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Ghere Se Bahar

Santvana Nigam

Rs. 450

चले जाने से कुछ दिन पहले बाबा कहते थे-‘कौतो कौथा बोलार छिलो, बौला होलोना', यानी कितनी ही बातें बतानी थीं, जो बतानी नहीं हुईं। तब से मैं सोचती थी मैं बता कर जाऊँगी। सब नहीं तो कुछ तो-थोड़ा बहुत । सो यह थोड़ी बहुत आपबीती। बहुत कुछ छूट गया जो... Read More

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चले जाने से कुछ दिन पहले बाबा कहते थे-‘कौतो कौथा बोलार छिलो, बौला होलोना', यानी कितनी ही बातें बतानी थीं, जो बतानी नहीं हुईं। तब से मैं सोचती थी मैं बता कर जाऊँगी। सब नहीं तो कुछ तो-थोड़ा बहुत । सो यह थोड़ी बहुत आपबीती। बहुत कुछ छूट गया जो लिख कर जाने की इच्छा है अगर ज़िन्दगी ने इजाज़त दी और समय दिया। कहना न होगा, ये संस्मरण मेरे हैं बाबा के नहीं। ज़िन्दगी के तजरुबों को हम सब अपनी तरह से जज़्ब कर लेते हैं। मगर शायद इसके बावजूद काफ़ी कुछ ऐसा होता है जो नितान्त व्यक्तिगत नहीं होता। इसीलिए शायद औरों की आपबीतियों में हमें अपने जीवन की गूंज भी सुनाई देती है। ये संस्मरण 2011 और 2012 के दरम्यान लिखे गये मगर पाठकों के सामने अब आ रहे हैं। यह बताना इसलिए ज़रूरी है कि तब से अब के फ़ासले में कई और घटनाएँ घटित हो गयीं। कई सहकर्मी और दोस्त जो तब (2011-2012 में) ज़िन्दा थे अब नहीं रहे। ऐसा ही अन्य कई बातों के बारे में लग सकता है। पाठकों से गुज़ारिश है कि इसे पढ़ते समय यह बात ध्यान में रखें।
Description
चले जाने से कुछ दिन पहले बाबा कहते थे-‘कौतो कौथा बोलार छिलो, बौला होलोना', यानी कितनी ही बातें बतानी थीं, जो बतानी नहीं हुईं। तब से मैं सोचती थी मैं बता कर जाऊँगी। सब नहीं तो कुछ तो-थोड़ा बहुत । सो यह थोड़ी बहुत आपबीती। बहुत कुछ छूट गया जो लिख कर जाने की इच्छा है अगर ज़िन्दगी ने इजाज़त दी और समय दिया। कहना न होगा, ये संस्मरण मेरे हैं बाबा के नहीं। ज़िन्दगी के तजरुबों को हम सब अपनी तरह से जज़्ब कर लेते हैं। मगर शायद इसके बावजूद काफ़ी कुछ ऐसा होता है जो नितान्त व्यक्तिगत नहीं होता। इसीलिए शायद औरों की आपबीतियों में हमें अपने जीवन की गूंज भी सुनाई देती है। ये संस्मरण 2011 और 2012 के दरम्यान लिखे गये मगर पाठकों के सामने अब आ रहे हैं। यह बताना इसलिए ज़रूरी है कि तब से अब के फ़ासले में कई और घटनाएँ घटित हो गयीं। कई सहकर्मी और दोस्त जो तब (2011-2012 में) ज़िन्दा थे अब नहीं रहे। ऐसा ही अन्य कई बातों के बारे में लग सकता है। पाठकों से गुज़ारिश है कि इसे पढ़ते समय यह बात ध्यान में रखें।

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Book Type

Hardbound

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Publishing Year

Ghere Se Bahar

चले जाने से कुछ दिन पहले बाबा कहते थे-‘कौतो कौथा बोलार छिलो, बौला होलोना', यानी कितनी ही बातें बतानी थीं, जो बतानी नहीं हुईं। तब से मैं सोचती थी मैं बता कर जाऊँगी। सब नहीं तो कुछ तो-थोड़ा बहुत । सो यह थोड़ी बहुत आपबीती। बहुत कुछ छूट गया जो लिख कर जाने की इच्छा है अगर ज़िन्दगी ने इजाज़त दी और समय दिया। कहना न होगा, ये संस्मरण मेरे हैं बाबा के नहीं। ज़िन्दगी के तजरुबों को हम सब अपनी तरह से जज़्ब कर लेते हैं। मगर शायद इसके बावजूद काफ़ी कुछ ऐसा होता है जो नितान्त व्यक्तिगत नहीं होता। इसीलिए शायद औरों की आपबीतियों में हमें अपने जीवन की गूंज भी सुनाई देती है। ये संस्मरण 2011 और 2012 के दरम्यान लिखे गये मगर पाठकों के सामने अब आ रहे हैं। यह बताना इसलिए ज़रूरी है कि तब से अब के फ़ासले में कई और घटनाएँ घटित हो गयीं। कई सहकर्मी और दोस्त जो तब (2011-2012 में) ज़िन्दा थे अब नहीं रहे। ऐसा ही अन्य कई बातों के बारे में लग सकता है। पाठकों से गुज़ारिश है कि इसे पढ़ते समय यह बात ध्यान में रखें।