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'मेरा होना भी बस हुआ यूँ ही' शाइरी में मौजूद होने की एक सूरत, जिये होने को दोबारा जीने और हो चुके को अज़-सर-ए-नौ होने से गुज़ारने से बरू-ए-कार आती है। ज़िन्दगी करने या जीने के अमल को हू-ब-हू शाइरी में लाना मुहाल है, क्योंकि इसमें ऐसा बहुत कुछ होता है, जो शाइरी का ख़ाम माल तो बन सकता है, शाइरी नहीं बन सकता। दूसरी बात ये कि ज़िन्दगी करने के अमल पर हमारा कोई इख़्तियार नहीं होता। जबकि शाइरी में दोबारा की और जी जाने वाली ज़िन्दगी पूरी तरह हमारे इख़्तियार में होती है, क्योंकि ये ज़िन्दगी नहीं उसका अक्स होती है, और हम उसे बाहर से मारूज़ी तौर पर देख सकते हैं। अमीता परशुराम ने अपनी शाइरी में इसी इख़्तियार का बख़ूबी इस्तेमाल किया है। उनके यहाँ होने न होने, पाने-खो, मिलने-बिछड़ने के तजुर्बात जिस शिद्दत के साथ बयान में आते हैं, उसका सबब भी यही मालूम होता है कि उन्होंने अपने आप और ज़िन्दगी को बाहर से देखने वाली आँख हासिल कर ली है, एक और बात जो तवज्जो खींचती है कि उनके बेशतर शेर ग़ज़ल के माहौल में बसे मालूम होते हैं, यानी ग़ज़ल-ख़ानदान के फ़र्द नज़र आते हैं। और ये इसलिए मुमकिन हुआ है कि उर्दू की लफ़्ज़ियात और मुहावरे पर उनकी गिरफ़्त ख़ासी मालूम होती है। बेशतर शेरों को दो खानों में रखा जा सकता है, बाज़ शेर सिर्फ़ जज़्बात का इज़हार होते हैं और कुछ सिर्फ़ सोचे हुए, दोनों ही शाइरी की बे-आबरूई का बायस बनते हैं। अमीता परशुराम ने दूसरा और मुश्किल रास्ता इख़्तियार किया है। उनके शेर जज़्बों और महसूसात को समझने की कोशिश का हासिल होते हैं । इसलिए उनमें फ़िक्र की संजीदगी भी होती है और जज़्बों की आँच भी। हाँ निभाये हैं मोहब्बत के फ़राइज़ मैंने मुस्तहिक़ भी हूँ मगर कोई भी इनआम न दे उसने मेरी ही रफ़ाक़त को बनाया मुल्ज़िम मैं अगर भीड़ में थी वो भी अकेला कब था बज़्म-ए-शेर में ऐसे शेरों की शाइरा का ख़ैर-मक़दम है। -फ़रहत अहसास
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