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“प्रेम हम सबको बेहतर शहरी बनाता है। हम शहर के हर अनजान कोने का सम्मान करने लगते हैं। उन कोनों में ज़ि‍न्‍दगी भर देते हैं....आप तभी एक शहर को नए सिरे से खोजते हैं जब प्रेम में होते हैं। और प्रेम में होना सिर्फ़ हाथ थामने का बहाना ढूँढ़ना नहीं होता। दो लोगों के उस स्पेस में बहुत कुछ टकराता रहता है। ‘लप्रेक’ उसी कशिश और टकराहट की पैदाइश है।” “prem hum sabko behtar shahri banata hai. Hum shahar ke har anjan kone ka samman karne lagte hain. Un konon mein zi‍‍dagi bhar dete hain. . . . Aap tabhi ek shahar ko ne sire se khojte hain jab prem mein hote hain. Aur prem mein hona sirf hath thamne ka bahana dhundhana nahin hota. Do logon ke us spes mein bahut kuchh takrata rahta hai. ‘laprek’ usi kashish aur takrahat ki paidaish hai. ”

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क्रम

1. इश्क़ के लायक बनें शहर - 9 

2. शहर का किताब बनना - 15 

3. एक दुनिया शहर - सी - 20 

4. होना, संग होना फिर-फिर... - 34 

5. लव एग्ज़ाम नोट्स घूमीफिरी, उफ़्फ़ ! - 46 

6. कुछ तेरा-सा, कुछ मेरा-सा - 62 

7. खाप कहीं आसपास - 80 

8. ज़ोर लगा के, ज़िन्दगी ! - 92 

9. अब आपकी बारी ... - 109 

 

इश्क़ के लायक़ बनें शहर
हीरो ! 1983 के साल में एक फ़िल्म आई थी। इसका एक गाना
है - प्यार करने वाले कभी डरते नहीं, जो डरते हैं वो
प्यार करते नहीं। मैं अक्सर यूट्यूब पर इस गाने को देखता रहता हूँ,
लेकिन इश्क़ में शहर होना के पहले सजिल्द संस्करण के लिए नई
भूमिका लिखते हुए इस गाने को फिर से देखने लगा। मौजूदा भारत के
सन्दर्भ में इस गाने का पूरा पाठ ही अब बदल गया है। इस गाने में नायक
का नाम जयकिशन है। नायिका का नाम राधा माथुर है इस गाने के सेट
और सन्दर्भ पर ग़ौर करें तो बहुत कुछ दिखता है। प्रेमी जोड़ा मंच से शहर
के दबंग पुलिस अधिकारी को चुनौती दे रहा है जो मंच के सामने मुख्य
अतिथि के रूप में बैठे हैं। यह अधिकारी राधा के पिता हैं इस गाने में
एक जगह 1960 में आई मुग़ल--आज़म फ़िल्म के एक सीन का
ज़िक्र है। बादशाह अकबर अनारकली को दीवारों में चिनवा देता है
यहाँ जयकिशन और राधा गा रहे हैं कि हद से हद क्या करेंगे, दीवार में
चिनवा देंगे! मुग़ल--आज़म की बेबस अनारकली का बदला हीरो
फ़िल्म के जयकिशन और राधा अपने गाने में ले रहे हैं कलाकार के
ख़ानदान के लिहाज़ से देखें तो पुलिस अफसर का किरदार निभाने वाले
शम्मी कपूर के दादा पृथ्वीराज कपूर ही तो अकबर बने थे कुछ नहीं
बदला, लेकिन बदलने की चाह भी तो नहीं बदली ! आनन्द बख्शी
लिखते हैं-
लम्बी दीवारें चुनवा दो
लाख बिठा दो पहरे
रस्ते में बिछा दो ऊँचे पर्वत सागर गहरे
तूफ़ाँ कब रुकते हैं बादल जब झुकते हैं
सारे कह उठते हैं सारे कह उठते हैं
प्यार करने वाले कभी डरते नहीं

शहर का किताब बनना

हमने शहर को हमेशा गाँव की नज़र से देखा है। जहाँ जाकर लोग
गाँव को भूल जाते हैं। शहर मेरी ज़िन्दगी में गाँव बनाम शहर
के रूप में आया। तब तक शहर हमारे लिए एक अस्थायी पता-भर था हम
'स्थायी पता' के कॉलम में गाँव का पता भरते थे। शहर के डेरे का नहीं
हर मौक़े पर बिहार की राजधानी पटना से मोतिहारी जिले के गाँव जितवारपुर
लौटना होता था। हर वक़्त घर और डेरा का फ़र्क़ बना रहता था। घर मतलब
गाँव, डेरा मतलब शहर
जब भी गाँव लौटकर आना होता था, उलाहनों की पूरी सीरीज़ तैयार
होती थी। बड़े-बुजुर्ग कहते थे कि गाँव ही अपना है। यही तुम्हारा वजूद है।
गाँव को ही जानो-पहचानो। शहर तो तुम्हें बिगाड़ रहा है। गाँव ही बनाएगा।
गाँव ही बचाएगा। हम भी ख़ुद को बचाकर रखते थे कि कोई पूरी तरह शहरी
समझ ले। पूरी कोशिश करते थे कि शहर हो जाएँ। शहर होने का
मतलब गाँव से विश्वासघात। उस ज़मीन से धोखा जिसे मेरे पुरखों ने सींचा
था। अपना खेत और पेड़ पहचानने पर बाबूजी से डाँट पड़ जाती थी। ऐसा
लगता था कि मेरे आस-पास की दुनिया मुझे शहर से बचाकर रखना चाहती
थी लेकिन मैं गाँव को बचाए रखते हुए शहर को खोजना चाहता था।
गाँव से शहर लौटने पर घर से बाहर निकलने की तमाम नई बन्दिशें
लागू हो जाती थीं। सूरज डूबने से पहले घर जाना है। बहुत दूर के किसी
मोहल्ले में यारी-दोस्ती के लिए नहीं जाना है। सिनेमा जाने की छूट इस शर्त
के साथ मिलती थी कि शाम से पहले जाना है। देर रात की फ़िल्में नहीं
देखनी हैं। बुरे चरित्रवाले ही इतनी रात तक सिनेमा देखते हैं। कोई साइकिल
छीन लेगा तो कोई भगा ले जाएगा। दोपहर में दरवाज़े-खिड़कियाँ सब बन्द
हो जाती थीं ' हम्बुराबी' के नियम जैसा बन गया था कि बाबूजी के लौटने
से पहले सबको लौट आना है। गाँव में ऐसा कोई नियम नहीं था इसलिए
हमने बचपन में गाँव को ख़ूब खोजा है वहाँ ग़ैर का भी अपना होता था
और शहर में सिर्फ़ अपना ही अपना होता है।

 


 

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