Ichhamritu
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Item Weight | 296 |
ISBN | 978-8171196708 |
Author | Shivshankri |
Language | Hindi |
Publisher | Rajkamal |
Pages | 131 |
Dimensions | 22.5*14.5*1.5 |
Edition | 2nd |

Ichhamritu
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किसी दुर्घटना या रोग-जर्जर अवस्था के कारण कोई व्यक्ति अगर स्वस्थ या फिर जीवित रहने की तमाम संभावनाओं से परे चला जाए तो क्या इच्छामृत्यु ही उसका एकमात्र उपचार है? क्या उसे उसकी असह्य-असाध्य पीड़ा अथवा दयनीयता से बचाने का यही अकेला रास्ता है? और, क्या इसे मानवीय कहा जा सकता है? सुपरिचित तमिल लेखिका शिवशंकरी का यह उपन्यास इसी समस्या से रू-ब-रू कराता है। कथाकेंद्र में हैं जननी और सत्या। दोनों ही शिक्षित और सुसंस्कृत पति-पत्नी हैं। जननी नर्तकी है और सत्या एक पत्रिका का संपादक। दोनों ने कुछ ही वर्ष पूर्व
प्रेम-विवाह किया था। दोनों में अथाह प्रेम, समर्पण और सुख-दुःख की समानुभूति। तभी एक दिन
नृत्य-प्रदर्शन के दौरान जननी दुर्घटनाग्रस्त होने से कोमा में चली जाती है। लगभग साल-भर तक जब वह ज्यों की त्यों पड़ी रहती है तो सत्या विचलित हो उठता है और उसे जननी के ही वे विचार अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं कि जब कोई प्राणी अपनी रुग्णावस्था के चलते खुद पर और दूसरों पर बोझ बन जाए तो उसे खत्म कर देना चाहिए। कहना न होगा कि सत्या लम्बे आत्मद्वंद्व से गुजरते हुए जननी को इच्छामृत्यु देने का उपक्रम करता है, लेकिन एक दिलचस्प बदलाव के कारण अपने में ही उलझ जाता है।
संक्षेप में कहा जाए तो शिवशंकरी का यह उपन्यास पल-पल मृत्यु-भय से गुजरते हुए जीवन की रक्षा करता है, और इस प्रक्रिया में जीवन-मृत्यु संबंधी अनेक पहलुओं की भावाकुल पड़ताल भी करता है। इसके साथ ही इसमें दाम्पत्य जीवन की जैसी सुगंध समाई हुई है, वह इसे एक और आयाम देती है।
प्रेम-विवाह किया था। दोनों में अथाह प्रेम, समर्पण और सुख-दुःख की समानुभूति। तभी एक दिन
नृत्य-प्रदर्शन के दौरान जननी दुर्घटनाग्रस्त होने से कोमा में चली जाती है। लगभग साल-भर तक जब वह ज्यों की त्यों पड़ी रहती है तो सत्या विचलित हो उठता है और उसे जननी के ही वे विचार अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं कि जब कोई प्राणी अपनी रुग्णावस्था के चलते खुद पर और दूसरों पर बोझ बन जाए तो उसे खत्म कर देना चाहिए। कहना न होगा कि सत्या लम्बे आत्मद्वंद्व से गुजरते हुए जननी को इच्छामृत्यु देने का उपक्रम करता है, लेकिन एक दिलचस्प बदलाव के कारण अपने में ही उलझ जाता है।
संक्षेप में कहा जाए तो शिवशंकरी का यह उपन्यास पल-पल मृत्यु-भय से गुजरते हुए जीवन की रक्षा करता है, और इस प्रक्रिया में जीवन-मृत्यु संबंधी अनेक पहलुओं की भावाकुल पड़ताल भी करता है। इसके साथ ही इसमें दाम्पत्य जीवन की जैसी सुगंध समाई हुई है, वह इसे एक और आयाम देती है।
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