Description
पृथ्वी को सिकोड़कर एक शब्द में घटित करना एक असम्भव लक्ष्य है पर कविता में, प्रेम में यह हो सकता है। एक ऐसी कवि, जिसे याद है, 'वास्तविक दुनिया का वीरान', 'पाप किस भव्यता से आता है' और यह भी कि 'मैं लापता हूँ', अपनी स्मृतियाँ बुनती, अपने पुरा-पड़ोस को ध्यान से देखती, अपने घर में रहती और विकल होती है और यह सब कविता में करती है। दूर केरल में फिलहाल बसी, विज्ञान और टेक्नोलॉजी में सुशिक्षित, कवयित्री अनामिका अनु ऐसी अप्रत्याशित कवि हैं। उनकी उत्तर-आधुनिकता जो दूर बीत चुका है उसे भी ध्यान में लेती है और आज जो दारुण-भीषण हो रहा है, दुनिया में, मानवीय सम्बन्धों में, हमारे आसपास उसे दर्ज और प्रश्नांकित करती है। उसमें घर-गाँव, पड़ोस और शहर सबके लिए जगह बनती चलती है। कविता को रूपायित-संयमित करने की कुशलता अभी थोड़ी कम है पर बहुत सारा, बिना किसी नाटकीयता या मुद्राग्रस्त हुए, कहने का साहस उनमें है... ऐसे कई शब्द-पद-बिम्ब हैं जो इस कविता के बहाने हिन्दी कविता के वितान में शायद पहली बार शामिल हुए हैं। वे भाषा की विलक्षण स्थानीयता और पदार्थमयता का जीवन्त साक्ष्य हैं।