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Jo Dooba So Paar

Amir Khusrau

Rs. 349

जो डूबा सो पार - इस किताब में हिंदुस्तानी सूफ़ी परंपरा के सबसे रौशन चराग़ अमीर ख़ुसरौ के हिंदुस्तानी कलाम, फ़ारसी कलाम. फ़ारसी ग़ज़लें, सावन, कहमुकरियाँ और दोहों को शामिल किया गया है|   About the Author Hindi- सुमन मिश्र 14 अगस्त 1982, बड़हिया, लखीसराय (बिहार) में जन्मे सुमन मिश्र सूफ़ीवाद... Read More

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D
Dr Abhishek Mundhra

Jo Dooba So Paar

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nayim
Jo Dooba So Paar (जो डूबा सो पार)

जो डूबा सो पार" - एक महत्वपूर्ण किताब जिसमें हिंदुस्तानी सूफ़ी परंपरा के चराग़, अमीर ख़ुसरौ के हिंदुस्तानी कलाम, फ़ारसी कलाम, और विभिन्न शैलियों की कविताएँ हैं।

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nazama
Jo Dooba So Paar

super

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raj
Jo Dooba So Paar

Jo Dooba So Paar": Ek pratibhashali kalaakar, imandaar aur jeevan ke prashno par vichar karne wali ek adbhut film. Jeevan ki gehraiyon ko chhuta film. very nice...

E
Eklakh Ansari
रूह को सुकुन पहुचाने वाला कलाम औऱ ग़ज़ल

रूह को सुकुन पहुचाने वाला कलाम औऱ ग़ज़ल पढ़ते वक़्त एक अलग ही दुनियाँ में खो जाता हूँ मैं

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जो डूबा सो पार - इस किताब में हिंदुस्तानी सूफ़ी परंपरा के सबसे रौशन चराग़ अमीर ख़ुसरौ के हिंदुस्तानी कलाम, फ़ारसी कलाम. फ़ारसी ग़ज़लें, सावन, कहमुकरियाँ और दोहों को शामिल किया गया है|

 

About the Author Hindi- सुमन मिश्र 14 अगस्त 1982, बड़हिया, लखीसराय (बिहार) में जन्मे सुमन मिश्र सूफ़ीवाद के गंभीर अध्येता और कवि हैं । वह समय-समय पर भिन्न-भिन्न ज्ञान-अनुशासनों में सक्रिय रहे हैं, इसमें संगीत का भी एक पक्ष है । यह ध्यान देने योग्य है कि इन सभी स्रोतों ने सूफ़ीवाद के उनके अध्ययन को एक दुर्लभ मौलिकता दी है । उनका काम-काज कुछ प्रतिष्ठित प्रकाशन-स्थलों में प्रकाशित हो चुका है । वह रेख़्ता फ़ाउंडेशन के उपक्रम ‘सूफ़ीनामा’ से संबद्ध हैं ।

Description

जो डूबा सो पार - इस किताब में हिंदुस्तानी सूफ़ी परंपरा के सबसे रौशन चराग़ अमीर ख़ुसरौ के हिंदुस्तानी कलाम, फ़ारसी कलाम. फ़ारसी ग़ज़लें, सावन, कहमुकरियाँ और दोहों को शामिल किया गया है|

 

About the Author Hindi- सुमन मिश्र 14 अगस्त 1982, बड़हिया, लखीसराय (बिहार) में जन्मे सुमन मिश्र सूफ़ीवाद के गंभीर अध्येता और कवि हैं । वह समय-समय पर भिन्न-भिन्न ज्ञान-अनुशासनों में सक्रिय रहे हैं, इसमें संगीत का भी एक पक्ष है । यह ध्यान देने योग्य है कि इन सभी स्रोतों ने सूफ़ीवाद के उनके अध्ययन को एक दुर्लभ मौलिकता दी है । उनका काम-काज कुछ प्रतिष्ठित प्रकाशन-स्थलों में प्रकाशित हो चुका है । वह रेख़्ता फ़ाउंडेशन के उपक्रम ‘सूफ़ीनामा’ से संबद्ध हैं ।

सूफीनामा SU जो डूबा स अमीर ख़ुसरी सम्पादकः सुमन मिश्र मूल फ़ारसी से अनुवादः अमारा अली r जो डूबा सो पार अमीर ख़ुसरौ rekhta publications प्रस्तावना कुछ चिराग़ों का सफ़र अनोखा होता है। इन चिराग़ों से नए चिराग़ जलते हैं । हज़रत अमीर खुसरौ हिन्दुस्तानी सूफ़ी परंपरा के ऐसे ही चिराग़ हैं जिन्होंने न सिर्फ़ जीवन भर रौशनी लुटाई बल्कि नए चिराग़ भी जलाये जिनसे आज हिन्दुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब रौशन है । तुर्किस्तान में बल्ख़ नामक इलाक़े में एक बस्ती हज़ारे कहलाती है । हज़रत अमीर ख़ुसरौ का ख़ानदान यहीं रहता था। मंगोलों के अत्याचार से त्रस्त होकर यह परिवार हिन्दुस्तान आ गया। उस समय दिल्ली में गुलाम वंश का शासन था । आप के वालिद का नाम अमीर सैफ़ुद्दीन महमूद था। हिन्दुस्तान आ कर यह परिवार पटियाली उर्फ़ मोमिनाबाद नामक गाँव में बस गया । आज जिला एटा में एक क़स्बा है। यहीं बस्ती के नामवर दरवेश, रईस और जिला के मंसब-दार नवाब इ'मादुल-मुल्क की साहिब-ज़ादी के साथ अमीर सैफ़ुद्दीन महमूद की शादी हुई । इनके तीन पुत्र हुए । इज़ुद्दीन अली शाह, अबुल हसन और हिसामुद्दीन कुतलग़ । इजुद्दीन अली शाह, अरबी - फ़ारसी के विद्वान थे, अबुल हसन, अमीर ख़ुसरौ के नाम से प्रसिद्ध • हुए और सब से छोटे भाई हिसामुद्दीन कुतलग़ की साहित्य में रुचि न थी, उन्होंने अपने पिता की तरह एक सैनिक का जीवन व्यतीत किया । इन तीनों भाइयों में अबुल हसन (अमीर खुसरौ) सब से कुशाग्र बुद्धि के स्वामी थे। इनका जन्म सन् 1253 में हुआ। तारीख़ और रिवायत ये बयान करती है कि पड़ोस में कोई मज्जूब रहते थे। साहिब-ए-कश्फ़ लोग ख़िर्का में लपेट कर बच्चे को उन की ख़िदमत में लाए। बच्चे को देखते ही वह बोले ये किसको लेकर आए ? यह तो ख़ाक़ानी से भी दो क़दम आगे बढ़कर रहेगा | मज्जूब साहिब vii की निगाह-ए-कशफ़ी शाइ 'री की हद तक रही। बच्चे ने फ़क्र-ओ- दरवेशी में वो मक़ाम हासिल किया कि शाइ 'री भी मुँह ताकती रह । अमीर खुसरौ चार वर्ष की अल्पावस्था में अपने पिता के साथ दिल्ली आ गए। पिता ने अपने पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा का उत्तम प्रबंध किया था। अमीर ख़ुसरौ के पहले शिक्षक क़ाज़ी असदुद्दीन मुहम्मद ख़त्तात थे जो अपने समय के प्रसिद्ध ख़ुशनवीस (सुलेख लेखक) थे । अमीर ख़ुसरौ बचपन से ही शेर कह लेते थे। उन्हीं के कथनानुसार जब उन्होंने होश संभाला और उनके पिता ने उन्हें मकतब में बिठाया तो बालक अमीर ख़ुसरौ में ख़ुश-नवीसी से ज़ियादा शाइरी की धुन थी। उनकी साहित्यिक अभिरुचि देख कर क़ाज़ी असदुद्दीन उन्हें ख़्वाजा अज़ीज़ुद्दीन के पास ले गए और कहा- ख़्वाजा साहब ! यह मेरा शागिर्द है और शाइरी में ऊँची उड़ाने भरता है। ज़रा इसका इम्तिहान लीजिये ! ख़्वाजा साहब अपने समय के जाने-माने विद्वान थे। उन्होंने खुसरौ से कहा- मू, बैज़ा, तीर और ख़रबूजा, इन चार बेमेल चीज़ों को मिला कर शेर बनाओ । अमीर खुसरौ ने फ़ौरन कहा- हर मूई के दर दो ज़ुल्फ़-ए-आन सनम अस्त सद बैज़ई अम्बरीत बर आन मू-ए-सनम अस्त चूं तीर मदान रास्त दिलश रा ज़ीरा चूं ख़रबूजा दंदानश मियान-ए-शिकम अस्त ( उस प्रियतम के बालों के जो तार हैं, उन में से हर तार में अम्बर जैसी ख़ुशबू वाले सौ-सौ अंडे पिरोए हुए हैं। उस प्रियतम के ह्रदय को तीर जैसा सीधा-सादा मत समझो क्योंकि उसके भीतर ख़रबूजे जैसे दांत भी मौजूद हैं।) 01. 01. 02. 03. 04. 05. 06. 07. 08. 09. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. फ़ेहरिस्त क़ौल मन कुंतो मौला फ़-हाज़ा अलियुन मौला हिन्दुस्तानी कलाम अपनी छवि बनाय के जो मैं पी के पास गई आज रंग है ऐ महा-रंग है री मोहे अपने ही रंग में रंग दे रंगीले बहुत कठिन है डगर पनघट की बहुत दिन बीते पिया को देखे हज़रत ख़्वाजा संग खेलिए धमाल 33 34 37 38 39 40 ऐ री सखी मोरे पिया घर आए 41 जो मैं जानती बिसरत हैं सैय्याँ घुँघटा में आग लगा देती 42 बन के पंछी भए बावरे ऐसी बीन बजाई साँवरे 43 43 44 45 46 47 47 48 49 50 परदेसी बालम धन अकेली मेरा बिदेसी घर आव ना आज बधावा साजन के घर ऐ मैं वारी रै बहुत रही बाबुल घर दुल्हिनी चल तेरे पी ने बुलाई जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर घर नारी गँवारी चाहे जो कहे जो पिया आवन कह गए अजहूँ न आए बन बोलन लागे मोर दय्या री मोहे भिजोया री तोरी सूरत के बलिहारी निजाम 31 25 19. 20. 21. 01. 02. 03. 04. 05. 06. 07. 08. 09. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. पर्बत बाँस मँगवा मोरे बाबुल नीके मंडवा छिवाव रे काहे को ब्याहे बिदेस मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल फ़ारसी कलाम नमी-दानम चे मंज़िल बूद शब जाए कि मन बूदम ब-ख़ूबी हम- चु मह ताबिन्दा बाशी दो चश्मत कि तीर - ए - बला मी - जनद चश्म-ए-मस्ते अजबे ज़ुल्फ़-ए-दराज़े अजबे ऐ चेहरा-ए-ज़ेबा-ए-तू रश्क-ए-बुतान-ए-आज़री कफ़िर-ए-इश्क़म मुसलमानी मरा दरकार नीस्त जाँ ज़े तन बुर्दी-ओ-दर जानी हनूज़ ख़बरम रसीदा इमशब कि निगार ख़्वाही आमद मन-ओ-शब-ए-ज़िन्दगानी -ए-मन ईं अस्त तन पीर गश्त-ओ-आरज़ू-ए-दिल जवाँ हनूज़ दीशब कि मी रफ़्ती अयाँ रू कर्दा अज़ मा यक तरफ़ मा दिल-शुदगान-ए-बे-क़रारेम दीवाना शुदम दर आरज़ूयत ऐ ब-दर-माँदगी पनाह-ए-हमा अज़ फ़िराक़त ज़िन्दगानी चूँ कुनम मुफ़्लिसानेम आमदा दर कू-ए-तू 51 52 54 26 1413085 तु पु 50000RNAMKAR 56 60 61 62 64 दिलम दर आशिक़ी आवारा शुद आवारा तर बादा गुफ़्तम कि रौशन चूँ क़मर गुफ़्ता कि रुख़्सार-ए- मनस्त 68 हर शब मनम फ़तादा ब-गिर्द - ए - सरा-ए-तू मन बन्दा-ए-आँ रूए कि दीदन न-गुज़ारन्द 65 66 67 69 71 72 74 75 76 77 78 79 80 अपनी छवि बनाय के जो मैं पी के पास गई जब छवि देखी पीहू की तो अपनी भूल गई छाप * तिलक सब छीनी रे मोसे नैनाँ मिलाय के बात अधम कह दीन्हीं रे मोसे नैनाँ मिलाय के बल-बल जाऊँ मैं तोरे रंग-रेजवा अपनी सी रंग दीन्हीं रे मोसे नैनाँ मिलाइ के प्रेम-भटी का मदवा पिलाय के मतवारी कर दीन्हीं रे मोसे नैनाँ मिलाइ के गोरी गोरी बइयाँ हरी हरी चूड़ियाँ बईयाँ पकर धर लीन्हीं रे मोसे नैनाँ मिलाय के 'खुसरौ' 'निज़ाम' के बल-बल जइए मोहे सुहागन कीन्हीं रे मोसे नैनाँ मिलाइ के * छाप के माने यहाँ अंगूठी के हैं उदाहरणार्थ- वित्त बड़ाई में नहीं बड़ा न हूज्यों कोय छाप लई लघु आँगुली, रज्जब देखो जोय! संत रज्जब जी 33 आज रंग है ऐ महा-रंग है री आज रंग है ऐ महा-रंग है री मेरे महबूब के घर रंग है री मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया निजामुद्दीन औलिया अलाउद्दीन औलिया अलाउद्दीन औलिया फरीदुद्दीन औलिया फरीदुद्दीन औलिया कुत्बुद्दीन औलिया कुतबुद्दीन औलिया मोइनुद्दीन औलिया मुइनुद्दीन औलिया मुहिउद्दीन औलिया आ मुहिउद्दीन औलिया मुहिउद्दीन औलिया वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री अरे ऐ री सखी री वो तो जहाँ देखो मोरो बर संग है री मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया आहे आहे आहे वा मुँह माँगे बर संग है री वो तो मुँह माँगे बर संग है री निजामुद्दीन औलिया जग उजियारो 34 ऐ ब-दर-माँदगी पनाह-ए-हमा करम-ए-तुस्त उज्ज्र- ख़्वाह-ए-हमा Afte ऐ वो कि तू बे-बसी में सबकी पनाह है तेरा करम सब की क्षमा याचना को स्वीकार करने वाला है क़तराए ज़े अब्र - ए - रहमत-ए-तू बसस्त शुस्तन-ए-नामा-ए-सियाह-ए-हमा तेरी रहमत का एक क़तरा सब के पापों को धोने के लिए पर्याप्त है गुनाह-ए-मा हमा फ़ुज़ू ज़े क़ियास अफ़वत अफ़ज़ू - तर अज़ गुनाह-ए-हमा हम सब के गुनाह हद से ज़ियादा हैं, लेकिन तेरी मुआफ़ी सब के गुनाहों से बढ़कर है (यानी तेरी बख़्शिश की एक निगाह सब गुनाह-गारों के गुनाह धोने के लिए पर्याप्त है ) ब-तुफ़ैल-ए-हमा क़ुबूलम कुन इलाह-ए-मन-ओ-इलाह-ए-हमा ऐ ऐ मेरे और सब के महबूब ! तमाम बन्दों के तुफ़ैल में मुझको भी अपनी बारगाह में क़ुबूल फ़रमा ले 'ख़ुसरौ' अज़ तू पनाह मी-जोयद पनाह-ए-मन-ओ-पनाह-ए-हमा ऐ ऐ मेरी पनाह और सबकी पनाह ! 'खुसरौ ' तुझसे पनाह चाहता है 78 अज़ फ़िराक़त ज़िन्दगानी चूँ कुनम चुनीं ग़म शादमानी चूँ कुनम मन मैं तेरे विरह में ज़िन्दगी कैसे गुज़ारूँ ? मैं ग़म में खुशी का इज़हार कैसे करूँ? इश्क़-ओ-इफ़्लास-ओ-ग़रीबी-ओ-फिराक़ बदहा ज़िन्दगानी चूँ कुनम इश्क़, ग़रीबी, बेगाना- पन और विरह इन तमाम परेशानियों के साथ मैं ज़िन्दगी कैसे गुज़ारूँ? माह-ए-मन गुफ़्ती कि जाँ देह मी- देहम आशिक़म आख़िर गिरानी चूँ कुनम मेरे चाँद ! तू ने जान माँगी तो मैं जान देता हूँ आख़िर यह बोझ मैं कब तक उठाऊँ ? हाल-ए-ख़ुद दानम कि अज़ ग़म चूँ बुवद चूँ तू हाल-ए- मन न-दानी चूँ कुनम ग़म से जो मेरा हाल है उसे मैं ही जानता हूँ जब तू मेरी हालत नहीं जानता है तो मैं क्या करूँ? गर ब - 'खुसरौ' बोसा न-देही आश्कार मरहम-ए-ज़ख़्म-ए-निहानी चूँ कुनम अगर तू 'खुसरौ' को खुल कर चुम्बन देना नहीं चाहता तो मैं अन्दर के ज़ख़्म पर मरहम कैसे लगाऊँ? 79 दीदम बला-ए-नागहाँ आशिक़ शुदम दीवाना हम जानम ब-जाँ आमद हमी अज़ ख़्वेश-ओ-अज़ बेगाना हम मैं ने महबूब को देखा और मैं आशिक़ हो गया, बल्कि दीवाना भी मेरी जान में जान आई और मैं अपने आप से और अपनों से बेगाना हो गया दीवाना शुद ज़ू इश्क़ हम नागह बर - आवर्द आतिशी शुद रख़्त - ए - शहरी सोख़ता ख़ाशाक-ए-ईं वीराना हम उसे देख कर इश्क़ भी दीवाना हो गया अचानक ऐसी आग भड़की कि शहर का सारा सामान जल गया, वीराने के सब घास-फूस जल गए माँदह दो-चश्म-ए-मन ब-रह जाना म-कुन बेगानगी ईं ख़ाना इनक जान-ए-तू मी बायदत आँ ख़ाना हम मेरी दोनों आँखें मेरी जान के रस्ते पर लगी हुई हैं बेगानगी न करो कि यह घर तुम्हारा है, और वह घर भी तुम्हारा दो अबरूयत सर-हा ब-हम दर कार - ए- दुदी-हा-ए-दिल दुज़दीदह चश्मक मी-जनद आँ नर्गिस-ए-मस्ताना हम तुम्हारी दोनों भवें इकट्ठी हो कर दिल चुराने का काम करती हैं वह प्रेमिका भी चोरी-चोरी आँख मारती है हंगाम-ए-मस्ती-ओ-ख़ुशी चूँ बर हरीफ़ान-ए-तरब गह गह ब - बाज़ी गुल-ज़नी संगे बर ईं दीवाना हम अपने दोस्तों के साथ मस्ती और खुशी में कभी फूल फेंकते हो, मुझ दीवाने पर भी एक पत्थर फेंको 142 बर मन जाफ़ा - हा कज़ दिलत आयद चे ख़्वाही उज़र-ए-आँ रंजी कि बुर्दस्त आसिया मिन्नत म-नेह बर दाना हम मुझ पर जो ज़ुल्म करते हो, उनका क्या बहाना तलाश करते हो चक्की को जो तकलीफ़ उठानी पड़ी उसका एहसान अनाज के दानों पर मत रखो चूँ ख़्वाब नायद हर शब-ए- 'खुसरौ' फ़ितादह बर दर दर माह - ओ - पर्वी बनगरद ग़म गोयद - ओ - अफ़साना हम हर रात को चूँकि उसे नींद नहीं आती इसलिए 'खुसरौ' तुम्हारे दरवाज़े पर पड़ा है सितारों को देखता रहता है और उनसे अपना ग़म बयान बयान करता है 143 ख़ारे राह (मार्ग का काँटा): सूफ़ी अपनी हस्ती (अस्तित्व ) और अपनी ख़ुदी (अहंभाव) को 'ख़ारे राह' कहते हैं ख़ातिम ( पूर्ण कर्ता): वह साधक जिसने साधना मार्ग के समस्त पड़ाव पार कर लिए हों और कमाल की चरम अवसथा तक पहुँच गया हो ख़ाल (तिल) : वास्तविक 'एकत्व' का केंद्र - बिंदु, 'ख़ाल' एक पूर्ण शून्य का प्रतीक भी है। कई इसे 'पापों का अंधकार' भी कहते हैं ख़राब (मस्त) : परम प्रेम मे तल्लीन प्रेमी-साधक, जिज्ञासु ख़रावात (मदिरालय) : सूफ़ी के हृदय को कहते हैं, क्योंकि वह लौकिक प्रेम का आधार होता है और साधक इससे लाभान्वित होते हैं। समस्त दृश्य और अदृश्य जगत् जो परमात्मा के प्रेम और सत्ता की मदिरा को अपने में लिए हुए है। 'ख़रावात' से अभिप्राय वह स्थान भी है जहाँ से सूफ़ी को हृदय-शुद्धि की सामग्री हाथ आए । मुर्शिद का निवास स्थान ख़रावाती (मदिरा पान करने वाला): गुरु जो 'अहम्' को खो कर परमात्मा के साथ एकमेक जाता है; वह जो इस संसार के सापेक्षिक गुणों की भावना परे हो जाता है और ईश्वर के गुणों एवं कार्यों के चिंतन ही को प्रधान समझता है ख़िर्का (गुदड़ी) : त्याग और तपस्या का प्रतीक सूफ़ियों में ऐसी प्रथा है कि दीक्षा देते समय गुरु अपने शिष्य को गुदड़ी प्रदान करता है, इसे 'ख़िरक़ा-उत-तसव्वुफ़' भी कहते हैं। इसके कई लाभ हैं— प्रथम, शिष्य अपने गुरु की पोशाक़ धारण करता है, इससे बाहरी वेश-भूषा में भी गुरु की समानता प्राप्त हो जाती है। द्वितीय, गुरु द्वारा प्रदान किए हुए ख़िर्का से शिष्य को अपने गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। तृतीय, कंधा देते समय गुरु की एक विशेष हालत होती है और ईश्वर की विशेष कृपा होती है, इसलिए गुरु अपने ज्ञान-वक्ष से शिष्य की अवस्था से परिचित हो जाता है और उसमे जो अभाव पाता है, उसकी पूर्ति कर देता है। चतुर्थ, ख़िर्का की प्राप्ति के उपरांत शिष्य की गुरु के प्रति अधिक श्रद्धा, निष्ठा और आस्था हो जाती है ख़रीदार (मोल लेने वाला) : कर्मकांडी ख़िज्र ( एक अमर पैग़बर, क्योंकि उन्होंने आब-ए-हयात का पान किया हुआ है। वे पथप्रदर्शक हैं और स्थल पर भूले भटकों को रास्ता दिखाते हैं तथा समस्याओं का समाधान करते हैं) तसव्वूफ़ में 'ख़िज़', 'बस्त' की हालत का प्रतीक है। साधक के हृदय की विशालता तथा आनंदानुभूति को 'बस्त' कहते हैं ख़त (युवावस्था में गालों पर उगने वाले नए बाल ): परम सौंदर्य की अभिव्यक्ति ख़ल्वत (एकांत) : ईश्वर के सिवा शेष सब वस्तुओं का ख़्याल छोड़ कर ईश्वर 216 के प्रेम में तल्लीन होना और अपनी हस्ती से विभूत हो जाना ख़ल्वत है। सूफ़ियों के अनुसार साधक और साध्य में उन गहन और गंभीर बातों का होना, जिनका किसी को ज्ञान न हो, 'ख़ल्वत' है ख़ल्वत दर अन्जुमन (सभा में एकांत): संसार में रहते हुए भी सांसारिक विषय- वासनाओं में न पड़ना और याद -ए-इलाही में समय बिताना ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) : क़ुरान के अनुसार आदम ईश्वर के ख़लीफ़ा हैं। जब ईश्वर ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं भूमि पर अपना ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) नियुक्त करना चाहता हूँ, तो उन्होंने जवाब दिया, 'क्या तू ऐसे को नियुक्त करेगा, जो भ्रष्टाचार तथा रक्तपात करेगा? हम तो तेरी उपासना करते ही हैं।' उत्तर मिला, 'जो हम जानते हैं, वह तुम नहीं जानते ।' सूफ़ी इन आयतों द्वारा मनुष्य के महत्त्व तथा उसके अत्यंत उत्कृष्ट स्थान तक पहुँच जाने का दावा करते हैं। अतः वे इंसाने कामिल (पूर्ण मानव ) को 'ख़लीफ़ा' कहते हैं। जो व्यक्ति नबी का या किसी वली का उत्तराधिकारी हो, वह भी उसका ख़लीफ़ा कहलाता है खुमख़ाना (मदिरालय) : समस्त दृश्य और अदृश्य जगत् जो इश्क़-ए-इलाही की मस्ती में चूर है; गुरु का निवास स्थान ख़ुमार (मदिरालय) : ईश्वर का अपने आप को कस्रत के पर्दों में छिपाना। परमात्मा की भिन्न रूपों में अभिव्यक्ति को कस्रत कहते हैं। नूर-ए-मुहम्मदी ( मुहम्मद साहिब की ज्योति) या हक़ीक़त-ए-मुहम्मदी (मुहम्मद साहिब की वास्तविकता), अभिव्यक्ति का प्रथम रूप है। मान्यतानुसार ईश्वर ने सृष्टि की रचना के पूर्व अपने नूर (ज्योति) से मुहम्मद साहिब के नूर को उत्पन्न किया खुम्मार (मध-विक्रेता) : मुर्शिद जो आध्यात्मिक प्रेम की शराब के प्याले पिला कर अपने मुरीदों को मस्त करता है ख्वाब (स्वप्न) : सांसारिक जीवन ख़ुदी (अभिमान) : अहं ख़्याल (विचार) : तयेयुन-ए-अव्वल (प्रथम नियुक्ति) अर्थात् हक़ीक़त-ए-मुहम्मदी ( मुहम्मद साहिब की वास्तविकता), क्योंकि ज़ात (मूल सत्ता) ने सर्वप्रथम अपने आप को प्रकट करने का विचार इसी रूप में किया था (दाल) दाम (जाल, पाश) : प्रेम का अकर्षण दाना (चतुर, दक्ष) : साधक जो साधना पर अडिग हो दुर (मोती; मुक्ता) : आरिफ़ों (आत्मज्ञानियों) के वे इल्हामी वचन, जिनसे दिव्य 217

Additional Information
Book Type

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Publisher Rekhta Publications
Language Hindi
ISBN 978-9394494138
Pages 0
Publishing Year 2022

Jo Dooba So Paar

जो डूबा सो पार - इस किताब में हिंदुस्तानी सूफ़ी परंपरा के सबसे रौशन चराग़ अमीर ख़ुसरौ के हिंदुस्तानी कलाम, फ़ारसी कलाम. फ़ारसी ग़ज़लें, सावन, कहमुकरियाँ और दोहों को शामिल किया गया है|

 

About the Author Hindi- सुमन मिश्र 14 अगस्त 1982, बड़हिया, लखीसराय (बिहार) में जन्मे सुमन मिश्र सूफ़ीवाद के गंभीर अध्येता और कवि हैं । वह समय-समय पर भिन्न-भिन्न ज्ञान-अनुशासनों में सक्रिय रहे हैं, इसमें संगीत का भी एक पक्ष है । यह ध्यान देने योग्य है कि इन सभी स्रोतों ने सूफ़ीवाद के उनके अध्ययन को एक दुर्लभ मौलिकता दी है । उनका काम-काज कुछ प्रतिष्ठित प्रकाशन-स्थलों में प्रकाशित हो चुका है । वह रेख़्ता फ़ाउंडेशन के उपक्रम ‘सूफ़ीनामा’ से संबद्ध हैं ।