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अरविन्द मोहन

अरविन्द मोहन ने अपनी पत्रकारिता की व्यवस्थित शुरुआत जनसत्ता की पहली टोली के साथ 1983 से की, लेकिन इससे पहले से ही वे सामयिक वार्ता, दिनमान, रविवार और इतवारी पत्रिका में लिखने लगे थे। 1986 में जब हिन्दी इंडिया टुडे का प्रकाशन शुरू हुआ तो वे उसकी शुरुआती टीम में भी थे। 1995 में वे हिन्दुस्तान आ गए थे, जहाँ अभी हाल तक सम्पादक (विकास) थे। इन दिनों वे सीएसडीएस में सम्पादक होने के साथ-साथ पत्रकारिता पढ़ाने के कई संस्थानों में अध्यापन भी करते हैं।

1974 के जेपी आन्दोलन से राजनीतिक रूप से सचेत होने वाले अरविन्द खुद को सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता भी मानते हैं और अपनी पत्रकारिता को इससे अलग करके नहीं देखते। उन्होंने इस लम्बे पत्रकार जीवन के बीच से वक्त निकाल कर गम्भीर लेखन भी किया है। के.के. बिड़ला फाउण्डेशन की शोधवृत्ति के तहत उन्होंने पंजाब गए बिहारी मजदूरों की दशा पर अध्ययन किया तो मैटर फार माइण्ड एण्ड इंवायर्नमेण्ट के लिए देश-भर की पारम्परिक जल-संचय प्रणालियों पर एक बड़े ग्रन्थ बूंदों की संस्कृति का सम्पादन भी किया है। 1993 में भूमण्डलीकरण पर सम्भवतः देश में पहली किताब गुलामी का खतरा तथा गुजरात दंगों पर एक किताब दंगा नहीं नरसंहार का सम्पादन किया है। पत्रकारिता पर उनकी पहली किताब पत्रकार

और पत्रकारिता प्रशिक्षण के लिए उन्हें भारतेन्दु पुरस्कार भी मिला है तो प्रवासी मजदूरों की पीड़ा के लिए हिन्दी अकादमी का पुरस्कार। उन्होंने अमर्त्य सेन, विमल जालान, आशुतोष वार्ष्णेय, सच्चिदानन्द सिन्हा, अजित भट्टाचार्य, लक्ष्मीधर मिश्र, रजनीपाल दत्त जैसे लेखकों की लगभग दर्जन-भर चर्चित किताबों का अनुवाद किया है। पिछले दिनों उन्होंने स्व. ओमप्रकाश दीपक की बहुचर्चित पुस्तक लोहिया : एक असमाप्त जीवनी को पूरा किया, जो लोहिया : एक जीवनी नाम से वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर ने ही प्रकाशित की है। इन दिनों वे लोकतन्त्र तथा आरक्षण विषयों पर किताब लाने की तैयारी कर रहे हैं।

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