डर लगता है - 30
18. बातें कहीं हज़ार मगर सच बोल गया - 31
19. कहें वे लाख हमारे दिलों में रहते हैं - 32
20. यह समय है आँख के शोले बुझाने का - 33
21. क़तरा-क़तरा बिखर गए बादल - 34
22. गुज़र गया फूलों का मौसम चर्चा फ़िर भी फूल की - 35
23. मोड़ तीखे हो गए डरने लगे हैं रास्ते - 36
24. तोड़िये मत और इन टूटी ज़मीनों को - 37
25. बात की बिगड़ी हुई बस रात में है - 38
26. देख कर बगुला भगत को मछलियाँ खाते हुए - 39
27. बंदों को हमराज़, ख़ुदाओं को नाराज़ बनाता हूँ - 40
28. एक क़तरा भी जहाँ बेमौत मारा जाएगा - 41
29. स्वप्न था यह आपका ही सूर्य धरती से उगे - 42
30. ज़िद में बसने की भटकना होगा अब बसेरा कहीं नहीं दिखता - 43
31. शबों के हाथ में खंजर थमा गया कोई - 44
32. सब्ज़ बागों के फ़रेबात के सिवा क्या है - 45
33. सख़्त सौदागर समय है यूं हमें रहने न दे - 46
34. ज़हरवाले न हों कोई जगह ऐसी नहीं होती - 47
35. पूरी साड़ी फटी हुई है, नयी किनारी दिल्ली में - 48
36. एक भी मिसरा सुबह की धूप से कमतर नहीं - 50
37. रास आई है फिज़ा जबसे इबादतगाह की - 51
38. इक बियाबान में सपनों के सफ़र होता है - 52
3. जब कभी प्यार ज़माने से खार खाता है - 53
40. अक़्ल का कब्ज़ा हटाया जा रहा है - 54
41. आ गया सूरज बहुत नज़दीक अब कुछ सोचिए - 55
42. मौत से था डर जिन्हें सब घर गए - 56
43. हम तो आशिक़ हैं बारिश के कब से शीश मुड़ाकर बैठे - 57
44. दरिया बहाके बोल कि चिड़िया उड़ाके बोल - 58
45. सच कहूँ तो है यही उम्मीद की असली वजह - 59
46. शाम के पहले बहुत पहले हुआ सूरज हलाल - 60
47. माना, मेरा मुँह सी दोगे, उसकी जीभ कतर दोगे - 61
48. परिंदों ने समेटे पर ज़रा सी धूप बाक़ी है - 62
49. हाथ पे हाथ बुरी बात हटा ले कोई - 63
50. आँकड़ों से पीटना सरकार को महँगा पड़ा - 65
51. हज़ार ख़्वाब हमारी शबों में आते हैं - 66
52. हम अपनी बाग़ी चीख़ों के चलते जो मशहूर हुए - 67
53. नक़्शा जो मन के काग़ज़ पर बनता है - 69
54. स्याहियों में घुली फ़िज़ा मानो - 70
55. दे गई है पाक पुड़ियों में ज़हर तिरछी हँसी - 71
बरसात है, हर शख़्स का घर डूब रहा है ।
सपने बरस रहे हैं शहर डूब रहा है ।
किस सिम्त से निकला था किताबों से पूछिए
पूरब में आफ़ताब मगर डूब रहा है ।
सब धूप में डूबे हुए, दिल ओस में मछली
दिल डूब रहा है कि दहर डूब रहा है ।
निकलेगा साफ़-सुथरा उधर लाल क़िले पर
सड़ती हुई जमुना में इधर डूब रहा है ।
ये रेत सी बिखरी हुई हैं वक़्त की किरचें
इस रेत में साँसों का बहर डूब रहा है।
लहरों की उछालों का भरोसा नहीं रखना
तू डूब ही जाएगा अगर डूब रहा है ।
सबको पता है फिर भी पूछते हैं सब सवाल
वह डूब रहा है तो किधर डूब रहा है।
जो सोच से ख़ाली हैं सभी तैर रहे हैं
पर फ़िक्र में डूबा हुआ सर डूब रहा है ।
होने में मुकम्मल इसे गुज़रेगा महीना
इस चाँद से अब और न डर डूब रहा है ।
दे गई है पाक पुड़ियों में ज़हर तिरछी हँसी ।
अब हँसेगा आपका सीधा शहर तिरछी हँसी ।
स्याह बादल से ढँके हैं आजकल सातों फ़लक
है ख़ुदा के होंठ पर आठों पहर तिरछी हँसी ।
बेचने वाले इसे पर्वत बनाने लग गए
दे गई सरसों बराबर एक डर तिरछी हँसी ।
जोंक है डालो पसीने का नमक मारो इसे
मार सकती है लहू को चूसकर तिरछी हँसी ।
ख़ूब भाते हैं इसे जनतंत्र के ढीले लिबास
फैल सकती है कि जिसमें उम्र भर तिरछी हँसी ।
छेद कर हर जिल्द को दिल का लहू पीने लगी
होंठ से झरकर गिरी थी कोट पर तिरछी हँसी ।
फिर रहे हैं माँगते दिलकश ठहाके ठौर अब
कर गई अच्छे मकीं को दर-ब-दर तिरछी हँसी ।
प्यास बाँटी, कुएँ बेचे, दे गई है फाव में
अक़्ल को मेढ़क बनाने का हुनर तिरछी हँसी ।
उफ़ ख़बर लेती नहीं है और देती भी नहीं
पर सितम यह रोज़ बनती है ख़बर तिरछी हँसी ।